नई शिक्षा नीति 2020 : एक अनुशीलन

डॉ. चन्द्रविजय चतुर्वेदी। देश द्वारा 2015 में अपनाये गए सतत विकास एजेंडा 2030 के लक्ष्य -4 -एसडीजी -4 में समान  गुणवत्ता युक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन पर्यन्त शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने का लक्ष्य रखा गया था।

इस प्रकार के उद्दात्त लक्ष्य के लिए सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली को समर्थन और अधिगम को बढ़ावा देने को पुनर्गठित करने की आवश्यकता थी जिससे सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा के सभी महत्वपूर्ण टार्गेट और लक्ष्य प्राप्त किये जा सके।

ज्ञान के परिदृश्य में आज पूरा विश्व तेजी से परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है।

बिग डेटा, मशीनलर्निग और आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस जैसे क्षेत्रों में हो रहे बहुत से तकनीकी विकास के चलते एक ओर विश्वभर में अकुशल कामगारों की जगह कुशल कामगारों की मांग बढ़ेगी तो दूसरी ओर ज्ञान के हर क्षेत्र –समाजविज्ञान, मानविकी, विज्ञान, प्रबंधन, चिकित्सा तथा तकनीकी आदि सभी क्षेत्रों में अतिविशिष्ट ज्ञान से युक्त विशेषज्ञों की भी आवश्यकता पड़ेगी।

भारत को ज्ञान आधारित महाशक्ति बनाने के लिए कृत संकल्पित नई शिक्षा नीति प्रख्यापित की गई।

टीएस सुब्रमण्यम द्वारा गठित पैनल की रिपोर्ट पर भी विचार करते हुए इसरो के पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में गठित नौ सदस्यीय समिति में नई शिक्षा नीति का मसौदा शासन को सौंपा।

हर शिक्षानीति नई ही होती है। 1964 -66 में कोठरी आयोग ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के रूप में विस्तृत संस्तुतियां प्रस्तुत की थी।

1986 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रस्तुत की गई।

1990 में इस शिक्षानीति पर नए सिरे से विचार करने के लिए एक समीक्षा समिति आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में गठित की गई।

2005 -07 में ज्ञान आयोग की तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में 2009 में यशपाल समिति की संस्तुतियां भी महत्वपूर्ण रही हैं।

चौंतीस वर्ष बाद नई शिक्षानीति काफी आशा विश्वास समेटे 2020 में प्रस्तुत की गई है।

वस्तुतः शिक्षा आयोगों की  संस्तुतियों को सरकारें एक नीति पत्र के रूप  में ग्रहण करती हैं जो कालविशेष के लिए दशा और दिशा निश्चित करने के लिए आवश्यक समझी जाती हैं।

इन संस्तुतियों को क्रियान्वयन की कोई बाध्यता भी सरकारों की नहीं रही है।

आजादी के बाद कोठरी आयोग ने आजाद भारत की शिक्षा व्यवस्था का मंथन करते हुए एक समग्र रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।

इसकी कुछ ही संस्तुतियों का क्रियान्वयन किया गया। अधिकांश संस्तुतियों पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया।

 1986 में जब नई राष्ट्रिय शिक्षानीति प्रस्तुत की गई तो कोठरी आयोग की संस्तुतियों की कोई समीक्षा प्रस्तुत नहीं की गई।

वर्त्तमान नई शिक्षा नीति की संस्तुतियों में भी पूर्व के आयोगों की संस्तुतियों की कोई समीक्षा नहीं है।

मानव का समग्र विकास शिक्षा से ही संभव है ,शिक्षा एक सतत प्रक्रिया है।

पूर्व आयोगों की रिपोर्ट की समीक्षा से यह तो ज्ञात हो जाता की देश की शिक्षा के दशा और दिशा के लिए जिन नीतिगत विषयों का क्रियान्वयन आवश्यक था उनका क्रियान्वन क्यों नहीं संभव हो सका अब उनके क्रियान्वयन के लिए क्या किया जा सकता है।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय से शिक्षा मंत्रालय में नाम परिवर्तन एक महत्वपूर्ण कदम है। समीक्षा समिति 1990 की अपनी रिपोर्ट में आचार्य राममूर्ति ने कहा था की मानव को परिसम्पति से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मानकर विकसित करना होगा जिसके लिए शिक्षा में मानवीय, उदारवादी, सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक आयामों को भी जोड़ना होगा।

