मोटे लोगों में कोरोना ज़्यादा घातक
पैसा कमाने की होड़ अच्छे स्वास्थ्य से दूर ले जा रही है
इंग्लैंड में एक ताजा रिसर्च से यह तथ्य सामने आया है कि कोरोना संक्रमण की रफ्तार उन लोगों पर ज्यादा घातक साबित हो रही है जिनका वजन ज्यादा है. मोटापा, जो कि अपने आप मे कई बीमारियों की जड़ है, कोरोना के वायरस से लड़ने में इंसान की शक्ति शिथिल कर देता है. चूंकि मोटापे का सबसे बड़ा शिकार समाज का युवा वर्ग हुआ करता है, इसी कारण कोरोना की दूसरी लहर में युवा किंतु मोटे इंसानों को ज्यादा मार पड़ी है.
ऑक्सफ़ोर्ड विश्विद्यालय से सम्बद्ध ‘लैंसेट’ ने एक शोधपत्र जारी किया है, जिसमे यह देखने की कोशिश की गई कि कोरोना ने किस तरह विभिन्न आयु वर्ग के लोगों पर प्रहार किया है. करीब 70 लाख लोगों के इस सैंपल सर्वे में 2000 के लगभग उन लोगो के आंकड़े भी जुटाए गए जो स्वयं कोरोना के शिकार हो चुके हैं.
बीएमआई का कोरोना कनेक्शन
‘मोटापे’ को बॉडी मास इंडेक्स (BMI) से मापा जाता है. जो कि सरल शब्दों में व्यक्ति के वजन और उसकी लंबाई का एक अनुपात होता है. आदर्श स्थिति में किसी भी व्यक्ति का BMI 25 से अधिक हो तो उसे मोटा कहा जाता है. लैंसेट के शोधपत्र ने आंकड़ों के माध्यम से दिखाया है कि BMI जैसे-जैसे 23 से ऊपर की ओर बढ़ता है, व्यक्तियों में कोरोना से लड़ने की क्षमता कमतर होती जाती है. ऐसे लोगों को संक्रमण की स्थिति में हॉस्पिटल में भर्ती होने, ऑक्सिजन सपोर्ट में रखने की जरूरत स्वस्थ व्यक्ति की तुलना में बढ़ जाती है.
शोध करने वाली संस्था बताती है कि आश्चर्यजनक यह है कि कोरोना संक्रमण की यह घातक प्रवृत्ति सिर्फ युवाओं में देखने को मिली है. यानी कि 60 के पार बुजुर्गों में वजन और कोरोना की संक्रामकता के आपसी संबंधों पर कोई पुख्ता सबूत नही मिले हैं.
भारत मे भी हालात चिंताजनक
भारत समेत कई देश कोरोना की दूसरी लहर से बुरी तरह जूझ रहे हैं. इस बार प्रकोप पहले से ज्यादा भयावह है. भारत मे ही देखें तो इस बार अस्पतालों में इलाज के लिए लाइन लगाने वालों में सबसे बड़ी तादाद उन लोगों की है जो 20 से 40 वर्ष की आयु वाले हैं. लोकनायक अस्पताल के डॉक्टर सुरेश कुमार के अनुसार कोरोना के प्रसार की कई वजहों के साथ-साथ यह भी प्रमुखता से देखा गया है कि युवाओं में जिनका वजन सामान्य से अधिक होता है, उनको अस्पताल में भर्ती होने, वेंटिलेटर या ऑक्सीजन पर रखने की जरूरत ज्यादा होती है.
डॉक्टरों के अनुसार जिन लोगो का वजन ज्यादा हो, उनमें इन्सुलिन प्रतिरोध उच्च होता है और उनके फेफड़े और श्वसन तंत्र जल्दी खराब हो सकते हैं. कोरोना जैसा वायरस जो सीधे व्यक्ति के श्वसन तंत्र को बाधित करता है, उसके लिए ऐसा शरीर उपजाऊ भूमि बन सकता है. इसी वजह से मोटे लोगों की कोरोना से मृत्यु की आशंका भी सबसे ज्यादा होती है. एक और शोध गत वर्ष भारत के इंस्टिट्यूट ऑफ लीवर द्वारा किया गया था जिसमे बताया गया कि मोटे अथवा मधुमेह पीड़ित व्यक्ति का लीवर स्वस्थ व्यक्ति की तुलना में कमजोर हो जाता है अतः उन पर कोरोना संक्रमण का खतरा दूसरों की तुलना में अधिक बढ़ जाता है.
आधुनिकता की दौड़ में पीछे छूटता स्वास्थ्य
पाश्चात्य संस्कृति की तरफ अंधी दौड़ ने भारत जैसे दुनिया के सबसे युवाओं वाले देश को भी बीमार करने में कोई कसर नही छोड़ी है. बड़ी बड़ी मल्टी नेशनल कंपनियों, और सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं में काम करने वाले 20 से 40 साल के ज्यादातर युवा इस आधुनिक जीवन शैली और खानपान के कारण मोटापे, डायबिटीज और फैटी लीवर जैसी बीमारियों से ग्रसित हो रहे हैं.
अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ उनको अच्छे स्वास्थ्य जैसी बेहद जरूरी प्राथमिकता से दूर ले जा रही है. यही वह आयु वर्ग है जिसके कंधों पर शिक्षा प्राप्त करने का भी बोझ है और घर चलाने का भी. अपना भविष्य संवारने की चाह भी है तो बुजुर्गों और बच्चों के लालन पालन की जिम्मेदारी भी. किंतु जिंदगी की आपाधापी में वह अपनी सबसे जरूरी प्राथमिकता यानी अच्छे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से दूर होते जा रहे हैं.
युवाओं का स्वास्थ्य हो देश की प्राथमिकता
जिम्मेदारियों के बोझ से दबे यह युवा कंधे अगर टूट गए तो देश का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. आवश्यकता है एक सामाजिक जागृति लाने की. जो कि अल्पकालिक भी हो और दीर्घकालिक भी. कोरोना के नए आंकड़ों को देखते हुए सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि टीकाकरण की प्रक्रिया में युवा वर्ग के उन लोगो को फिलहाल प्राथमिकता दी जाए जो मोटापे के शिकार हैं. यह तात्कालिक आवश्यकता है.
साथ ही समाज मे जागरूकता लाई जाए और ऐसी नीतियों को अपनाया जाए कि अधिकांश युवाओं की मुफ्त शारीरिक जांच प्रतिवर्ष या हर दूसरे वर्ष संभव हो सके. इसको अनिवार्य भी कर सकते हैं, जैसा कि हमारी सशस्त्र सेनाओं में हुआ करता है. मुझ जैसे युवा जिन्होंने अपनी उम्र का यह पड़ाव सेना में गुजारा है वह सालाना मेडिकल चेकअप की अहमियत बखूबी समझते हैं. इस डर से की कहीं वजन बढ़ गया और मेडिकल में फेल हो गए तो आगे छुट्टी, प्रमोशन सहित कई सुविधाओं में समस्या हो सकती है, हम अपने वजन को ले कर सदैव सचेत रहा करते थे. यह डर कब आदत बन गया और रिटायर होने के बाद यह जीवन शैली बन गया पता ही न चला.
(लेखक भारतीय वायुसेना से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं)