राष्ट्र से धृतराष्ट्र तक
रोजनामचा रामखेलावन का -अरुण कुमार गुप्ता
महाभारत के प्रसंग में धृतराष्ट्र को पुत्रमोह के लिए अपयश का पात्र बनना पड़ा था। इसी संदर्भ में स्व. राम नाथ सिंह ‘अदम गोंडवी’ का एक शेर भी मौजूं है -“मुल्क जाए भाड़ में, इससे उन्हें मतलब नहीं ।बस यही ख्वाहिश है, कुनबे में मुख्तारी रहे ।।”हमारे देश में सन 1885 में में गठित देश के पहले राजनीतिक संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में चार दशक के बाद ही परिवारवाद के लक्षण नजर आने लगे थे। 1929 में जवाहरलाल नेहरू ने अपने पिता मोतीलाल नेहरू के तत्काल बाद और तीस साल बाद उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने भी कांग्रेस अध्यक्ष पद ग्रहण किया था। एक अल्प अंतराल के बाद प्रधानमंत्री के रूप में भी इंदिरा गांधी ने अपने पिता का उत्तराधिकार प्राप्त किया। भारतीय लोकतंत्र में इसे परिवारवाद की शुरुआत कहा जा सकता है।
बाद में उनकी हत्या के तुरंत बाद उनके पुत्र राजीव प्रधानमंत्री बने और उनकी हत्या के बाद कोई सात साल के बाद पार्टी पर उनकी पत्नी, पुत्र और महासचिव के रूप में पुत्री का एकाधिकार सा है। इस विरासत को बनाए रखने के लिए ही संभवतः प्रियंका के पुत्र का नाम बदल कर रेहान राजीव गांधी कर दिया गया है।
शीर्ष परिवार के अनुसरण में कांग्रेस में परिवारवाद के अनेकों उदाहरण मिल जाएंगे, जिनमें म प्र में रविशंकर शुक्ल के दोनों पुत्रों श्यामाचरण व विद्याचरण, सिंधिया परिवार, बिहार में जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार,ललित नारायण व जगन्नाथ मिश्र, महाराष्ट्र में शंकर राव चह्वाण और अशोक चव्हाण, उ प्र में बहुगुणा परिवार, कुंवर जितेंद्र व जितिन प्रसाद, राजस्थान में पायलट परिवार, हरियाणा में भजन लाल के दोनों पुत्र, आदि प्रमुख कहे जा सकते हैं।
यही नहीं, ‘पार्टी विद डिफरेंस’ का दावा करने वाली भाजपा में शीर्ष स्तर पर भले न सही, परिवारवाद के लक्षण दिखाई देने लगे हैं।राजमाता विजयाराजे सिंधिया की विरासत उनकी दो पुत्रियों ने संभाल रखी है। इसके अलावा राजनाथ सिंह, शिवराज सिंह चौहान, प्रमोद महाजन, गोपीनाथ मुंडे, कल्याण सिंह, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह आदि के पुत्र-पुत्रियों को विभिन्न चुनावों में टिकट दिए गए हैं। हां, लालकृष्ण आडवाणी ने गत लोकसभा चुनाव में अपनी पुत्री के लिए गांधीनगर से टिकट मना कर एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज, अरुण जेटली व मनोहर पार्रिकर के परिवार से भी किसी की दावेदारी अभी तक सामने नहीं आई है।
देश में कोई पचास साल पहले सूबाई व क्षेत्रीय दलों के उदय का दौर शुरू हुआ। इनमें कई दल कांग्रेस से टूट कर और ज्यादातर समाजवादी आंदोलनों के बिखराव के फलस्वरूप अस्तित्व में आए। इसके अलावा द्रमुक, शिव सेना, अकाली दल अपने अपने राज्यों में क्षेत्रीय पहचान को आधार बनाकर मजबूत हुए। इन सभी दलों में शुरूआती लोकतंत्र के बाद परिवारवाद ही इनके संचालन की धुरी बन कर रह गई।
आज समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल(एस), द्रमुक, राष्ट्रीय लोक दल, इंडियन नेशनल लोकदल(देवी लाल), अकाली दल, नेशनल कांफ्रेंस, शिव सेना, लोक जनशक्ति पार्टी आदि निजी प्रतिष्ठानों की तरह संचालित हो रही हैं और इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती कि इन दलों में पारिवारिक वंश परंपरा के अलावा किसी अन्य तरीके से नेतृत्व के उत्तराधिकार का निर्णय होगा।बंगाल में ममता बनर्जी और उ प्र में मायावती ने भी अपने भतीजों को पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपनी शुरू कर दी हैं।
इस संबंध में यह भी दिलचस्प है कि परिवार में ही सुयोग्य पात्रता के बावजूद नेतृत्व ने अन्य पर अपने पुत्रों को ही वरीयता दी, भले ही इसके कारण परिवार व पार्टी में अलगाव की नौबत आई हो। अकाली दल में मनप्रीत बादल, समाजवादी पार्टी में शिवपाल यादव, शिव सेना में राज ठाकरे, द्रमुक में अलागिरी, को अपने राजनीतिक विकास के लिए अन्य विकल्प तलाशने पड़े। हरियाणा में भी देवीलाल के परिवार भी दो अलग अलग दलों में बंट गए हैं।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि भारत में अधिकांश दल देश व समाज के हितों की लड़ाई लड़ने के नाम पर अस्तित्व में आते हैं और क्रमशः क्षेत्रीय, जातीय व पारिवारिक हित सरंक्षण के रास्ते से गुजरते हुए पुत्र मोह पर आ कर ठहर जाते हैं।
अरुण कुमार गुप्ता।आईजी (से नि)
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