राधा भट्ट: बढ़ती असहिष्णुता के बीच गांधीवादी ज्योति
“भारत ने कभी गांधी को पूरी तरह समझा नहीं। अब उनकी विरासत बुलडोज़र के नीचे है।”
राम दत्त त्रिपाठी
लक्ष्मी आश्रम, कौसानी
कौसानी के शांतिपूर्ण पहाड़ों में, लक्ष्मी आश्रम में, जो सरला बहन द्वारा स्थापित है, हाल ही में मैं 91 वर्षीय राधा भट्ट से मिला, जो भारत के अंतिम जीवित गांधीवादी विचारकों में से एक हैं। शारीरिक रूप से कमज़ोर—आँखों की समस्या और लगातार पैरों में दर्द के बावजूद—उनकी आवाज़ में स्थिरता और दृढ़ता थी। उन्होंने कहा, “पद्मश्री मेरे काम के मुकाबले एक छोटी चीज़ है, लेकिन मैंने इसे राष्ट्र की ओर से सम्मान के रूप में स्वीकार किया।” उनके शब्द विनम्रता और संकल्प दोनों को दर्शाते हैं।
राधा बहन ने सात दशकों से अधिक समय तक पहाड़ी महिलाओं को सशक्त बनाया, पर्यावरण आंदोलनों का नेतृत्व किया, और सर्व सेवा संघ और गांधी शांति प्रतिष्ठान जैसे गांधीवादी संस्थानों को आगे बढ़ाया, जहाँ वे अध्यक्ष और चेयरपर्सन रह चुकी हैं। उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सम्मानित किया गया—2001 में अमेरिकन बायोग्राफिकल इंस्टीट्यूट द्वारा “वर्ल्ड वुमन 2001” का पुरस्कार मिला।

उनका सामाजिक कार्यों का सफर बचपन में ही शुरू हुआ, जिसका नेतृत्व और प्रेरणा उन्हें सरला बहनसे मिला। सरला बहन (जन्म कैथरीन मेरी हाइलमैन) ब्रिटेन की एक गांधीवादी महिला थीं, जो 1915 में भारत आईं और हिमालयी ग्रामीण समुदायों के उत्थान के लिए जीवन समर्पित किया। उन्होंने कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना की और सर्वोदया एवं चिपको आंदोलन में एक प्रमुख भूमिका निभाई। राधा भट्ट ने 17 वर्ष की उम्र में लक्ष्मी आश्रम ज्वाइन किया, जहाँ उन्होंने सरला बहन के मार्गदर्शन में अहिंसा, आत्मनिर्भरता और पर्यावरण संरक्षण के गांधीवादी सिद्धांत अपनाए। यह अनुभव उनके जीवन भर के सामाजिक न्याय और सतत विकास के संघर्ष की नींव बना।
लेकिन राष्ट्रीय सम्मान के पीछे उनकी चिंता और दर्द भी है। उन्होंने कहा, “भारत ने कभी गांधी को पूरी तरह समझा नहीं,” और वह देश में बढ़ती साम्प्रदायिक नफ़रत, गौ रक्षक नाम पर हो रही भीड़ lynching, और गहराती असमानता से बहुत दुखी हैं।
“गांधीवादी संस्थान अब संकट में हैं। किसी भी समय बुलडोज़र आ सकता है।” उन्होंने याद दिलाया कि हाल ही में वाराणसी में सर्व सेवा संघ परिसर को तोड़कर वहां सात सितारा होटल और व्यापारिक परिसर बनाना शुरू किया गया है, जो एक ऐतिहासिक गांधीवादी स्थल था।
वह पीढ़ीगत बदलाव का सम्मान करते हुए सभी पदों से स्वैच्छिक रूप से इस्तीफा दे चुकी हैं ताकि युवा नेतृत्व आगे आ सके। हमारी मुलाक़ात के दौरान उन्होंने अपनी आत्मकथा आधारित पुस्तक “वे दिन वे लोग- एक संस्मरण यात्रा “ की एक प्रति मेरी पत्नी पुष्पा को उपहार स्वरूप दी, जो मेरे साथ थीं।
राधा भट्ट की विरासत केवल उनके पुरस्कारों या नेतृत्व में नहीं है, बल्कि उस शांत, नैतिक स्पष्टता में है, जिसके साथ वे सत्ता के सामने सच बोलती हैं—यहाँ हिमालय के एक शांत आश्रम से।