विवादास्पद कृषि क़ानूनों की वापसी लोकतंत्र और शांतिपूर्ण सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र की जीत
राम दत्त त्रिपाठी
विवादास्पद कृषि क़ानूनों की बिना शर्त वापसी अंततः लोकतंत्र और शांतिपूर्ण सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र की जीत है जो महात्मा गांधी और स्वतंत्रता आंदोलन की देन है।राजनीतिक समीक्षक अक्सर कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार जो ठान लेते हैं, उससे पीछे नहीं जाते, लेकिन शुक्रवार को गुरु पर्व पर राष्ट्र के सम्बोधन में उन्होंने तीनों कृषि क़ानूनों को जिस तरह बिना शर्त वापस लेने का फ़ैसला लिया वह यही साबित करता है कि प्रबल जनमत के सामने सरकार को झुकना ही पड़ता है ।
संयुक्त किसान मोर्चा ने जिस तरह एक साल में देश भर के तमाम किसान संगठनों को एक मंच पर लाकर बिना झुके, बिना रुके आंदोलन चलाया, सरकार की तमाम उत्तेजनात्मक कार्यवाहियों के बावजूद आंदोलन को शांतिपूर्ण रखा उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।
लेकिन अगर प्रधानमंत्री मोदी शुरू में ही किसानों की बात मान लेते तो इस दौरान आठ सौ से अधिक किसानों ने अपने जीवन का बलिदान नहीं देना पड़ता।किसानों ने यह बलिदान इसलिए दिया क्योंकि इन क़ानूनों के चलते यह आशंका हो गयी थी कि देश में कृषि उपज का बिज़नेस कुछ बड़े व्यापारियों के हाथ में चला जाएगा और कांट्रैक्ट खेती के एक तरफ़ा क़ानून से उनकी ज़मीन भी हाथ से निकल जाएगी।
विशेषकर जब सुप्रीम कोर्ट में तीनों कृषि क़ानूनों का क्रियान्वयन स्थगित कर दिया था, उसके बाद भी सरकार का तीनों विवादास्पद क़ानून वापस लेने में हीलाहवाली करने का कोई औचित्य नहीं था।
प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में कहा कि तीनों कृषि क़ानूनों को वापस करने की औपचारिक प्रक्रिया सांसद के अगले सत्र में पूरी की जाएगी। लेकिन हम याद दिलाना चाहते हैं कि मोदी सरकार ने ये विवादास्पद क़ानून बनाते समय इस संसदीय प्रक्रिया का पालन नहीं किया था, बल्कि अध्यादेश के ज़रिए ये क़ानून बनाए गाय थे। तो फिर आज भी अध्यादेश के ज़रिए ये क़ानून रद्द क्यों नहीं किए गए।
यह सही है कि आज किसानों को उनकी उपज का उचित दाम नहीं मिलता। उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में मंडी व्यवस्था ठीक से नहीं चल रही और उसमें तत्काल सुधार की ज़रूरत है। सरकार जो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है वह भी सबको नहीं मिलता।
प्रेक्षकों की राय थी कि ये क़ानून एक बिज़नेस लाबी के दबाव में लाए गए थे जो सत्तारूढ़ दल के चुनाव खर्च में योगदान करते हैं। इसी लाबी के दबाव की वजह से क़ानून वापसी में देर हुई।
लेकिन क़ानून वापस लेते हुए भी उन्होंने अपने सम्बोधन में लगातार तीनों विवादास्पद क़ानूनों को उचित ठहराया और किसानों को छोटे और बड़े किसानों में विभाजित करने का प्रयास किया।
तो फिर उचित होते हुए भी क़ानून वापस क्यों लिए जा रहे हैं। कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि किसानों ने देश भर में गाँव – गाँव तक आंदोलन की अलख जगाकर यह राजनीतिक संदेश दे दिया था कि इन क़ानूनों पर सरकार की ज़िद के चलते स्वयं प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। वैसे कहने को तो उन्होंने प्रकाश पर्व पर यह घोषणा करके यह जताने की कोशिश की है कि वह पंजाब के किसानों को खुश करने के लिए यह निर्णय ले रहे हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि भारतीय जनता पार्टी को किसान आंदोलन के चलते उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में अपनी नाव पार लगाना मुश्किल लग रहा है। एक बार उत्तर प्रदेश हाथ से निकला तो दिल्ली की गद्दी सलामत नहीं रहेगी। इसीलिए आज उत्तर प्रदेश में अपने चुनाव दौरे पर आने से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने यह विवादास्पद क़ानून वापस लेने में ही अपनी भलाई समझी। चुनाव जीतने के लिए केवल राम मंदिर या विश्वनाथ कोरिडोर और सम्पन्न लोगों के लिए हवाई अड्डे या एक्सप्रेसवे बनाना पर्याप्त नहीं बल्कि आम लोगों का विश्वास ज़रूरी है। और यह देश किसानों, मज़दूरों आम लोगों का है, चंद अरबपतियों का नहीं।
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