सूचना का अधिकार खतरे में! आयोगों में सालों से अटके लाखों RTI मामले

UPA सरकार ने प्रशासन में पारदर्शिता और भ्रष्टाचार कम करने के लिए सूचना अधिकार क़ानून बनाया था, लेकिन सरकारों ने इस क़ानून को जानबूझकर निष्प्रभावी बना दिया है। पहले  सूचना आयोगों में अपने चहेतों की भर्ती करके और बाद सूचा आयुक्तों के तमाम पदों को खाली रखकर।

इकोनॉमिक टाइम्स में आज प्रकाशित सर्वे और Satark Nagrik Sangathan की रिपोर्ट दर्शाती है कि सूचना आयोगों में लंबित मामलों के कारण RTI कानून का उद्देश्‍य — समय पर पारदर्शिता — गंभीर रूप से प्रभावित हो रहा है।  

भारत का Right to Information (RTI) कानून नागरिकों को सरकारी निर्णयों और दस्तावेज़ों तक पहुँच दिलाकर पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने का अहम साधन रहा है। पर आज, जब RTI लागू होने के बीस साल पूरे होने जा रहे हैं, Satark Nagrik Sangathan (SNS) द्वारा आयोजित सर्वे और इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट एक चिंताजनक तस्वीर सामने रखती है — सूचना आयोगों में मामलों का भारी बैकलॉग और सुनवाई तक पहुँचने में सालों लगने का खतरा।  

SNS की गणना के मुताबिक़, देश के 29 सूचना आयोगों में से 18 में किसी साधारण अपील या शिकायत के निपटारे के लिए एक साल से अधिक का औसत प्रतीक्षा-समय है। इसका मतलब यह है कि नागरिक जो सूचना पाने के लिए RTI का सहारा ले रहे हैं, वे अक्सर इतनी देर तक इंतज़ार कर रहे हैं कि सूचना का सार्वजनिक महत्व कम हो जाता है या मामला अप्रासंगिक हो जाता है।  

विशेष रूप से चिंताजनक आँकड़े यह दर्शाते हैं कि कुछ राज्य सूचना आयोग मामलों के निपटान में दशकों ले सकते हैं — उदाहरण के लिए, SNS के अनुमानों के अनुसार तेलंगाना राज्य सूचना आयोग में एक सामान्य अपील का निपटारा लगभग 29 साल बाद संभव है; त्रिपुरा के लिए यह अनुमान लगभग 23 साल और छत्तीसगढ़ के लिए 11 साल बताया गया है। ऐसे अनुमान RTI की उपयोगिता और तात्कालिकता पर गम्भीर प्रश्न खड़े करते हैं।  

बैकलॉग और देर के पीछे के कारण भी रिपोर्ट में स्पष्ट किए गए हैं: कई आयोगों में समय पर नए कमिश्नरों की नियुक्ति नहीं होना, आयोगों का आंशिक या पूर्ण रूप से निष्क्रिय होना, और नियमित कार्य-क्षमता में कमी। कुछ आयोगों के बिना मुखिया के लंबी अवधि तक रहने से निर्णयनिरपेक्षता और त्वरित सुनवाई दोनों प्रभावित होते हैं।  

पृष्ठभूमि में एक अन्य चिंता: समय-सीमा से संबंधित यह देरी सिर्फ़ आंकड़ों का खेल नहीं है — यह नागरिकों के हक के ठोस हनन से जुड़ी है। सूचना का देर से मिलना या न मिलना नीतिगत सवाल उठाता है: क्या सरकारें और संस्थाएँ जवाबदेही से बचने के लिए प्रक्रियात्मक घनत्व (procedural delay) का सहारा ले रही हैं? क्या आयोगों की निष्क्रियता से लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर हो रही है? इन प्रश्नों का जवाब बहुत जरूरी है।  

अंतरिम आँकड़े और परिदृश्य: 30 जून, 2025 की स्थिति के मुताबिक़—जिसे हाल ही की रिपोर्टों में उद्धृत किया गया है—सूचना आयोगों में लाखों अपीलें और शिकायतें लंबित हैं; कुछ संक्षेपित रिपोर्टों के अनुसार पूरे देश में चार लाख से अधिक मामले लंबित बताए जा रहे हैं। यह संख्या और भी भयावह तब दिखती है जब उसके साथ सुनवाई-क्षमता और आयोगों के खाली पड़े पदों का ट्रेंड जोड़ा जाता है।  

समाधान की जरुरत — कुछ प्राथमिक सुझाव:

1. सूचना आयोगों के पदों पर शीघ्र और पारदर्शी नियुक्तियाँ सुनिश्चित की जाएँ, ताकि आयोग पूरी क्षमता से काम कर सकें। आयुक्तों के चयन में योग्यता पर विशेष ध्यान रखा जाए।

2. आयोगों के डिजिटलीकरण और मामलों के निपटान के आधुनिक प्रबंधन (case-management systems) में निवेश कर के प्रतिदिन की निपटान दर बढ़ाई जाए।  

3. सेक्शन 4 (स्वयं-प्रकाशन) के अनुपालन को ज़ोर देकर ऐसे मामलों की संख्या घटाई जाएँ जिन्हें अपीलों के लिए आयोग तक पहुँचना पड़ता है। यानी सरकारें पहले ही सार्वजनिक करने के नियम का पालन करें।  

4. जानकारी देने में देरी या गलत सूचना के मामलों में दंडात्मक प्रावधानों का कठोर और प्रभावी उपयोग सुनिश्चित किया जाए, ताकि गोपनीयता के नाम पर देरी का दुरुपयोग रोका जा सके।  

निष्कर्ष: RTI एक्ट का उद्देश्य केवल सूचना देना नहीं, बल्कि नागरिक-सत्ता के बीच पारदर्शिता और जवाबदेही कायम करना था। पर हाल की रिपोर्टें दिखाती हैं कि आयोगों में बढ़ता बैकलॉग और वर्षों तक चलने वाली प्रतीक्षा-सूची इस उद्देश्य को कमजोर कर रही है। यदि सरकारें, प्रशासन और न्यायिक सुविधा-संस्थाएँ समय रहते सुधारात्मक कदम नहीं उठातीं, तो RTI का मूल अधिकारिक प्रभाव धीरे-धीरे खो सकता है ।

टैग्स: RTI, Satark Nagrik Sangathan, Information Commissions, पारदर्शिता, लोकाचार, सूचना-विलंब.  

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