निराला : विषय पर सिद्धि ही असल प्रसिद्धि

गौरव अवस्थी

छायावादी युग के प्रमुख स्तंभ महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” का गद्य और पद्य पर समान अधिकार था लेकिन उन्हें खास पहचान अपनी कविताओं से ही मिली।

उनके निबंध-कहानी उपन्यास-अनुवाद-आलोचना-समालोचना भी पाठकों में काफी प्रसिद्ध हुई लेकिन निराला जी के लिए “प्रसिद्धि” का अर्थ यह था-” प्रसिद्धि का भीतरी अर्थ यशो विस्तार नहीं विषय पर अच्छी सिद्धि पाना है”( माधुरी मासिक लखनऊ 1936)।

निराला जी भाव-भाषा और ज्ञान से वह प्रचुर मात्रा में संपन्न थे। भाव और भाषा उनके गद्य और पद्य में यत्र-तत्र-सर्वत्र विराजमान है।

अपने स्वअर्जित ज्ञान की बदौलत ही वह हिंदी साहित्य और भाषा हित में लगातार अपने समकालीनो या कहें की प्रतिष्ठा प्राप्त लेखकों विद्वानों से “मुठभेड़” करते रहे बिना इस बात की चिंता किए कि इसका हश्र क्या होगा?

निराला के निबंधों – आलोचनाओं – समालोचना से गुजरते हुए आप पाएंगे कि ऊंचे दर्जे की औपचारिक पढ़ाई न करने के बावजूद उनका ज्ञान कितना गहन था?

उनमें पूरब भी प्रचुर था और पाश्चात्य साहित्य भी। वेद-पुराण, सूर-तुलसी-कबीर थे, ग़ालिब-मीर-नजीर थे और शेली- ब्लेक-कीट्स भी।

वह कहते भी थे-

“जब कला परिभाषा की जंजीर से जकड़ दी जाती है तब वह हमेशा किसी खास विचार या किसी खास मजहब की हो जाती है। विश्व के लोग उसी कविता का आदर करेंगे जो भावना में विश्व भर की कहीं जा सकेगी। मैं इन पूर्वी और पश्चिमी दोनों तरीकों के बीच में रहना पसंद करता हूं। दोनों की खूबियों की परीक्षा बिना किए ऐसा होता है, जैसे समालोचना या काव्य के सौंदर्य प्रकाशन को लकवा मार गया हो एक अंग पर पुष्ट होता है तो दूसरा कमजोर हो जाता है”।

हिंदी हित में साहित्यिक अखाड़े में दो-दो हाथ करने को हमेशा तत्पर निराला जी ने दांवपेच आजमा कर न जाने कितने “पहलवानों” को “चित” किया लेकिन ज्ञान का अभिमान कभी नहीं।

उनकी आलोचना “आलोचना” होती है, किसी को नीचा दिखाने या ऊपर उठाने की युक्ति नहीं।

“पंत और पल्लव” शीर्षक निबंध में वह कविवर सुमित्रानंदन पंत की कविताओं के एक-एक शब्द तक की व्याख्या करते हुए उसके उचित और अनुचित उपयोग पाठकों के सामने रखते हैं।

रविंद्र नाथ की अंतर काव्य दृष्टि से प्रभावित होने के बावजूद वह उनकी गलती भी पाठकों के सामने रखने में संकोच नहीं करते-

“यहां रवींद्रनाथ से एक बड़ी गलती हो गई है पहले उन्होंने “यौवन सुरा” लिखकर सुरा के यथार्थ भाव में परिवर्तन करना चाहा था। वहां उन्होंने तरंगित यौवन को ही सुरा बनाया है पर अंत तक नहीं पहुंच सके। विदेशी भावों को लेते समय जरा होश दुरुस्त रखना चाहिए”( काव्य साहित्य माधुरी मासिक लखनऊ दिसंबर 1930)।

उनके बारे में यह जोर देकर कहा भी गया- “निराला अगर आलोचना ना लिखते तो साहित्य में उनका और उनका सम्मान होता” लेकिन भाषा और भाव के सवाल पर उन्होंने आत्म सम्मान-आत्म प्रतिष्ठा की कोई लालसा मन में कभी आने नहीं दी।

