व्यवस्था परिवर्तन बिना संपूर्ण रोज़गार संभव नहीं
राम दत्त त्रिपाठी
भारत में बेरोज़गारी की समस्या साल दर साल बढ़ती गई है, क्योंकि संपूर्ण रोज़गार के लिए व्यवस्था परिवर्तन की तरफ़ कोई कदम नहीं उठाया गया।बिना संपूर्ण रोज़गार ग़रीबी भी समाप्त नहीं होगी।
एक सुखी समाज में हर इंसान को लाभदायक रोज़गार की आवश्यकता होती है ताकि वह सम्मान की ज़िंदगी जी सके – अकेले नहीं परिवार के साथ. यानि उसका रोज़गार ऐसा हो जिससे वह अपने परिवार के लिए पौष्टिक भोजन, मौसम के अनुकूल अच्छे कपड़े और रहने के लिए घर का इंतज़ाम कर सके. बच्चों की पढ़ाई, मनोरंजन और आवश्यकता पड़ने पर इलाज का बंदोबस्त कर ले. शादी ब्याह और अन्य सामाजिक, सॉंस्कृतिक दायित्व का निर्वाह कर सके – बिना क़र्ज़ लिये या बिना ज़ेवर बेंचे.
यह लाभदायक रोज़गार बीस से पचीस साल की उम्र के बीच मिल जाना चाहिए- न कि पैंतीस और चालीस की उम्र तक रोज़गार के लिए दर – दर भटकना पड़े और उसके बाद हताश होकर घर बैठ जायें .
जब लाभदायक रोज़गार नहीं मिलता तो ग़रीबी से आत्म सम्मान को ठेस लगती है और व्यक्ति असंतोष , कुंठा और निराशा का शिकार होता है.
भारतीय समाज में सर्वे भवंतु सुखिन: की कल्पना की गई थी , अर्थात सभी लोग सुखी और निरोग हों। अकेले या कुछ लोगों के सुखी होने से समाज का भला नहीं होता। किसी समाज में जब ऐसे असंतुष्ट लोगों की संख्या अधिक हो जाती है तो सामाजिक असंतोष, बग़ावत और क्रांतियाँ होती हैं .
ग़रीबी और बेरोज़गारी के कारण भारत के अनेक प्रांतों में सशस्त्र नक्सलवादियों के रेड कोरिडोर हैं . पड़ोसी देश नेपाल में तो इसी ग़रीबी के कारण माओवादियों का सशस्त्र विद्रोह हुआ जिससे नेपाल का राजतंत्र और हिंदू राष्ट्र ख़त्म हो गया . फिर भी हमने अपने पड़ोसी देश से सबक़ नहीं सीखा।
भारत के नक्सलवादियों को भी नेपाल के माओवादियों से सबक़ सीखना चाहिए कि वे चंद बंदूकों और बम धमाकों के बल पर क्रॉंति या व्यवस्था परिवर्तन नहीं कर सकते . उन्हें सफलता तभी मिली जब वे लोकतांत्रिक राजनीति की मुख्य धारा में आये। राज्य के पास मिलिटरी, पुलिस जैसी बड़ी सशस्त्र फ़ोर्स हैं इसलिए हिंसा से कोई व्यवस्था परिवर्तन संभव नहीं है. अगर नक्सलवादी व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं तो उन्हें भी राजनीति की मुख्यधारा में आकर जन साधारण को संगठित और आंदोलित करके बुलेट को त्याग बैलट के ज़रिए सत्ता हासिल करनी होगी।
युवा बेरोज़गारी भयावह
आज भारत में युवा लोगों की बेरोज़गारी भयावह हो चुकी है. भारत में पंद्रह से चौबीस साल के युवाओं में बेरोज़गारी की दर लगभग एक तिहाई 28.3% हो गई है, जबकि पड़ोसी देश बांग्ला देश में लगभग आधी यानी 14.7 % .
