समाजवादियों का आदर्श ‌ पुरुष सच्चिदानंद सिन्हा चला गया!

प्रोफेसर राजकुमार जैन          

उम्र के 98 साल पूरा करके सच्चिदानंद सिन्हा महाप्रयाण कर गए।  उनके जाने से एक एहसास खत्म हो रहा है कि  जब कभी सोशलिस्ट तहरीक से पैदा हुए ‌ गद्दी नशीनो की करतूतों से जलालत, शर्मिंदगी उठानी पड़ती थी तो जंगे आजादी से जुड़कर आखरी सांस तक समाजवादी असूलों ‌ पर चलते हुए, इस गैर गेरूए कपड़े वाले साधु को देखकर हिम्मत बनती थी कि हमारी विरासत उन सियासी सौदागरों की न होकर सच्चिदानंद सिन्हा जैसी ‌ शख्सियतों से जुड़ी है।

 यूं तो ‌ उन्होंने  अंग्रेजी -हिंदी   में मुख्तलिफ मौजूओ पर तफ़सील से इतना लिखा कि ‌ सोशलिस्ट, पत्रकार अरविंद मोहन ‌ ‌ द्वारा बड़े करीने से  उसे ‌ रचनावली की शक्ल में संपादित कर आठ खंडों में प्रकाशित करने के बावजूद भी उनकी लिखी गई बहुत सी रचनाएं अभी भी कलमबंद नहीं हो पाई ।  हिंदुस्तान की किसी भी बड़ी लाइब्रेरी में जाइए ‌ अनेकों बुद्धिजीवियों द्वारा 8, 10, 12 ‌ खंडो में लिखी रचनावली लाइब्रेरी ‌ की अलमारी में  देखने को मिल जाएगी, परंतु अंदर खोलने पर पता चला चला कि छपने के 8-10 साल के बावजूद एक भी पाठक ने उसे लाइब्रेरी से इशू नहीं करवाया, कोरा कागज बिना छुए ही कोरा ही रह गया। परंतु सच्चिदानंद बाबू का लेखन पहले की छपी किताबों की कतरनों में से नहीं, जीवन में भोगे ‌ गए तजुर्बे की शान पर घिस कर लिखा गया है। एक‌ ‌ साधन संपन्न परिवार में जन्म लेने के बावजूद उनके घर वाले आजादी की जंग में जुटे थे। जिसके कारण उनके नाना और पिताजी दोनों अंग्रेजी सल्तनत की मुखालिफत के कारण जेल में बंद थे। इंटर के विद्यार्थी के रूप में वे छात्र कांग्रेस में शामिल हो गए, जिसका उद्घाटन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया था। इस वक्त उन्होंने एक पुस्तिका जिसमें जयप्रकाश नारायण द्वारा‌ लिखी गई एक चिट्ठी ‘ए लेटर टू ऑल  फाइटर्स फॉर फ्रीडम’ थी तथा डॉक्टर लोहिया की एक लघु पुस्तिका, ‘ रिबेल्स मस्ट एडवांस’  इन्होंने पढ़ ली थी। बीएससी  प्रथम वर्ष के बाद वे पढ़ाई छोड़कर समाजवादियों के मजदूर संगठनों में कार्य  करने के लिए चार‌ बड़े खदान,‌ क्षेत्रों  यरगडा, सिरका, भुलकुंडा और रेलीगढा में कार्य करने के लिए चले गए। सोशलिस्ट नेताओं ने इन्हें पटना में  काम करने के लिए बुला लिया। इसके बाद वे मुंबई में चले गए तथा वहां प्रोफेसर प्रो,पी जी, राव हॉर्नमैन मैन कॉलेज आफ जर्नलिज्म में  दाखिला‌ ले लिया। ‌एक साल का कोर्स पूरा करने के बाद ‌ मुंबई में ही सोशलिस्टों  की मिल मजदूर सभा में होल टाइमर के रूप में काम करने लगे।

