गोंडवाना की रानी दुर्गावती के जन्म और विवाह के संबंध में भ्रांतियाँ
24 जून बलिदान दिवस पर विशेष
*डॉ.आर.अचल पुलस्तेय
रानी दुर्गावती को 1548 ई. में अवयस्क पुत्र वीरनारायण की संरक्षिका के रूप में ससुर महाराज संग्राम शाह द्वारा स्थापित गढ़ामण्डला-वृहद गोंडवाना मिला था।16 वर्ष सफल शासन करने के बाद अकबर की सेना के साथ वीरता से लड़ती हुई 24 जून 1564 को आत्म बलिदान कर दिया।
रानी दुर्गावती के शासन की शुरुआत के समय उत्तर में शेरशाह सूरी का साम्राज्य स्थापित हो चुका था।उसका पुत्र ईस्लाम शाह दिल्ली के तख्त पर था ।हुमायूँ का पुत्र अकबर अमरकोट के राजा वीरपाल के संरक्षण में 6 वर्ष का हो चुका था। दिल्ली में रजिया सुल्तान के बाद भारतीय उपमहाद्वीप मे दूसरी महिला शासक एक बड़े साम्राज्य का सफलत संचालित कर रही थी ।
रानीदुर्गावती के कीर्ति का उल्लेख उनके वंशज राजा हृदयसाह द्वारा मण्डला के रामनगर किले में स्थापित शिलालेख में साक्षात् दुर्गा के अवतार के रुप किया गया है।गढ़ामण्डला गोंडवाना के शासकों में सबसे अधिक चर्चा रानी दुर्गावती की ही जाती है । जिसका कारण मुगल साम्राज्य से युद्ध है। इसीलिए अबुल फजल ने रानी दुर्गावती को अपने दस्तावेज में महत्वपूर्ण स्थान दिया है।यही दस्तावेज इतिहास में रानी दुर्गावती के साथ ही पूरे गोंडवाना को भारतीय इतिहास में स्थान दिलाता है। परन्तु अबुल फजल के दस्तावेजों में बहुत से भ्रामक कथ्य भी हैं ।अबुल फजल के दस्तावेज के अलावा भी रानी दुर्गावती से संबंधित दस्तावेज और लोक श्रुतियाँ है।
रानी दुर्गावती के जन्म और विवाह के संबंध में जो प्रमाणिक रूप में जानकारी है,उसके अनुसार कलिंजर (वर्तमान में उत्तरप्रदेश के बाँदा जिले में) के चंदेल नरेश कीर्ति सिंह की एक मात्र संतान थी। जिसका जन्म शारदीय नवरात्रि के अष्टमी, ईस्वीसन् 5 अक्टूबर 1524 ई. को हुआ था । इकलौती संतान के कारण राजा कीर्ति सिंह ने दुर्गावती का पालन-पोषण पुत्र की तरह किया था । शिक्षा के साथ तीर,तलवार,भाला युद्ध और शिकार में कुशल थी । बचपन से ही पिता के साथ राजकाज रुचि रखती थी ।16 वर्ष के किशोर वय में ही दुर्गावती के सौन्दर्य और वीरता की चर्चा राज्य के बाहर तक फैल चुकी थी ।
इधर गढ़ामण्डला गोंडवाना गणराज्य के राजकुमार दलपतिसाह की शरीरिक सौष्ठव और बहादुरी के किस्से पड़ोसी राज्यों में चर्चित हो रहे थे। दलपति और दुर्गावती दोनों एक दूसरे की वीरता और सौन्दर्य से प्रभावित होकर अन्तर्मन में प्रेम करने लगे थे ।
कलिंजर की सीमा पर गोंडवाना का सीमान्त मनियागढ़ था।जहाँ मनिया देवी का पारम्परिक मंदिर है। मनियागढ़ की व्यवस्था देखने के लिए महराज संग्रामसाह ने अपने विश्वासपात्र गरुण सिंह नामक चंदेल को दुर्गनायक नियुक्त किया था। महोबा और कलिंजर से गरुड़ सिंह का निकट संबंध था । मनियागढ़ शक्तिपीठ चन्देल और गोंड राजकुलों के अलावे आस-पास के अन्य राजकुलों सहित आम लोगों के आस्था का केन्द्र था। दुर्गावती और दलपति साह ने इसी मंदिर में गंधर्व विवाह कर, सिंगौरगढ़ गये,जहाँ पूरे उत्साह के साथ महाराज संग्राम ने उत्सव का आयोजन किया ।
