सरदार हुकुम सिंह जिन्होंने अपने पद की गरिमा को ऊंचाइयों तक पहुंचाया
सरदार हुकम सिंह की काबिलियत का नेहरू जी भी लोहा मानते थे। उनके राजनीतिक जीवन का परिचय त्रिलोक दीप जी दे रहे हैं जो उनके बेहद करीबी रहे हैं।
इन दिनों संसदीय परंपरा का जिस तरह अवमूल्यन हो रहा है उसमें हुकम सिंह और नेहरू जी के आपसी संबंध और सहयोग की बातें वर्तमान सांसदों के लिए अनुकरणीय हैं।
20 अकबर रोड से मेरा पुराना संबंध है। यह लोकसभा के माननीय अध्यक्ष (Honorable Speaker) का आजकल स्थायी निवास है।
इस स्थान से मेरा परिचय तभी से है जब लोकसभा के अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह वहां निवास किया करते थे। वे लोकसभा के तीसरे माननीय अध्यक्ष थे।
पहले के दो अध्यक्ष श्री मावलंकर और श्री अय्यंगर जहां शुद्ध कांग्रेसी थे,सरदार हुकम सिंह अकाली दल के कांग्रेस से विलय के बाद आये थे ।
यह बात दीगर है कि अकाली नेता मास्टर तारा सिंह ने कुछ समय बाद विलय का समझौता रद्द कर दिया था लेकिन सरदार हुकम सिंह ने कांग्रेस पार्टी में ही बने रहने का फैसला लिया था।
सरदार हुकम सिंह अकाली पार्टी के प्रतिनिधि के तौर पर संविधान सभा के भी सदस्य थे लेकिन संविधान पर उनके हस्ताक्षर नहीं हैं।
क्योंकि वे चाहते थे कि संविधान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा हो तथा सिखों के लिए धार्मिक अल्पसंख्यकों के रूप में सुरक्षा प्रदान की जाये ।
जब वे अपने मन्तव्य मनवाने में सफल नहीँ हुए तो उन्होंने अपना विरोध दर्ज करते हुए संविधान पर हस्ताक्षर नहीं किये ।।बाद में सरदार हुकम सिंह कपूरथला हाई कोर्ट में जज भी रहे ।
1957 में वे अकाली दल की टिकट पर चुनाव लड़ कर लोकसभा में पहुंचे थे।
अपने सहज,सरल और सौम्य व्यवहार के कारण सभी पार्टियां उनका बहुत आदर सम्मान किया करती थीं जिस में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे ।
नेहरू जी ने ही लोकसभा के उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को देने का सुझाव दिया था जिसके फलस्वरूप सरदार हुकम सिंह विपक्ष के पहले उपाध्यक्ष चुने गये।
उनके बैठने का स्थान भी सदन के नेता के सामने वाली पहली सीट निर्धारित किया गया ।आज भी वह परंपरा बरकरार है ।
मुझे याद नहीं कि मावलंकर जी और अय्यंगर जी भी 20,अकबर रोड वाली कोठी में रहा करते थे कि नहीं लेकिन सरदार हुकम सिंह के समय से यह कोठी लोकसभा के अध्यक्ष के लिए स्थायी हो गयी थी ।
इसकी पृष्ठभूमि यह बताई जाती है कि मई,1964 में पंडित नेहरू के निधन के बाद दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जब तीन मूर्ति भवन,जहां पंडित नेहरू रहते थे,जाने से इंकार कर दिया तो प्रधानमंत्री के लिए एक स्थायी निवास की खोजबीन शुरू हुई ।
कई कोठियां देखी गयीं ।अन्ततः जनपथ की दो-तीन कोठियों को जोड़कर 10,जनपथ को प्रधानमंत्री आवास के तौर पर तैयार किया गया।
