सूचना का अधिकार और प्रधानमंत्री केयर्स फंड
अशोक कुमार शरण
कोविड – 19 वैश्विक महामारी जैसी आपात स्थिति से निपटने के लिए प्रधानमंत्री केयर्स फंड की स्थापना एक ट्रस्ट के रूप में 28 मार्च, 2020 को की गई थी। प्रधानमंत्री इस ट्रस्ट के पदेन अध्यक्ष और गृह मंत्री, रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री इसके पदेन सदस्य हैं। एक अनुमान के अनुसार इस ट्रस्ट की स्थापना के पहले सप्ताह में 6500 करोड़ रुपये और अभी तक 10,000 करोड़ रुपये एकत्रित हुए हैं। राजनैतिक दलों, सूचना के अधिकार व नागरिक समाज के बढ़ते दबाव के कारण सरकार ने 13 मई को घोषणा की है कि उसने 3100 करोड़ रुपये वेंटीलेटर, प्रवासी मजदूरों की भलाई और कोरोना विषाणु के टीके की खोज के लिए दिए हैं। इसकी स्थापना के तीन दिन बाद 1 अप्रैल को अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के छात्र हर्ष कन्दुकुरी ने प्रधानमंत्री कार्यालय से इस फंड के बारे में जानकारी मांगी। जिसका उत्तर उन्हें दो महीने बाद दिया गया कि प्रधानमंत्री केयर्स फंड लोक प्राधिकार (पब्लिक ऑथिरिटी) नहीं है, इसलिए सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा 2(एच) के अनुसार जानकारी नहीं दी जा सकती है। इससे स्पष्ट लगता है कि सरकारों की सोच नहीं बदला करती है चाहे उसको चलाने वाले कोई भी राजनैतिक दल के हों।
वर्ष 2008 में जब आरटीआई कार्यकर्ता असीम तकयार ने प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष के बारे में प्रार्थना पत्र दिया था तो लगभग यही उत्तर प्रधानमंत्री कार्यालय से मिला था। प्रधानमंत्री कार्यालय से उन्हें यह कह कर जानकारी नहीं दी गई कि यह सार्वजनिक हित में नहीं है। उस समय मनमोहन सिंह की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार थी और आज नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने एक जनसभा में कहा था कि जनता को राष्ट्रीय कोष के बारे में आरटीआई से जानने का अधिकार है। अब सवाल उठ रहे हैं कि जब उन्होंने प्रधानमंत्री केयर्स फंड बनाया तो उसे आरटीआई के दायरे से बाहर क्यों रखा। लोग इस पर भी सवाल करते हैं कि पहले से ही प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष के होते हुए जिसमें वर्ष 2018-19 के ऑडिट के अनुसार 3800 करोड़ रूपये हैं तो नए ट्रस्ट बनाने की क्या आवश्यकता थी। वर्ष 2008 के मामले में असीम तकयार प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष में मिले दान का हिसाब जानने के लिए कानूनी लडाई लड़ रहे हैं जो कानूनी दांव पेंच में उलझा है और जिसकी सुनवाई दिल्ली उच्च नयायालय में जुलाई 2020 में निर्धारित है। हर्ष कन्दुकुरी का कहना कि वे प्रधानमंत्री कार्यालय के खिलाफ अपील करेंगे।
यदि प्रधानमंत्री केयर्स फंड सरकार के नियंत्रण में नहीं है तो किसके नियंत्रण में है। इस ट्रस्ट का नाम, गठन, एम्बलम सभी साबित करता है कि यह लोक प्राधिकार (पब्लिक ऑथिरिटी) है। ऐसा ट्रस्ट जिसे केंद्र सरकार के चार कैबिनेट मंत्रियों द्वारा बनाया और चलाया जा रहा है। यह कहना कि यह लोक प्राधिकार नहीं है बिलकुल अपारदर्शी है। इससे पहले भी प्रधानमंत्री कार्यालय ने विक्रांत तोगाड द्वारा दायर प्रार्थना पर जानकारी देने से यह कह कर इंकार कर दिया था कि एक ही प्रार्थना पत्र में इतने सारे सवाल उचित नहीं है, जब तक कि उसके लिए उचित फीस के साथ प्रार्थना पत्र न दिया जाए। विक्रांत ने 12 प्रश्नों द्वारा जानकारी मांगी थी। राष्ट्रमंडल मानवाधिकार के प्रतिनिधि वेंकटेश नायर के अनुसार प्रधानमंत्री केयर्स फंड का उद्देश्य पूर्ण रूप से लोक आधारित है और इस निधि का संचालन भी पब्लिक अथॉरिटी द्वारा किया जाता है। जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ साथ और भी विभाग शामिल हैं। सतर्क नागरिक संगठन की अंजलि भार्गव का भी कहना है कि इसमे छुपाने की क्या बात है।