निराला जी ने जरूरत पर खड़ी बोली का साथ दिया और बेवजह आलोचना पर ब्रजभाषा के पक्ष में भी अड़े-खड़े हुए।

काव्य में नवीनता और परिवर्तन विरोधी लेखकों से दो-दो हाथ को सदैव तैयार निराला जी कहते हैं

” साहित्य में भावों की उच्चता का ही विचार रखना चाहिए. भाषा भावों की अनुगामिनी है. भावानुसारणी भाषा कुछ मुश्किल होने पर भी समझ में आ जाती है, उसके लिए कोष देखने की जरूरत नहीं होती” ( साहित्य और भाषा प्रबंध पद्य में संकलित निबंध से)।

अपने ज्ञान के बल पर कविताओं में क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग करने वाले निराला जी सरल भाषा के हिमायतीयों को इन शब्दों में आईना दिखाते हैं-

“हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने वाले लोग साल में 13 बार आर्त चीत्कार करते हैं- भाषा सरल होनी चाहिए जिससे आबालवृद्ध समझ सकें। मैंने आज तक किसी को यह कहते नहीं सुना कि शिक्षा की भूमि विस्तृत होनी चाहिए जिससे अनेक शब्दों का लोगों को ज्ञान हो जनता क्रमशः ऊंचे सोपान पर चढ़े”।

निराला जी का स्पष्ट मत था लोगों को ज्ञानवान बनाना न कि अज्ञानियों के लिए सरल भाषा पर परोसी जाए।

वह कहते हैं कि हमें अपने साहित्य का उद्देश्य सार्वभौमिक करना है, संकीर्ण एकदेशीय नहीं।

राष्ट्रभाषा को राष्ट्रभाषा के रूप से सजाना और अलंकृत करना है।

साहित्य और भाषा शीर्षक अपने निबंध में निराला जी संदेश देते हैं कि यथार्थ साहित्य नेताओं के दिमाग के नपे-तुले विचारों की तरह आय-व्यय की संख्या की तरह प्रकोष्ठ में बंद होकर नहीं निकलता।

वह किसी उद्देश्य की पुष्टि के लिए नहीं आता। वह स्वयं सृष्टि है। उसका फैलाव इतना है जो किसी सीमा में नहीं आता। ऐसे ही साहित्य से राष्ट्र का यथार्थ कल्याण हुआ है।

निराला जी मानते थे कि भाव के साथ कला और कला के साथ भाषा संबद्ध है।

भावात्मक चित्र या अभिव्यक्ति के लक्ष्य पर चलती हुई भाषा सभी शिथिल नहीं हो सकती। वह निराभरण-निरलंकार भले ही हो उसमें देन्यता के लक्षण नहीं मिल सकते।

निराला जी का साफ मानना था कि साहित्य पर कुंडली मारकर बैठ जाने की अपेक्षा नवीनता को स्वीकार किया जाए।

नए-नए लेखकों-कवियों को अपने रास्ते बनाने और उस पर चलने की आजादी होनी चाहिए।

साहित्य पर एकाधिकार जताने वालों के वह आजीवन विरोधी रहे। साहित्य में खुद का रास्ता बनाया और चलते गए..चलते गए.. चलते गए.. दूर तक।

इतनी दूर कि उनके लिखे हुए को समझना आज भी सबके बस की बात नहीं।

आरोप के रूप शिक्षक अपने आलोचनात्मक निबंध में खुद निराला जी लिखते हैं-

“अभी तो मेरा साहित्य एक बटे 10 ही समझा गया है जैसा आलोचक ने लिखा है इतने में यह हाल है जब समझने के लिए भगनांश बाकी ना रहेगा तब बड़ी खराब हालत हिंदी की हो जाएगी।