 1952 में मुंबई में हुए लोकसभा के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी तथा डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की पार्टी के तालमेल से एक सीट से दो सदस्यों एक जनरल एक रिजर्व का चुनाव होता था, सोशलिस्ट पार्टी की ओर से अशोक मेहता तथा  रिजर्व सीट से डॉक्टर अंबेडकर चुनाव लड़ रहे थे तो सच्चिदानंद बाबू डॉ भीमराव अंबेडकर का चुनाव प्रचार कर रहे थे। पार्टी के होल टाइमर से हटाने के बाद  इन्होंने रेलवे में खलासी मजदूर  के रूप में काम करना शुरू कर दिया, तकरीबन 2 साल तक इन्होंने वहां पर काम किया। इसके बाद वे ऑल इंडिया रेलवे मेंस एसोसिएशन से जुड़ गए तत्पश्चात एक डाक में टैली क्लर्क का काम किया। वहां बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट जनरल वर्कर यूनियन में भी वे सक्रिय रहे। बाद में वह फिर पटना आ गए। उनकी प्रतिभा को देखकर 1956 में डॉक्टर लोहिया ने ‘मैनकाइंड’  में काम करने के लिए हैदराबाद बुला लिया। ‌ उसके बाद वे सोशलिस्ट पार्टी के विधानसभा उम्मीदवार के चुनाव में काम करने के लिए मणिका‌ मुजफ्फरपुर आ गए, तथा यहीं पर उन्होंने अपनी  पहली पुस्तक ‘समाजवाद के बढ़ते चरण’  तैयार की। ‌ इसके बाद वह दिल्ली आ गए। ‌‌ दिल्ली की लोघी‌ कॉलोनी‌ की एक बरसाती में वे रहते थे उस छोटी सी जगह में सामान के नाम पर किताबें ही अटी-पटी रहती थी।

दिल्ली में पहली बार इनको‌ 1968-  69 ‌मे मैंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की एक जनसभा‌ मैं देखा था। जिसको हमारे नेता सांवलदास गुप्ता ने ‌ होज काजी चौक पर आयोजित की थी, वहां पर वक्ता के रूप में इनको बुलाया था, परंतु उस जलसे में इनकी तकरीर बेमजा रही। दिल्ली के मेरे दो मित्र मदनलाल हिंद‌,( हिंदुस्तान टाइम्स) और‌ जर्मन भाषा विशेषज्ञ,  पारस चौधरी जो कि दोनों बिहार से है‌, उनसे सच्चिदानन्द बाबू की अधिक निकटता थी‌, मेरा भी संबंध उनके साथ जुड़ गया। बहुत ही ‌ साधारण वेशभूषा और कंधे पर एक झोला लटकाए, ‌ खादी के बुर्सेट और पेंट को पहने हुए इनको देखकर सादगी का आभास होता था। विट्ठलाई पटेल भवन के बराबर में यू एन आई के लोन में अक्सर मदनलाल हिंद, पारस चौधरी,‌ सच्चिदानंद बाबू और मेरी आपस में गुफ्तगू होती थी। उनका एक-एक शब्द भारी भरकम और जानकारी से भरा हुआ होता था, ‌ हालांकि हम लोग ‌ किस्सागोई में ज्यादा रस लेते थे, परंतु सचिदानंद जी हमेशा ज्ञान गंभीर वार्ता को ही आगे बढ़ाते थे। इसी दौरान दिल्ली में  सोशलिस्ट पार्टी और समाजवादी युवजन सभा द्वारा आयोजित‌ शिक्षण शिविरों ‌ मैं उनकी वार्ता सुनने को मिलती थी।बाद में सचिदानंद बाबू, मधु लिमए  के घर पर भी जाने लगे, वहां पर मेरा  और अधिक निकटता का संबंध जुड़ा‌। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे विनोदानंद प्रसाद सिंह‌ भी मुजफ्फरपुर के रहने वाले थे,‌ उनके‌ तथा सच्चिदा जी के साथ ‌ समाजवादी आंदोलन पर ‌ गहन गंभीर चर्चा ‌ मुझे भी सुनने को मिलती थी। 

 1977 के लोकसभा  चुनाव में‌ मुजफ्फरपुर (बिहार)  संसदीय क्षेत्र से जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में ‌ जॉर्ज फर्नांडिस को बनाया गया। उस वक्त तक जॉर्ज फर्नांडीज दिल्ली की तिहाड़ जेल में डायनामाइट केस में बंदी थे परंतु मैं मीसा ‌ ‘मेंटेनेंस आफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट’  से रिहा होकर बाहर आ गया था।