एस. एस. हुडा ने वकील आदित्य हुडा के माध्यम से 4 जून को दिल्ली उच्च न्यायालय में एक पीआईएल दाखिल कर अनुरोध किया है कि प्रधानमंत्री केयर्स फंड में पारदर्शिता के लिए तथा प्राप्त और खर्च की गयी राशि का ब्यौरा सरकारी वेबसाइट पर दिया जाए। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 10 जून को यह कहते हुए याचिका ख़ारिज कर दी कि कर्नाटक उच्च न्यायालय में इस विषय पर पहले से ही एक याचिका लंबित है। अत: हम अभी इसकी सुनवाई नहीं करेंगे। मुम्बई उच्च न्यायालय के नागपुर बेंच में वकील अरविंद वाघमारे ने प्रधानमंत्री केयर्स फंड में पारदर्शिता लाने के लिए एक पिटीशन दाखिल की है जिसमें अनुरोध किया गया है कि सरकार एक निर्धारित अवधि में इस फंड में जमा की गई राशि का विवरण सरकारी वेबसाईट पर डाले और इसका ऑडिट ‘कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल’ (CAG) से करवाए। अदालत में इसका विरोध सरकार के एडिशनल सॉलिसीटर जनरल अनिल सिंह ने किया। उन्होंने जस्टिस एस. बी. शुक्रे एवं जस्टिस ए एस विलोर के बेंच को जानकारी दी कि ऐसी ही एक पिटीशन को उच्चतम न्यायालय ने ख़ारिज कर दिया है।
नागपुर बेंच ने यह कहते हुए कि इसमे अलग रिलीफ मांगी गई है, केंद्र सरकार को दो महीने के अन्दर जवाब देने के लिए कहा है। वकील वाघमारे का कहना है कि पदेन अध्यक्ष और पदेन ट्रस्टियों के अतिरिक्त तीन और ट्रस्टियों को इसमें नियुक्त किया जाना था जो अभी तक नहीं किया गया है। इन तीन में से दो सदस्य विपक्षी दलों के लिए जायें। सूचना का अधिकार अधिनियम धारा 2(एच) में लोक प्राधिकार (पब्लिक ऑथिरिटी ) ही प्रमुख स्तंभ है, जिसके अंतर्गत सूचनाएं प्रदान की जाती हैं। सरकारी विभाग, सीआईसी, अदालतें सभी इसी धारा को आधार बना कर निर्णय देते हैं। पब्लिक ऑथिरिटी से अर्थ है संविधान, संसद, विधान सभा द्वारा बनाई गयी या किसी अन्य विधि द्वारा जारी की गई अधिसूचना या गठित कोई प्राधिकारी या निकाय या स्वायत सरकारी संस्था। यदि कोई ऐसी संस्था भी है जिसका अधिकांश कार्य सरकारी फंड से चलता हो वह भी आरटीआई के दायरे मे आती है। प्रधानमंत्री केयर्स फंड (PM Citizen Assistance and Relief in Emergency Situation Fund) और प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष (PMNRF) का ऑडिट कैग (CAG) द्वारा कराने पर भी सवाल उठते रहते हैं। कई लोगो का यह कहना है क्योंकि यह कोष लोगों और संस्थाओं के दान पर निर्भर है, अत: कैग को इसका ऑडिट करने का अधिकार नहीं है।
दूसरे पक्ष का कहना है कि इस ट्रस्ट में चार कैबिनेट मंत्री हैं और सरकारी अधिकारी इसका काम देखते हैं और इंडियन ऑयल, ओएनजीसी जैसी कई सरकारी कंपनियां भी इसमें दान कर रही हैं तो इसका ऑडिट कैग से होना ही चाहिए। प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष का ऑडिट भी कैग (CAG) नहीं करता है परंतु सरकारी ऑडिटर्स ने 2013 में उत्तराखंड बाढ़ के दौरान सरकार द्वारा इस कोष में से किये गये खर्चो के बारे में जानकारी मांगी थी। यह भी दलील दी जाती है कि जब कैग संयुक्त राष्ट्र संघ के वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन (WHO) एवं फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन (FAO) जैसी प्राइवेट संस्था का ऑडिट कर सकता है तो एक सरकारी ट्रस्ट का क्यों नहीं कर सकता। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी संस्थाओं का ऑडिट करने के लिए तीन सदस्यों का एक पैनल बनाया है जिसमे फ़िलहाल भारत भी है और एक पैनल का अध्यक्ष भी है। इसलिए भारत सरकार की संस्था कैग संयुक्त राष्ट्र संघ की इन संस्थाओं का ऑडिट करता है।
सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत उसके विभिन्न निर्णयों से यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सहायता कोष इसके अंतर्गत आता है। अत: केंद्र और राज्य सरकारों को इस सम्बन्ध में लोगों को सूचनाएं उपलब्ध करानी चाहिए। केंद्र सरकार तो न्यायालय की शरण में गई है जहां निर्णय लंबित है परन्तु इस सम्बन्ध में राज्यों का रिकॉर्ड अच्छा है। अधिकतर राज्य सरकारें पारदर्शी तरीके से इस कोष की सूचनाएं उपलब्ध करवाती हैं। इनमें केरल का ‘मुख्यमंत्री आपदा सहायता कोष’ सबसे अधिक पारदर्शी है, जिसमें प्रतिदिन मिलने वाले दान और खर्चों का विवरण दिया जाता है। यह सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत भी आता है। इसके बाद महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़ आदि राज्य हैं जो सूचनाएं उपलब्ध करवाते हैं। जिन राज्यों में पारदर्शिता नहीं है वहां के लोग इस अधिनियम के अंतर्गत दिए गए प्रावधानों का उपयोग करते हुए जानकारी ले सकते हैं। देश की सभी राज्य सरकारों को वैधानिक रूप से मुख्यमंत्री सहायता कोष को सूचना के अधिकार अधिनयम के अंतर्गत ही रखना चाहिए ताकि पारदर्शी भारत की एक स्वच्छ छवि बन सके।
( लेखक सर्व सेवा संघ, सेवाग्राम के प्रबंधक ट्रस्टी हैं)