तर्क यह भी दिया गया कि क्योंकि ब्रितानी प्रधानमंत्री का स्थायी आवास 10, Downing Street है, उसी तर्ज पर भारतीय प्रधानमंत्री का आवास 10, जनपथ होगा ।
इसी के चलते कुछ और स्थायी बंगले तय हुए जिसमें लोकसभा अध्यक्ष के लिए 20, अकबर रोड निश्चित हुआ था । उपराष्ट्रपति के लिए 5, मौलाना आज़ाद रोड पहले से निश्चित था।
दुर्भाग्य से 1966 में ताशकन्द में शास्त्री जी का निधन हो जाने के कारण 10, जनपथ को अशुभ माना जाने लगा ।यहां कोई भी मंत्री आने को तैयार नहीं होता था।
प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के एक राज्यमंत्री नरहरि प्रसाद साय यहां पर आये । छत्तीसगढ़ के इस आदिवासी मंत्री ने एक बातचीत में बताया था कि कहीं कुछ अशुभ नहीं होता,यह मन का वहम और भ्रम है ।
आज 10, जनपथ दो भागों में बंटा हुआ है,एक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी रहती हैं और दूसरे भाग में लाल बहादुर शास्त्री संग्रहालय है।
प्रधानमंत्री आवास 7,रेस कोर्स रोड (अब लोक कल्याण मार्ग) है ।यह आवास भी चार बंगलों को जोड़ कर बनाया गया है ।
सरदार हुकम सिंह के साथ मेरे आत्मीय संबंध थे।
उनके समय समय पर होने वाले यात्रा संस्मरणों का मैने अंग्रेजी से हिंदी और पंजाबी में अनुवाद कर कई पत्र पत्रिकाओं में ही नहीं छपवाया है बल्कि वे पुस्तक रूप में भी आ चुके हैं ।
एक बार प्रभात प्रकाशन के मालिक श्याम सुंदर जी (अब दिवंगत) मेरे साथ 20,अकबर रोड सरदार हुकम से मिलने के लिए गये।
सरदार हुकम सिंह ने अपने स्वभाव के अनुसार बैठने के लिए कहा।
श्याम सुंदर जी ने उनके हिंदी में छपे संस्मरणों को पुस्तक रूप में छापने की जब अनुमति चाही तो सरदार साहब ने छूटते ही कहा ‘ये सभी अख्तियार त्रिलोक दीप को प्राप्त हैं ।’
इस पर प्रकाशक महोदय ने जब लिखित में अनुमति पत्र देने का निवेदन किया तो सरदार साहब ने अपने निजी सचिव को बुला कर इस आशय का पत्र लिखवा दिया।
इसमें लिखा कि ‘अंग्रेजी में लिखे मेरे सभी आलेखों का हिंदी और पंजाबी में अनुवाद कर छपवाने का पूरा अधिकार है। इसकी जो भी रॉयल्टी बनेगी वह भी त्रिलोक दीप की होगी।’
हाथोंहाथ यह पत्र प्राप्त कर श्याम सुंदर जी बहुत खुश हुए थे और उन्हें सरदार साहब के साथ मेरे आत्मीय संबंधों का भी बोध हो गया था ।
वे चावड़ी बाज़ार की अपनी शॉप में इस बात का अक्सर ज़िक्र किया करते थे ।
‘वे देश वे लोग ‘के नाम से छपी यह पुस्तक भी स्वयं श्याम सुन्दर जी सरदार साहब को भेंट करने आये थे ।
मैंने कुछ समय तक सरदार हुकम सिंह के निजी सचिव के तौर पर भी काम किया था ।
एक दिन देखा कि कुर्ता ,धोती और टोपी पहने एक दुबले पर लंबे व्यक्ति सरदार साहब से मिलने के लिए आये ।
पहले भी एक-दो बार वे आ चुके थे ।उनके साथ सरदार साहब ऑफ़िस में नहीं ड्रॉइंग रूम में बैठा करते थे । एक दिन मुझ से रहा नहीं गया।
मैं ने पूछा भाईया जी (पंजाब में पिता जी को कहीं कहीं इसी नाम से संबोधित किया जाता है) यह सज्जन कौन थे ?
उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए कहा कि यह सेठ रामकृष्ण डालमिया हैं। मेरे पुराने जानकार हैं ।पंडित नेहरू से इनकी कुछ खटपट है ।उसी बाबत बात करने आते रहते हैं ।अगली बार जब पंडित जी मुझ से मिलेंगे तो चर्चा करूंगा ।
पंडित जवाहरलाल नेहरू लोकसभा अध्यक्ष की बहुत इज़्ज़त किया करते थे ।
प्रोटोकोल के हिसाब से प्रधानमंत्री के बाद स्पीकर की वरिष्ठता मानी जाती है ।
अमेरिका में तो राष्ट्रपति,उपराष्ट्रपति के बाद प्रतिनिधि सभा (निम्न सदन) के Honorable Speaker को यह वरिष्ठता प्राप्त है ।
वहां के स्पीकर जेराल्ड फोर्ड उस समय राष्ट्रपति बने थे जब राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उपराष्ट्रपति ऐग्नेयू ने इस्तीफ़ा दे दिया था ।
पंडित नेहरू पद की वरिष्ठता का हमेशा ख्याल रखते थे।सरदार हुकम सिंह के लोकसभा के अध्यक्ष रहते दो महत्वपूर्ण कार्य हुए थे-
एक,डिवीज़न के समय मतों की गिनती के लिए ऑटोमेटिक वोटिंग सिस्टम की व्यवस्था
और दूसरे हिंदी से अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी से हिन्दी में साथ साथ अनुवाद करने के लिए interpreters यानी दुभाषियों की नियुक्ति करने का फैसला।
आम तौर पर जब भी संसद की किसी भी सदन में कुछ नयी व्यवस्था करनी होती थी तो उसकी जांच करने के लिए पंडित नेहरू सम्बन्धित अधिकारियों के साथ खुद आया करते थे।
नयी वोटिंग व्यवस्था देखने के लिए पंडित नेहरू लोकसभा सदन में कुछ इंजीनियर्स और अधिकारियों के साथ बातचीत कर रहे तो किसी ने सुझाव दिया कि स्पीकर साहब को भी बुला लीजिए ।
इस पर पंडित नेहरू भड़क गये और उस अधिकारी को घुड़की देते हुए बोले,’आपको इतना भी नहीं मालूम कि स्पीकर साहब को बुलाया नहीं जाता बल्कि उनके कक्ष में जाकर निवेदन किया जाता है।’
पंडित जी स्वयं सदन के साथ लगे उनके कक्ष में गये और सरदार हुकम सिंह से सदन में आकर नयी वोटिंग व्यवस्था को देखने का निवेदन किया ।
मैंने कई बार पंडित नेहरू को सरदार साहब के कक्ष में आकर उनसे विचार विमर्श करते हुए देखा था। यह है स्पीकर के पद का महत्व और गरिमा ।
एक बार सरदार हुकम सिंह ने पंडित नेहरू को सलाह दी कि जिस प्रकार चुनाव के समय ब्रितानी हाउस ऑफ़ कॉमन्स के स्पीकर के खिलाफ कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया वैसी ही व्यवस्था क्या हमारे यहां संभव है ।
ऐसा होने पर स्पीकर अधिक निष्पक्ष होकर अपने निर्णय देने में सक्षम होगा। उस समय तो पंडित नेहरू जी बिना कुछ कहे चले गये ।
कुछ दिनों के बाद उन्होँने सरदार साहब को बताया कि हमारे देश में यह इस मायने में व्यावहारिक नहीं है, कि एक तो हमारे यहां स्पीकर साहब का नाम पूर्वनिर्धारित नहीं होता और दूसरे हमारे यहां इतनी पार्टियां हैं जो हर चुनाव के बाद संभव है अपनी पार्टी का स्पीकर चुनना चाहेगी।
ब्रितानी हाउस में तो दो बड़ी पार्टियां हैं और दो छोटी, इसलिए वहां दिक्कत पेश नहीं आती।
अपने शिष्ट और मधुर व्यवहार के कारण सरदार हुकम सिंह की सभी पार्टियों में अच्छी साख थी।
जिन लोगों ने संविधान सभा में उनकी सक्रियता देखी थी वे उनकी विद्वता से भी परिचित थे। वे संविधान सभा की अध्यक्ष पैनल में भी शामिल थे ।
30 अगस्त, 1895 में मिंटगुमरी (अब पाकिस्तान में) में जन्मे सरदार हुकम सिंह ने अमृतसर और लाहौर में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी।
ब्रितानी हुकूमत की सिखों और सिख संस्थाओं के अत्याचारी रवैये के खिलाफ न केवल वे लड़ते रहे बल्कि जेल भी गये ।
वे अकाली दल के संस्थापक नेताओं में से थे और उसी पार्टी के प्रतिनिधि के तौर पर वे संविधान सभा के सदस्य बने।