स्कूली शिक्षा में परिवर्तन

नई शिक्षा नीति ने क्रांतिकारी कदम उठाते हुए शिक्षा के 10 +2 +3 के ढाचें को 5 +3 +3 +4 से प्रतिस्थापित किया है।

इसमे 5 का अर्थ है 3 साल प्री स्कूल और 2 साल कक्षा एक और दो की पढ़ाई, इसके बाद के 3 का अर्थ है कक्षा तीन, चार और पांच की पढ़ाई। फिर 3 है तीन साल की कक्षा छह ,सात आठ की पढ़ाई। अंतिम 4 का अर्थ है कक्षा नौ, दस ,ग्यारह और बारह की पढ़ाई।

बचपन देखभाल और शिक्षा की नीति के अंतर्गत यह क्रन्तिकारी परिवर्तन है की बच्चे छह साल की उम्र से स्कूल जाने के बजाय 3 साल की उम्र से ही कालेज जाएंगे।

बच्चों के बेहतर विकास के लिए यद्यपि यह कदम स्वागत योग्य है परन्तु आशंका इसके क्रियान्वयन पर है।

प्रस्तावना यह है की बच्चों की यह पांच साल की जिम्मेदारी महिला बाल विकास, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण तथा जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा किया जाएगा।

पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों में यदि यह व्यवस्था सुचारु रूप से संगठित न किया गया तो असमानता उत्पंन्न होगी क्योंकि शहरों के पब्लिक स्कूल में अभी भी यह व्यवस्था प्ले स्कूल में चल रही है –केजी -1 ,केजी -2 तथा प्रेप इसी के साथ वे क्लास वन और टू जोड़ लेंगे।

प्रश्न यह है की सामान्य नागरिक के लिए सरकारी व्यवस्था में पहले पांच साल की पाठशाला क्या होगी कौन इसे संचालित करेगा।

क्या प्राइमरी स्कूल तीन चार और पांच की कक्षा की पढ़ाई के लिए ही होंगे तथा जूनियर हाईस्कूल छह ,सात आठ की कक्षा की पढ़ाई के लिए होंगे।

वर्त्तमान में प्राथमिक शिक्षा की दशा बहुत ख़राब है न भवन है न शिक्षक पर्याप्त हैं।

ऐसी स्थिति में एक और इकाई का सञ्चालन कितना सफल हो सकेगा यह संशयपूर्ण है।

भले पब्लिक स्कूल प्ले स्कुल खोल लेंगे और बचपन देखभाल और शिक्षा की अवधारणा निम्न मध्य वर्ग तथा मध्यवर्ग पर एक बोझ बन जाएगा।

शिक्षा के अधिकार का विस्तारण

नई शिक्षा नीति में स्कूली शिक्षा को ,शिक्षा के अधिकार के विस्तरण के रूप में प्रख्यापित किया  रहा है की जो अधिकार पहले 6 साल से 14 साल के बच्चों के लिए था वह अब 3 साल से 18 साल के बच्चों के लिए होगा।

शिक्षानीति में आरटीआई के विस्तार की बात तो की जा रही पर  यह कानून नहीं बनाया गया।

प्रश्न यह है की क्या तीन साल से अठारह साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान किया जाना इसमें निहित है ?