अर्थशास्त्री कौशिक बसु के अनुसार भारत में वर्ष 2016 के बाद से आर्थिक विकास में लगातार गिरावट चल रही है। उसके बाद नोट बंदी और लॉकडाउन ने और भी अधिक आम लोगों छोटे उद्यमियों की कमर तोड़ दी।
नई टेक्नोलॉजी और अर्थव्यवस्था से सारा मुनाफा चंद कारपोरेट घरानों की तिजोरी में जा रहा है। सत्तारूढ़ दलों के साथ साँठगाँठ से यही कारपोरेट घराने देश की वित्तीय और आर्थिक नीतियाँ तय करते हैं।
असंतुष्ट बेरोज़गार और गरीब लोग चुनाव में सत्ता परिवर्तन न कर दें इसलिए अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त अनाज, बड़ी संख्या में लोगों को रसोईं गैस, मकान, शौचालय, किसान सम्मान राशि आदि वितरित की जाती है।
लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है। समस्या का समाधान तभी होगा जब छोटे उद्यमी, किसान, मज़दूर और दस्तकार को लाभदायक रोज़गार मिले। वर्तमान में लोग मजबूरी में शहरों में बहुत मामूली वेतन पर सफ़ाई कर्मचारी, ड्राइवर, चपरासी, सिक्योरिटी गार्ड और डिलीवरी मैन का काम कर रहे हैं या फुटपाथ पर सामान बेंचते हैं। इस तरह समाज में विषमता का विष बढ़ता जा रहा है।
हमें यह समझने की ज़रूरत है कि लोगों को लाभदायक, सम्मानजनक और टिकाऊ रोज़गार चाहिये न कि छोटी मोटी राहत।
आज बड़े पैमाने पर शिक्षित लोग बेरोज़गार हैं क्योंकि उनके पास डिग्री है, पर हुनर नहीं।सरकार शिक्षा का बजट लगातार घटती जा रही है। सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को वेतन के लिए भी पूरा बजट नहीं दिया जा रहा। न ही शिक्षा व्यवस्था को बदलकर युवकों को हुनरमंद बनाया जा रहा है।सरकार स्वयं अपने ख़ाली पदों को समय से नहीं भर्ती और आउटसोर्स करके ठेके पर काम कराया जा रहा है। अपवाद स्वरूप उड़ीसा में नवीन पटनायक ने सरकार में कांट्रैक्ट पीरी कर्मचारी रखने की प्रथा समाप्त करने की बात कही है।
अगर युवा अपने रोज़गार लगाना चाहें तो भूमि, भवन, बिजली और कार्यशील पूँजी का संकट है। सामान बना लें तो भी बाज़ार में प्रतियोगिता का संकट है. बड़ी संख्या में लोग खेती में लगे हैं, लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी बँटवारा होने से जोत छोटी होती चली गई है, जो व्यावहारिक नहीं हैं। हरित क्रांति के बाद खेती में बीज, खाद, पानी की लागत बाढ़ गई है। खेती के मशीनीकरण से भी बेरोज़गारी बढ़ी है। मनरेगा से मज़दूरी तो बढ़ गई लेकिन किसान की आमदनी नहीं बढ़ी।गाँव में रहने वाले किसानों और मज़दूरों के पास आंशिक यानी कुछ ही दिनों का रोज़गार होता है। अगर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिलता तो ये खेती के साथ कुछ और उत्पादन करके कमा सकते हैं।इन्हें उनके घर यानी दर पर रोज़गार मिलता तो शहरों को पलायन नहीं करना पड़ता।
रोज़गार भाग्य नहीं, व्यवस्था पर निर्भर
किसी देश में लोगों को रोज़गार मिलेगा या नहीं यह केवल उनकी व्यक्तिगत योग्यता या भाग्य पर निर्भर नहीं करता . यह उस देश की सामाजिक, शैक्षणिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पर ज़्यादा निर्भर करता है.
व्यवस्था या नीतियों में परिवर्तन का काम संसद और विधान सभा या सरकार चलाने वाले राजनीतिक दलों का है। लेकिन चुनावी राजनीति में शामिल सभी दल देश की मूलभूत शैक्षिक आर्थिक नीतियों के मामले में एक जैसे हो गये हैं, क्योंकि वे चुनाव खर्च के लिए चंद कारपोरेट घरानों पर निर्भर हैं।
धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति ने राजनीतिक दलों के लिए चुनाव जीतना आसान कर दिया है , इसलिए वे आम लोगों के पक्ष में व्यवस्था परिवर्तन की ज़रूरत नहीं महसूस करते . जो लोग व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं वे बिखरे और जनता से कटे हुए हैं . सर्वोदयवादी , गॉंधीवादी , जेपीवादी , लोहियावादी , अम्बेडकरवादी , समाजवादी और मार्क्सवादी आदि – आदि . जेपी आंदोलन में व्यवस्था परिवर्तन की बात हुई थी, लेकिन अचानक आपातकाल लग जाने से वह आंदोलन भी लोकतंत्र बहाली तक सीमित रह गया। आंदोलन से पैदा हुई जनता पार्टी सरकार भी व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में कोई कदम उठाये सत्ता लिप्सा के अंतर्कलह से बिखर गई।
आज ज़रूरत है कि टेक्नोलॉजी , पूँजी और सत्ता के गँठजोड़ से चल रही अर्थव्यवस्था को बदलने की ज़ोरदार मुहिम चले. नयी व्यवस्था मानव केंद्रित और विकेंद्रित हो जिसमें सबको लाभदायक, सम्मानजनक और टिकाऊ रोज़गार मिल सके और सभी लोग सुखी हों – कोई गरीब न हो . यही राम राज्य है। नहिं दरिद्र कोई दुःखी न हीना. ग़रीबी सबसे सामाजिक बड़ा अभिशाप है. जिस देश के बहुतायत लोग गरीब हैं , दुनिया भी उनकी इज़्ज़त नहीं करती .