पहले 20 अप्रैल,1956 और बाद में 1957 में सर्वसम्मति से लोकसभा के उपाध्यक्ष चुने गये ।
सन् 1962 में वे पटियाला से कांग्रेस पार्टी की टिकट पर लोक सभा का चुनाव जीत कर आये जो उनकी तीसरी जीत थी ।
कुछ अकाली नेता मानते थे कि राज्य पुनर्गठन आयोग ने सिखों के साथ न्याय नहीं किया।लिहाजा पंजाबी भाषी क्षेत्रों के लिए पंजाबी सूबा बनाने की मांग उठनी शुरू हो गयी।
पहले पहल पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरों ने अकाली नेताओं को यह समझाने की कोशिश की कि पंजाब की सीमा अटारी से लेकर दिल्ली की सीमा तक है, इसलिए पंजाबी सूबा न तो पंजाब के हित में है और न ही सिखों के हित में।
लेकिन अकाली नेताओं का तर्क था कि अलग पंजाबी सूबा बन जाने से उनकी धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियाँ अक्षुण्ण रहेंगी और उनका विकास होगा।
जब बातचीत से बात नहीं बनी तो पहले संत फतेह सिंह और बाद में मास्टर तारा सिंह आमरण अनशन पर बैठ गये। अब सरदार हुकम सिंह की सेवाएं ली गयीं ।
अनशन समाप्त होने के बावजूद पंजाब में तनावपूर्ण स्थिति बनी रही।
27 मई,1964 को पंडित नेहरू के निधन और 6 फरवरी, 1965 को प्रतापसिंह कैरों की हत्या के बाद जब हालात बेकाबू होते दिखे तो प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने सरदार हुकम सिंह की अध्यक्षता में पंजाबी सूबे के मसले के हल के लिए एक समिति गठित की।
सरदार हुकम सिंह ने पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के साथ गोपनीय और सार्वजनिक स्तर पर विचार-विमर्श का सिलसिला जारी रखा और आखिरकार पहली नवंबर, 1966 को पूर्वी पंजाब दो राज्यों में विभाजित हो गया–पंजाब और हरियाणा में ।
सरदार हुकम सिंह प्रारंभ में अकाली पार्टी से जुड़े, बाद में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चे में सचिव बने और फिर कांग्रेस में शामिल हो गये ।
अकाली पार्टी में रहते वे लोकसभा के उपाध्यक्ष चुने गये और जब अध्यक्ष बने तो कांग्रेस पार्टी में थे लेकिन उनके दोनों पदों पर चुनाव सर्वसम्मति से हुए थे ।
पंडित नेहरू ने उनके स्पीकर चुने जाने पर कहा था कि इस गरिमामय पद के लिए सदन ने वैसे ही गरिमामय व्यक्ति को चुना है जो अपने विद्वतापूर्ण, और निष्पक्षतापूर्ण व्यवहार , तटस्थता और स्पष्टवादिता के लिए विख्यात है।
उनकी संविधानसम्मत बेबाक और बेलाग रूलिंग्स को हम संविधान सभा और पहली तथा दूसरी लोक सभा में उपाध्यक्ष पद पर रहते हुए देख चुके हैं।
उस समय विपक्ष के नेता श्रीपाद अमृत डांगे ने विश्वास व्यक्त किया था कि ‘आपके रहते विपक्ष को संरक्षण ‘ प्राप्त होगा ।
और वास्तव में सरदार हुकम सिंह के स्पीकर काल को स्पष्ट रूलिंग्स वाला,निष्पक्ष लेकिन दृढ़निश्चयी माना जायेगा।
यदि एक बार व्यवस्था देने के लिए वह खड़े हो गये तो उन्हें टोकने या व्यवधान पैदा करने की किसी सदस्य की न हिम्मत हुआ करती थी और न ही जुर्रत।
विघ्न पैदा करने वाले सदस्य को भलीभाँति इसके अंजाम का पता होता था और वह था अगले सत्र में उसकी अनदेखी ।
उस समय सदन के सदस्य भी बहुत अनुशासित हुआ करते थे। इसका कारण था उनकी स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी।
कुछ संविधान सभा के भी सदस्य थे। उन्हें भी अपने दायित्व का बोध था और वे सरदार हुकम सिंह के मृदुभाषी लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति से भी परिचित थे ।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद पहली बार पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया था जिसे मंज़ूर कर सरदार हुकम सिंह ने उस पर बहस की इज़ाजत दे दी थी ।