जार्ज साहब का नॉमिनेशन पेपर  मुजफ्फरपुर में दाखिल करने की जिम्मेदारी पार्टी के द्वारा मुझे दी गई। मैं नॉमिनेशन पेपर तिहाड़ जेल से लेकर मुजफ्फरपुर दाखिल करने के लिए गया। वहां पर सच्चिदा बाबू चुनाव प्रबंधन में लगे हुए थे। कई दिनों मैंने मरहूम सुषमा स्वराज, ‌ रविंद्र मनचंदा, ललित गौतम ‌ ने चुनाव प्रचार किया। उस समय सच्चिदा जी से काफी ‌ बातचीत करने का मौका मिला।

दिल्ली आने पर सच्चिदा जी अपना अधिकतर समय लेखन में लगाने लगे और यहीं पर उन्होंने सोशलिज्म एंड पावर, इंटरनल कॉलोनी, इमरजेंसी इन प्रोस्पेक्टिव, परमानेंट क्राइसिस आफ इंडिया, बिटर हार्वेस्ट, क्रेयॉस एंड क्रिएशन, कास्ट सिस्टम, अनआर्म्ड  प्रॉफेट, कलेक्शन इन पॉलिटिक्स, एडवेंचर्स ऑफ़ लिबर्टी, ज़िन्दगी सभ्यता के हाशिये पर, उपभोक्तावादी संस्कृति, मार्क्सवाद को कैसे समझे  जैसी पुस्तकों का निर्माण किया। जवाहरलाल नेहरू म्यूजियम एंड लाइब्रेरी ‌ के डिप्टी डायरेक्टर हरि देव शर्मा जी ‌ जो कभी डॉक्टर लोहिया के सचिव भी रह चुके थे, ‌ उनके कमरे में भी ‌ समाजवादी विचार दर्शन, सिद्धांतों,‌ इतिहास ‌ के संदर्भ में होने वाली बातों को सुनने का ‌ कभी-कभी मुझे भी ‌ अवसर मिलता था।

1987 में यह वापस अपने गांव मणिका चले गए। गांव में रहकर इन्होंने संस्कृति और समाजवाद, मानव सभ्यता और राष्ट्र राज्य, भारतीय राष्ट्रीयता और सांप्रदायिकता, संस्कृति विमर्श, नक्सली आंदोलन का वैचारिक संकट, सोशलिज्म: ए मेनिफेस्टो फॉर सर्वाइवल,  पूंजी का अंतिम अध्याय, वर्तमान विकास की सीमाएं, पूंजीवाद का पतझड़ आदि पुस्तकें लिखी। और इस बीच में अखबारों में भी लेख लिखते रहे। राजनीतिक विषयों के साथ-साथ कला, संस्कृति, साहित्य, संगीत, दर्शन, मनोविज्ञान, सौंदर्य शास्त्र इत्यादि पर भी ‌ गहन लेखन किया है।

‌  सच्चिदा  बाबू उन विरले समाजवादियों में थे जिन्होंने अपने लड़कपन से ही समाजवादी तहरीक में मजदूर संघों में काम करना शुरू कर दिया था। एक बड़े बुद्धिजीवी होने के बावजूद उन्होंने तमाम उम्र नई पीढ़ी के लोगों को समाजवादी विचार दर्शन में दीक्षित करने में अपनी जिंदगी को खपा दिया। ‌ उन्होंने जीवन भर अपने लिए कुछ नहीं चाहा।

‌ सच्चिदा  बाबू ही थे जो मुंबई, दिल्ली,  पटना जैसे शहरों को छोड़कर अपने एक साधारण गांव में  ही सादगी के साथ अपना जीवन व्यतीत करने लगे। आखिरी बार उनको 2015 में दिल्ली में गांधी पीस फाउंडेशन में आयोजित गोष्ठी में सुनने को मिला था। उन्होंने अपने जीवन में कभी भी विधायिका की ओर देखा भी नहीं, अगर वे चाहते तो उनको लोकसभा, विधानसभा का टिकट आसानी से मिल सकता था। परंतु वह तो एक साधक थे, समाजवादी गुरुकुल के आचार्य थे, उसी में तल्लीन रहते हुए अपना जीवन गुजार दिया।

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