कुछ विद्वानों के अनुसार दलपतिसाह के प्रणय प्रसंग को जानकर महाराज संग्राम साह नें कलिंजर नरेश के पास विवाह का प्रस्ताव भेजा था,जिसे कीर्ति सिंह ने कुलहीन और विजातीय संबंध कह अपमानित करते हुए, अस्वीकार कर दिया। इसके बाद दुर्गावती के सहमति से दलपति साह ने हरण कर सिंगौरगढ़ ले जाकर विवाह किया था ।
आधुनिक इतिहासकारों द्वारा रानी दुर्गावती के जन्म और विवाह को लेकर आज उपरोक्त मान्यता ही स्वीकार की जाती है ।
जबकि अबुल फजल ने जन्म और विवाह दोनों घटनाओं को पूर्वाग्रह पूर्वक लिखा है। मुख्य धारा के बहुत से प्रसिद्ध इतिहासकार अबुल फजल के दस्तावेज को ही आधार बना कर लिखते हैं।
“अबुल फजल के अनुसार रानी दुर्गावती महोबा के चंदेल नरेश शालिवाहन की पुत्री थी । शालिवाहन एक कमजोर रियासत के मालिक थे। इसलिए अपनी पुत्री का विवाह विजातीय परन्तु सबल व ऐश्वर्यशाली शासक संग्राम साह के पुत्र से कर दिया। अबुल फजल ने शालिवाहन की दूसरी पुत्री कमलावती का भी उल्लेख किया है।दुर्गावती की पराजय के बाद आसिफखाँ ने कमलावती और वीरनारायण की मंगेतर को अकबर के हरम में भेज दिया था । ”
इस तरह रानी दुर्गावती के संबंध में अनेक भ्रामक बातें लिखी मिलती हैं। इसलिए रानी दुर्गावती का नाम जितने सम्मान से लिया जाता है,उतने सम्मान से उनके पति राजा दलपति साह एवं 52 गढ़ों के साम्राज्य संस्थापक व श्वसुर महाराज संग्राम साह का नहीं लिया जाता है।वर्तमान में हिन्दू-मुस्लिम एंगल की राजनीति के लिए इसे उपयोग किया जा रहा है,जबकि जबकि रानी दुर्गावती की सेना में मियाँ भीखारी,इम्माईल आदि कई मुसलमान अच्छे ओहदे पर थे।
अबुलफजल के कथन को स्लीमैन ने दुर्गावती और दलपतिसाह दोनों राजकुलों के लिए अपमान जनक बताया है । दुर्गावती के पितृकुल के संदर्भ में ऐतिहासिक तथ्य देखने पर अबुल फजल का मत दुराग्रहपूर्ण एवं गलत सिद्ध होता है ।
इस संबंध में प्रमाणिक तथ्य यह है कि चंदेलों के चार सत्ता केन्द्र महोबा, कलिंजर, खजुराहो और अजयगढ़ थे।दसवीं शताब्दी में चंदेलो के उत्कर्ष काल में कलिंजर, खजुराहो, अजयगढ़ सभी महोबा के अन्तर्गत ही आते थे। चंदेल साम्राज्य का अंतिम शासक परमार्दिदेव के पतन के बाद 16 वीं शताब्दी में चंदेल महोबा,और कलिंजर तक सिमित रह गये थे। सन् 1202 ई. के बाद 400 वर्षों में महोबा, कलिंजर चाहमान वंश के पृथ्वीराज, कुतुबुद्दीन ऐबक तथा कलचुरियों के अधीन रहा, जिसमें 1253 ई. से 1267 ई. तक गढ़ा के गोंड वंश के कब्जे में भी रहा । यह गढ़ा गोंडवंश के भानुमित्र-भवानीदास का शासन काल था ।इस तरह कलिंजर या महोबा के पास कोई बड़ा राज्य तो नहीं था,पर एक समृद्ध राज्य अवश्य था। कलिंजर के कीर्ति सिंह से युद्ध में ही 1545 ई. में शेरशाह सूरी घायल होकर मरा था । महोबा और कलिंजर के चंदेलों के भ्रम में अबुल फजल में महोबा(वर्तमान में हमीरपुर उप्र) के शालिवाहन की पुत्री लिखा होगा,जबकि दुर्गावती कलिंजर (वर्तमान में बाँदा-उप्र)) के चंदेल नरेश कीर्तिसिंह की एक मात्र संतान थी । अबुल फजल ने दुर्गावती के बंदूक चलाने की बात भी लिखी है,जो गलत तथ्य है।