लेकिन उन्होंने सदस्यों को सचेत करते हुए कहा था कि कोई अपनी सीमा नहीं लाँघेगा और मर्यादित, सभ्य और सटीक भाषा का इस्तेमाल करेगा।
जो भी आरोप सरकार पर लगाए जायें वे प्रमाण के साथ हों ।
वे बिना किसी भेदभाव हर सदस्य को बोलने की छूट देते थे ।
भारत और चीन में बढ़ते विवादों के कारण सरदार हुकम सिंह की अध्यक्षता में भारत की सुरक्षा हेतु एक कानून पारित किया गया था।
इससे पता चलता है कि सरकार उनके विद्वतापूर्ण विचारों और उनकी न्यायप्रियता से कितनी प्रभावित थी ।
‘ब्लिट्ज’ अखबार के मालिक और संपादक आर. के.करंजिया को सदन के विशेषाधिकार का हनन करने के लिए लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह ने सज़ा सुनायी थी ।
करंजिया के लिए एक कटघरा बनवाया गया था जो स्पीकर के आसन के सामने था।
निश्चित दिन करंजिया नीले रंग का सूट पहन कर आये। उन्हें माननीय अध्यक्ष के सामने कटघरे में खड़ा किया गया ।
अध्यक्ष महोदय ने उन पर लगाये गये आरोप पढ़े जिन्हें करंजिया ने सिर झुका कर स्वीकार किया।
उन्हें लोकसभा का सत्र उठने तक वहीं खड़ा रहने की सज़ा दी गयी। यह भी अपने किस्म की पहली घटना थी ।
सरदार हुकम सिंह समर्पित सिख थे। सिख धर्म के प्रचार प्रसार के लिए 1951 में उन्होंने एक अंग्रेज़ी साप्ताहिक पत्र निकाला ‘Spokesman ‘।
शुरू शुरू में वे खुद ही उसके संपादक थे और ज़्यादातर आलेख उन्हीं के लिखे होते थे ।बाद में जब वे लोक सभा के उपाध्यक्ष बने तो यह काम सांसद बहादुर सिंह को सौंप दिया ।
उनके अवकाश प्राप्त करने के बाद घनश्याम सिंह ने एडिटर की ज़िम्मेदारी संभाल ली ।लेकिन सरदार हुकम सिंह का नियमित लेखन जारी रहा ।विदेश से लौटने पर वे अपने यात्रा संस्मरण spokesman के लिए ही लिखा करते थे।
इन्हीं यात्रा संस्मरणों का मैं हिंदी में अनुवाद कर पत्र पत्रिकाओं में छपवाया करता था। सिखों की दुनिया में सरदार हुकम सिंह को ‘सिख धर्म का विश्वकोश ‘ कहा जाता था ।
सरदार हुकम सिंह से मेरी करीबी की मुख्तिसर दास्तान है। लोकसभा की जिस शाखा में मैं काम करता था उसका नाम गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों और संकल्पों की ब्रांच थी।
उसकी एक संसदीय समिति थी जिस के अध्यक्ष थे लोकसभा के डिप्टी स्पीकर जो उन दिनों सरदार हुकम सिंह थे ।
उस समिति में शायद बारह सांसद होते थे। हर शुक्रवार को दोपहर के बाद गैर-सरकारी सदस्यों के विधेय्कों और संकल्पों पर बहस होती थी।
उस कार्यसूची में शामिल विषयों पर समय देने का काम यह समिति निश्चित करती थी।
आम तौर पर मैं और एक अधिकारी इस समिति में आया करते थे।
मुझे तब तक यह पता चल चुका था कि संसदीय प्रतिनिथिमंडल के स्वदेश लौटने के बाद सरदार हुकम सिंह अपने संस्मरण लिखते हैं।
मैं ने कुछ पढ़े,अच्छे लगे,उनका अनुवाद भी हिंदी में कर लिया। छपने के लिए भेजने से पहले मैं सरदार साहब से अनुमति लेना चाहता था ।
एक बार मीटिंग खत्म होने के बाद मैंने हिम्मत कर के सरदार साहब से पूछ ही लिया ।
वे हैरत से बोले,’तुम हिंदी जानते हो ‘। मेरे हां कहने पर उनकी इज़ाजत मिल गयी ।
पहला यात्रा संस्मरण धर्मयुग और दूसरा साप्ताहिक हिंदुस्तान में छ्पा। सांसदों ने भी तारीफ की।इस तरह सरदार हुकम सिंह से मेरी निकटता बढ़ती चली गयी।
उनके स्पीकर बनने पर मैंने कुछ समय तक उनके निजी सचिव का काम भी किया था ।
दोस्ती निभाना कोई पंडित नेहरू और सरदार हुकम सिंह से सीखे। दोनों ने ही मौत का वरण 27 मई को किया।
नेहरू जी ने 1964 में और सरदार हुकम सिंह ने 1983 में । दोनों की याद को सादर नमन।