अद्वैत की अवधारणा
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज। द्वैत का अर्थ है दो का भाव, उसमे अ उपसर्ग जुड़ने पर अद्वैत पद की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ ही है अभाव या निषेध।
शंकर अद्वैत का द्वैत से विरोध है,जैसे की प्रकाश का अंधकार से, विद्या का अविद्या से जहाँ अविद्या है वहीँ द्वैत है।
यदि अब्राह्मण कहा जाये तो यह बोध कराता है की यज्ञोपवीत आदि धारण किये हुए पर ब्राह्मण नहीं, यह सदृश्य बोध है।
इसीप्रकार यह परम ब्रह्म द्वैत के सदृश्य होते हुए भी द्वैत से भिन्न या अन्य है –एकमेवाद्वितीयं।
अद्वैत मानवीय ज्ञान का चरम सत्य है।
मानव की यात्रा द्वैत से, नानात्व से प्रारम्भ होती है और नानात्व के मूल में विराजमान सत पर समाप्त होती है।
शंकर के अद्वैत दर्शन से आध्यात्मिक एकत्व का भाव समस्त विरोध और विद्वेष का अंत कर देता है।
जब हम किसी वस्तु को अपने से भिन्न पाते हैं और उसे अपने से अन्य समझते हैं तभी हमें उसे प्राप्त की कामना करते हैं या नष्ट करने को सोचते हैं ।
इसी कामना से राग और फिर अहंकार का उदय होता है।
इसका मूल वह अज्ञान है जिसका निराकरण ज्ञान से होता है।
वेदांत के अद्वैत दर्शन से मानवता की समस्त आकांक्षाओं की पूर्ति संभव है।
स्वार्थ और विरोध चाहे व्यक्तिगत हो ,समाजगत हो या राष्ट्रगत हो ,उसका निराकरण हो सकता है।
विश्व में अशांति का समाधान आध्यात्मिक एकत्व में
आज का विश्व भय, हिंसा, युद्ध, अशांति का विश्व है। इसका समाधान आध्यात्मिक एकत्व में ढूंढा जा सकता है।
इससे हम विश्व मानव और विश्व धर्म की अवधारणा को मूर्त रूप दे सकते हैं।
आवश्यकता है वाह्य एकता को आतंरिक अखंडता से अनुप्राणित करने की।
वेदांत के अनुसार समस्त अनर्थों का कारण भेद की भावना है जिससे घृणा और भय उत्पन्न किया जाता है
–द्वितीयाद्वै भयं भवतितथायतः भेद और –भेददर्शनमेव भयकारणं।
जब हम अविनाशी आत्मा के मूलस्वरूप से भिज्ञ हो जाते हैं ,तो भय और घृणा का मूल ही समाप्त हो जाता है।
इसी से जीवन और जगत में स्थाई शांति मिल सकती है -मोक्षाख्याम चाक्षया शान्ति।
वेदान्तदर्शन का अद्वैतवाद मानव मात्र के लिए अमृत का मार्ग है।
वेदांत के सन्देश का उद्घोष करते हुए मुंडकोपनिषद में कहा गया है
–तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतार्येष सेतुः —
अर्थात जो अमृत तक पहुँचाने का एक सेतु है उस एक तत्व को ही जानो।