रावण का ओरिजनल नाम दशग्रीव था पर वह रावण क्यों बना ?
पिता का दिया नाम भूल गया और रावण नाम प्रसिद्ध हुआ
दिनेश कुमार गर्ग
ऋषि वाल्मीकि ने राम और रावण नाम के दो चरित्र भारतीय सनातन सांस्कृतिक परंपरा में ऐसे पिरो दिये हैं जो कालजयी मृत्युंजय हो गये हैं। राम के बारे में कहना ही क्या , वह जन जन के मन में हैं । तप, दान ,पूजा , भक्ति, आनन्द, प्रेरणा , शिक्षा , संबल , शौर्य , त्याग , प्रेम , एक पत्नी व्रत , लोक चेतना आदि गुणों के मूर्तिमान चरित्र हैं राम। पर रावण ? रावण उन सबका उल्टा जिनके लिए राम लोकप्रिय होते आये हैं । रावण का नाम कोई पिता अपने बच्चे को नहीं देता । खुद रावण को भी उनके पिता ऋषि विश्रवा ने दशग्रीव नाम दिया पर युवावस्था में रावण को मिले रावण नाम से पिता का दिया नाम लोक में और इतिहास में लोकप्रिय न हो सका। दशग्रीव ने अपनी राक्षसवंशीय जननी कैकसी और नाना राक्षस सुमाली के शिक्षण और प्रेरणा से युवावस्था आते आते अपने सौतेले बडे़ भाई कुबेर से स्वर्णमयी लंका और पुष्पक विमान छीन लिया। वह ब्रह्मा जी के वरदान से पृथ्वी के किसी भी जाति के प्राणी से अविजित होकर दम्भ और मूर्खता का प्रतिमान बनने लगा । उसका अहंकार इतना बढा़ कि उसने भगवान शंकर के पार्षद नन्दीश्वर से पंगा ले लिया ।
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दशग्रीव युवावस्था में जब पुष्पक वीमान पर पृथ्वी भ्रमण कर रहा था तो वह एक समय कार्तिकेय की जन्मस्थली शरवण वन ( सरकण्डे का वन ) में एक शिव क्रीडा के लिए आरक्षित क्षेत्र पहुंच गया और वहां उसके विमान का उड़ना बन्द हो गया। वह विमान से उतर कर कारण जानने के लिए वनप्रान्त में पर्वत शिखर पर चढ़ने लगा जहां जाने से शिव पार्षद नन्दीश्वर ने उसे रोका और बताया कि यह क्षेत्र शिव की क्रीडा भूमि है , वहां मत जाओ। उनके निषेध की अवहेलना कर दशग्रीव पर्वत पर चढ़ने लगा , साथ ही नन्दीश्वर के वानर सदृश स्वरूप का उपहास उडा़ने लगा। इस पर नन्दीश्वर ने शाप दिया कि मेरे स्वरूप वाले भयंकर वानर राम के साथ आयेंगे और तुम्हारा विनाश करेंगे। नन्दीश्वर की अनसुनी कर वह जबरदस्ती उस क्षेत्र में घुसा और उस पर्वत को अपने वज्र कठोर भुजाओं से पकड़कर उठाने लगा जिसपर जगदम्बा पार्वती और भगवान शंकर विहार कर रहे थे। उठाने के प्रयास में पर्वत कम्पायमान हुआ तो देवी पार्वती भयभीत विचलित हो गयीं और भगवान शिव से लिपट गयीं। पार्वती का भय दूर करने व पर्वत को स्थिर करने के लिए भगवान शंकर ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को धरती पर दबा कर सुस्थिर कर दिया।
पर्वत जिसे रावण उठा रहा था, वह सुस्थिर क्या हुआ कि उसके नीचे रावण की भुजायें चपटने लगीं। विस्मित रावण ने अपनी भुजाएं पर्वत के नींचे से खींचना चाहा तो शंकर के बल के दबाव में वे और दब गयीं जिसकी पीडा़ रावण को असह्य लगने लगी और वह वह जोर जोर से आर्तनाद कर रोने लगा । उसके रोने के स्वर से तीनों लोक कांपने लगे-
रक्षसा तेन रोषाच्च भुजानाम् पीडनात् तथा।
मुक्तो विरावः सहसा त्रैलोक्यं येन कम्पितम्।।
( उस राक्षस ने रोष तथा बांह की पीडा़ के कारण सहसा बडे़ जोर से विराव यानी रोदन या आर्तनाद किया जिससे तीनों लोकों के प्राणी कांप उठे। )
समुद्राश्चापि संक्षुब्धाश्चालिताश्चापि पर्वताः ।
समुद्र में ज्वार आ गया , पर्वत हिलने लगे , मेनिरे वज्रनिष्पेषं मतलब कि विनाशकारी वज्रपात होने लगे ।
हताश रावण के साथ चल रहे छह प्रमुख सलाहकारों ने रावण को समझाया कि भगवान शंकर से प्रार्थना करने पर ही पीडा़ दूर होगी। रावण ने वैसा ही किया -सामभिर्विविधैश्लोकैः यानी एक हजार वर्षों तक रोते हुए रावण ने साम गायन कर भगवान शंकर को प्रसन्न किया । भोले भगवान शंकर ने रावण से कहा –
प्रीतोस्मि तव वीरस्य … हे वीर मैं तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हारी बाहुओं को मुक्त करता हूं । पर्वत से दब जाने के कारण तुमने अत्यंत भयानक राव ( आर्तनाद ) किया उससे तीनों लोक व्यथित हो गया , इसलिये हे राक्षसराज –
तस्मात त्वं रावणो नाम नाम्ना राजन भविष्यति
अर्थात अब तुम रावण के नाम से प्रसिद्ध होओगे।
दशग्रीव के नये जगत्प्रसिद्ध रावण के इस नामकरण के बाद वह दुरात्मा वीर जगत में रावण के ही नाम से प्रसिद्ध हो गया । भगवान शंकर के दिये नाम के आगे पिता का दिया नाम लोक विस्मृत होता गया। यह प्रसंग श्रीमद्वाल्मीकियरामायण , उत्तर काण्ड ,षोडश सर्ग में है।
(लेखक उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से सेवानिवृत्त उपनिदेशक हैं।)