निराला जी के लिए हमेशा पूज्य थे आचार्य द्विवेदी।

अपने स्फुट निबंध “पंत जी और पल्लव” में निराला जी लिखते हैं-” जिस समय आचार्य पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती के संपादक थे। “जूही की कली” सरस्वती में छापने के लिए मैंने उनकी सेवा में भेजी थी। उन्होंने उसे वापस करते हुए पत्र में लिखा- आपके भाव अच्छे हैं पर छंद अच्छा नहीं। इस छंद को बदल सके तो बदल दीजिए। जूही की कली मेरे पास ज्यों-की-त्यों तीन-चार साल तक पड़ी रही”।

“खड़ी बोली के कवि और कविता” नामक निबंध में निराला जी मानते हैं कि खड़ी बोली की कविता में प्राण प्रतिष्ठा सौभाग्यवान आचार्य पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने की है।

इनके प्रोत्साहन तथा स्नेह ने खड़ी बोली की कविता के प्रथम तथा दूसरे काल के कितने ही सुकवि-साहित्य सेवक उत्पन्न किए।

ब्रजभाषा के पक्षपातियों से इन्होंने लोहा लिया और बड़ी योग्यता से अपने पक्ष को प्रबल करते गए. आज सरस्वती के जोड़ की हिंदी में कई पत्र पत्रिकाएं हैं पर उस समय “सरस्वती” ही हिंदी की सरस्वती थी।

उस समय खड़ी बोली की कविता का श्रीगणेश महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस प्रकार किया था-
“क्या वस्तु मृत्यु? जिसके भय से विचारे;
होते प्रकंप-परिपूर्ण मनुष्य सारे.
×××× ×××× ××××
जो हानि- लाभ कुछ भी उसको ना होता
तो मूल्यवान फिर क्यों निज काल खोता?

निराला जी लिखते हैं-“दिवेदी जी के समय सरस्वती में हिंदी की जो कविताएं निकलती थी, उनमें द्विवेदी जी का कुछ ना कुछ संपादन जरूर रहता था. पहले पहल तो शुरू से आखिर तक उन्हें कविता की लाइनें दुरुस्त करनी पड़ती थी।

आजकल अपने ही प्रकाश से चमकते हुए उस समय के कितने ही कवियों की प्रतिभा की किरणें द्विवेदी जी के हृदय के सूर्य से मिली हुई ही निकली है।

वह कविगण द्विवेदी जी की इस अपार कृपा के लिए सर्वांत: करण से उनके कृतज्ञ है।

बाबू मैथिली शरण जी, श्री स्नेही जी, पंडित रूपनारायण जी पांडे, पंडित रामचरित जी उपाध्याय, पंडित लोचन प्रसाद जी पांडे, ठाकुर श्री गोपाल शरण सिंह जी बाबू सियारामशरण गुप्त आदि सुकवियों की रचनाओं को द्विवेदी जी ने काफी प्रोत्साहन दिया और यह सब उस काल की सरस्वती ही की “स्टाइल” के सुकवि हैं।

उन्होंने अपने निबंधों और आलोचनाओं में द्विवेदी युग पर भी सूक्ष्म दृष्टि डाली है लेकिन रचनाएं वापस किए जाने के बावजूद महावीर प्रसाद द्विवेदी को हमेशा- “आचार्य” “पूज्य” और “सौभाग्यवान” कह कर ही मान-सम्मान आजीवन दिया।

आज दिन विशेष पर यह लिखते हुए भाव भंगिमा में एक तरह मेरे हृदय का संस्पर्श विद्यमान है. पता नहीं क्यों लिखते समय यह बार-बार महसूस होता रहा कि निराला जी के लेखन में उनके व्यक्तित्व में कहीं न कहीं एक कोमलता का भावेश था. इस विषय को लेकर अनेक तरह के दार्शनिक विचार किए जा सकते हैं किंतु उन प्रयोजनों पर पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है और आगे भी लिखा जाएगा ही. इसलिए आज बस इतना ही..

59वीं पुण्य स्मृति (15 अक्टूबर1961) पर बैसवारे के महान सपूत-विश्वकवि महाप्राण निराला जी को आदर पूर्वक नमन!

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