दलित चेतना के अग्रदूत : क्रांतिकारी संत बसवेश्वर
डॉ. चन्द्रविजय चतुर्वेदी
क्रन्तिकारी संत बसवेश्वर का जन्म सन 1127 के आसपास वर्त्तमान कर्नाटक के बीजापुर जनपद के इंगालेश्वर बागेवाड़ी गांव में एक उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
बसवेश्वर को बासव और बसन्ना नाम से भी सम्बोधित किया जाता था।
बालपन में ही बसवेश्वर दलित संतों शिवभक्त कण्णप्पा और मदरा चन्नप्पा के उपदेशों से इतने प्रभावित हुए की आठ वर्ष की अवस्था में ही उपनयन संस्कार से विद्रोह कर बैठे।
अपने वेद पारंगत पिता के समक्ष निःसंकोच रूप से अपने क्रांतिकारी विचार उद्घोषित करने लगे की यह उपनयन जातिगत श्रेष्ठता तथा भेदभाव का प्रतीक है।
ब्राह्मण के कर्मकांड भगवद्भक्ति से दूर करते हैं। बालक बासव ने अपने पिता से कहा की यदि समाज के हर वर्ग को उपनयन का अधिकार होता तो वे स्वीकार कर लेते।
बीजापुर जिले में कृष्णा नदी और मालप्रभा के संगम पर भगवान शिव का पवित्र लिंग स्थापित है जो कुडल संगम के नाम से प्रसिद्ध रहा।
इस स्थान पर एक प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ भी था जिसके कुलपति ईशान्य गुरु थे जिन्होंने शिशु बासव को लिंग के साथ दीक्षित किया था।
उपनयन के प्रकरण पर बालक बासव ने अपने पिता से कहा की मुझे पवित्र लिंग ने दीक्षित कर रखा है।
अब मुझे किसी अन्य दीक्षा की आवश्यकता नहीं है मुझे कुडल संगम जाने की अनुमति दें।
ईशान्य गुरु के संरक्षण में कुडल संगम को समर्पित बसवेश्वर एक क्रांतिकारी चिंतक के रूप में प्रसिद्ध होने लगे —
तू मेरा पिता है तू मेरी माता भी
तू ही मेरा कुल परिवार तुझे छोड़कर कोई सगा नहीं
हे भगवान कुडल संगम जैसा तू चाहे मेरा उपयोग कर
विरक्त क्रांतिकारी संत बसवेश्वर कालांतर में कालचूर्य राजवंश के वित्तमंत्री हुए।
बासव दण्डनायक ने राजपुरुष के रूप में अपनी पद, प्रतिष्ठा, धन ऐश्वर्य सबकुछ सामाजिक और धार्मिक क्रांति को समर्पित कर दिया।
कालचूर्य वंश की राजधानी कल्याण में उन्होंने दलितों, वंचितों के बीच न केवल सैद्धांतिक समता की बात की बल्कि उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करते हुए चमार, मोची, डोम, चांडाल, तेली, दरजी आदि जातियों का एक सामाजिक धार्मिक संगठन भी स्थापित कर दिया।
इसे कुडल संगम का शरण कहा गया जिसके धर्म को निर्देशित करते हुए बासव ने कहा —
तू चोरी हत्या नहीं करेगा, न असत्य बोलेगा
तू किसी पर क्रुद्ध नहीं होगा, न किसी अन्य मनुष्य से घृणा करेगा
अपने आप पर गौरव भी नहीं करेगा, तू दूसरे पर दोषारोपण नहीं करेगा
यह तेरी अंतर्मुखी शुद्धता है, यही हमारे भगवान कुडल स्वामी को जीत लेने का उपाय भी है
बासव ने दलितों को होलेय -अछूत कहकर पुकारने का विरोध किया और उन्हें महा महेश्वर –शरण का सम्बोधन दिया तथा गले में लिंग धारण कराया।
दक्षिण भारत में संबोलि की प्रथा थी जिसमे दलित लोग जब रास्ते पर चलते थे तो उच्च स्वर से अन्य वर्णो को सचेत करते थे।
बसवेश्वर ने इस प्रथा को बंद कराया। बासव के क्रन्तिकारी विचार से प्रभावित होकर उड़ीसा कश्मीर, गुजरात से भी उनके शरण में सम्मिलित हुए।
बसवेश्वर का सामाजिक धार्मिक क्रांति के तीन बिंदु रहे। एक -जन्मना जाति के स्थान पर कर्मणा वर्ण का सिद्धांत, दो -कर्मकांड को त्याग कर सरल भक्ति का मार्ग, तीन –श्रम का महत्त्व और उसकी सर्वोपरिता।
बसवने अपने उपदेशों में गरीबों की चेतना को जागृत कर धनवानों की भर्त्सना की —
आप प्रश्न कर सकते हैं सर्प से दंशित व्यक्ति से
आप प्रेत -ग्रस्त पुरुषों से भी कर सकते हैं सवाल
पर धन के भूत से ग्रस्त व्यक्ति से आपको प्रश्न करने का कभी न होगा मजाल
हाँ जब दारिद्रय का प्रेत जागेगा उनके निकट तब वह बात करेगा मधुर
हे कुडल संगम स्वामी
बसवेश्वर ने मंदिर के बजाय शरीर को ही शिवालय मानने पर जोर दिया —
जिनके पास धन है वे शिवालय बनवाते हैं
मैं धनहीन क्या कर सकता हूँ, मेरे पैर ही खम्भे हैं तथा मेरी देह देवालय
मेरा सिर ही सोने का कलश है, हे कुडल संगम देव ज़रा सुनना
स्थावर नश्वर है परन्तु जंगम का नाश नहीं हो सकता
बसवेश्वर के विचारों से प्रभावित होकर मोलगे मारय्या जो कश्मीर के राजा थे वे महारानी सहित कश्मीर छोड़कर कल्याण आगये और लकड़हारे का जीवन व्यतीत करने लगे। दलितों के साथ साथ बासव ने स्त्रियों को समता का अधिकार दिलाया
हर वर्ण की स्त्रियां पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला इस अभूतपूर्व क्रांति में सम्मिलित हुई।
बलिप्रथा पर करारा प्रहार करते हुए संत बसवेश्वर ने अपने उपदेश में कहा —
हे बकरे चीखो चिल्लाओ की वेदों के अनुसार तुम्हारा बध किया जाता है
वेद पाठकों के समक्ष चीखो और चिल्लाओ, शास्त्रों के श्रोताओं के समक्ष चीखो और चिल्लाओ
भगवान कुडल संगम उसका तुम्हारे विलाप का बदला अवश्य लेंगे
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जो वध करता है वह है अछूत
और जो सभी प्राणियों से प्रेम करता है वही है कुलीन
कुलीन है वही व्यक्ति जो जनता है
अध्यात्म की प्रकृति
बसवेश्वर के सुधारों से ही लिंगायत संप्रदाय अस्तित्व में आया। महात्मा बुद्धके वाद बसवेश्वर ने ही समाज का मंथन करते हुए उपदेश किया की सदाचार ही उच्च जाति है तथा कदाचार नीच जाति, धर्म सबका जन्मसिद्ध अधिकार है।
बासव अपने से हीन किसी को नहीं मानते थे सबसे बराबरी का व्यवहार करते थे इसीलिए उन्होंने किसी को अपना शिष्य नहीं बनाया।
सामाजिक परिवर्तन के लिए बाबा साहेब अंबेडकर जिस बाल्तेयर की परिकल्पना करते थे वह बसवेश्वर ही थे।