मुनादी
हुकुम शहर कोतवाल का
आज ‘चार’ नवंबर है। हम सबों के लिए खास तारीख। 1974 में आज ही पटना में निरंकुश सत्ता की लाठी लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर चली थी। संयोग से आज दीपावली भी है; और ’42 में आज की रात ही जेपी हजारीबाग कारा फांद कर निकल गये थे। इस मौके पर एक यादगार कविता। इस कविता को याद करना और पढ़ना आज इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि आज की सत्ता उसी निरंकुशता की ओर बढ़ती नजर आ रही है, बल्कि कहीं अधिक निरंकुश, और असहिष्णु हो चुकी है।
-श्रीनिवास
ख़लक ख़ुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का…
हर खासो-आम को आगाह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अंदर से
कुंडी चढ़ा कर बंद कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी कांपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!
शहर का हर बशर वाक़िफ़ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढांचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी न की जाये!
जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है!
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहां
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छांह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है?
आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भले मानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गांव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लंदन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…
तोड़ दिये जाएंगे पैर
और फोड़ दी जाएंगी आंखें
अगर तुमने अपने पांव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलांग कर
अंदर झांकने की कोशिश की!
क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
कांपते बुड्ढे को ढेर कर दिया?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवांमर्दी की दाद दें
अब पूछो कहां है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊंचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बुलंदी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए!
नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियां और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आंचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है.
ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहां हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुंचो
इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मंझधार में रोक दी जाएंगी
बैलगाड़ियां सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएंगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप!
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहां है
वहीं ठप कर दिया जाए!
बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो!
वही रेलगाड़ियां तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएंगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी मांगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से बहा,
वह पुंछ जाए!
बाश्शा सलामत को खून-खराबा पसंद नहीं!
- डॉ धर्मवीर भारती