उस काल तक कोई भी भारतीय राजा बारूद,तोप या बंदूक से परिचित नहीं था। दलपति साह की कुलहीनता का उल्लेख भी दुराग्रहपूर्ण तथ्य है,क्योंकि महाराज संग्रामसाह अपने समय में मध्य भारत के एक छत्र अपराजेय शासक थे ।अपने परिचय में स्वयं को नागवंशी व पुलस्त्यवंशी कहा है। हालांकि आदिवासी संस्कृति में वर्ण व्यवस्था नहीं होती है।सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राजाओं के वैवाहिक संबंध में कुल, जाति, धर्म जैसी बातें नहीं पायी जाती हैं। राजाओं के वैवाहिक संबंध भी राजनैतिक और कूटनीतिक होते हैं। इस संदर्भ मे सम्राट चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार, अशोक, अकबर आदि अनेक राजाओं के वैवाहिक संबंधों के देखा जा सकता है ।
इस संबंध में एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी मिलता है । विसेंट स्मिथ ने चंदेलों को गोंड़ो की एक शाखा माना है।हालाँकि बहुत से इतिहासकार इस मत से सहमत नहीं हैं, परन्तु प्रो.एस.आर.शर्मा राजबली पान्डेय, मोतीरावन कंगाली आदि स्मिथ के विचार से सहमत हैं। राजबली पान्डेय के अनुसार दोनों जातियों की जीवन शैली और नाक, नक्श में समानता मिलती है । मोती रावन लिखते हैं कि चंदेल प्रोटो द्रविण गोंडी भाषा का शब्द है। जिसका हिन्दी सफेद खरगोश होता है।चंदेल राजाओं का गण्डचिन्ह (टोटम) होता है।वैदिक सभ्यता अपनाने के कारण क्षत्रिय माने जाने लगे।हालाँकि आम चंदेलों के वैवाहिक संबंध वैदिक क्षत्रियों में नहीं होते थे। तत्कालीन समय में चंदेल, कलचुरी, रावन (गोंड),परमार, परिहार, बघेल आदि के बीच वैवाहिक संबंध होने के अनेक उदहारण मिलते हैं।आज कल ऐसा देखने को नहीं मिलता है।अब गोंड और कलचुरियों को छोड़ कर परमार और चंदेलों के वैवाहिक संबंध निम्न माने जाने वाले क्षत्रियों में होते हैं, हालाँकि यह व्यवस्था अब आर्थिक स्तर पर निर्धारित हो रही है ।
अतः दुर्गावती के पिता का नाम शालिवाहन,दूसरी बहन कमलावती और बन्दूक चलाने,चंदेलों की दीनता व गोंडों की हीनता जैसे अबुलफजल के विचार पूर्वाग्रहपूर्ण एवं भ्रामक सिद्ध होते हैं ।
कुछ इतिहासकार दुर्गावती और दलपति साह के वैवाहिक संबंध को राजनैतिक युक्ति की दृष्टि से देखते हैं। जिस समय यह वैवाहिक संबंध स्थापित हुआ,उस समय उत्तर भारत राजनैतिक संक्रमण काल से गुजर रहा था। यदि विवाह का समय 1542 ई. मानते हैं, तो शेर शाह तमाम राज्यों को ध्वस्त कर अपने अधीन कर चुका था। यदि गढ़नृपेश वर्णनम् के अनुसार1521ई.माना जाय तो लोधी,बाबर और राजपूताने में टकराव व राज्य विस्तार के अभियान चल रहे थे।ऐसे समय में छोटी रियासतें अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित थीं। उधर मध्य भारत की रियासतें और गढ़, महाराज संग्राम साह के प्रताप से सुरक्षित थे। इसलिए इस समय मजबूत गोंडवाना के राजकुमार या राजा से विवाह करना एक राजनैतिक वैवाहिक संबंध था,जिसमें कहीं भी जातिगत व सामाजिक भेद-भाव नहीं नहीं लगता है।
-लेखक की किताब- महान गणराज्य गढ़मण्डला का अंश-नम्या प्रेस नयी दिल्ली)
*लेखक-फ्रीलांसर,लेखक,विचारक,आयुर्वेद चिकित्सक एवं ईस्टर्न साइंटिस्ट शोध पत्रिका के मुख्य संपादक हैं।)