स्कूली  शिक्षा में त्रिभाषा सूत्र

नई शिक्षानीति में त्रिभाषा सूत्रकी  बात की गई है।

स्कूली शिक्षा के अहम् बदलाव के रूप में मातृभाषा को शामिल किया गया है।

अब बच्चे एक से पांच तक और संभव होगा तो आठ तक की शिक्षा मातृभाषा में ग्रहण करेंगे।

यह स्वागत योग्य कदम है अपनी मातृभाषा में शिक्षा बेहतर रूप से ग्रहण की जा सकती है।

पूर्व के शिक्षा आयोगों की संस्तुति में मातृभाषा में ही स्कूली शिक्षा प्रदान करने की बात कही गई थी ,पर लागू नहीं की जा सकी।

जो परिस्थितियां इसके लिए जिम्मेदार हैं वे आज पहले से अधिक जटिल हैं।

दक्षिण भारत में पांच तक की शिक्षा तमिल तेलगु ,कन्नड़ में लेने वाला बच्चा दिल्ली में क्या आगे की शिक्षा हिंदी में ले पायेगा।

क्या सरकार गांव के प्राथमिक पाठशाला से लेकर नगरों ,महानगरों के एलीट स्कूलों में शिक्षा का माध्यम एक  कर सकेगी।

क्या यह गरीब वर्ग के साथ अन्याय नहीं होगा और क्या इससे असमानता नहीं बढ़ेगी ?

नई शिक्षा नीति में इस बात पर जोर दिया गया है की बारहवीं तक प्रथम चरण की शिक्षा पूरी कर लेने पर उसके पास एक स्किल जरूर हो ताकि जरुरत पड़ने पर वह रोजगार कर सके।

स्कूलों में इसके लिए इंटर्नशिप की व्यवस्था की जायेगी और बच्चे स्थानीय प्रतिष्ठानों में जाकर अपने मन का कोई स्किल सीख सकें।

उच्च शिक्षा को लचीला बनाया जाएगा

नई शिक्षानीति का दावा है की उच्च शिक्षा को लचीला बनाने की कोशिश की जायेगी जिसका नामकरण मल्टिपल एंट्री एक्जिट सिस्टम किया गया है।

एक साल के प्रवेश के बाद यदि छात्र पढ़ना बंद कर देंगे तो उसे सर्टिफिकेट दिया जाएगा, दो साल के लिए डिप्लोमा और तीनसाल में स्नातक डिग्री लेकर नौकरी तलाश करेगा।

यदि शोध की इच्छा रखता है तो स्नातक चतुर्थ वर्ष में प्रवेश लेगा उसके बाद एक वर्ष की  स्नातकोत्तर डिग्री लेकर डॉक्टरेट में प्रवेश ले सकेगा।

वस्तुतः उच्च शिक्षा का यह प्रयोग अमेरिकी शिक्षा पद्धति की और ले जा रही है जहाँ शिक्षा एक कमोडिटी और व्यवसाय है।

नई शिक्षानीति में मल्टिपल डिसिप्लनरी एजुकेशन पर बल दिया गया है।

कोई भी छात्र विज्ञानं के साथ कला और सामाजिक विज्ञानं का विषय चुन सकता है।

इसका प्रारूप क्या है अभी निश्चित नहीं है।

आईआईटी ,और आईआईएम तथा इंजीनियरिंग और प्रबंधन के आलावा अन्यविषय भी पढ़ाये जा सकते हैं।

ग्रेडेड अटानामि के कालेजों को अकादमिक ,प्रशासनिक ,और आर्थिक स्वायत्तता दी जायेगी।

इसके लिए बोर्ड आफ गवर्नेस के गठन की बात कही जा रही है।

शिक्षाविदों को आशंका है की इस ऑटोनामी के बहाने शिक्षण संस्थानों पर शिकंजा कसना चाहते हैं।

उच्च शिक्षा को केंद्रीकृत करने के लिए ,विश्वविद्यालय अनुदान आयोग -यूजीसी ,आल इण्डिया काउन्सिल फार ट्रेड एजुकेशन -atcte और नेशनल काउन्सिल फार टीचर्स एजुकेशन -ncte जैसी संस्थाओं को एक छतरी के नीचे लाया जायेगा जो एक रेगुलेटरी बाड़ी होगी।

इस संस्तुति की उपयोगिता तभी स्पष्ट हो सकेगी जब इसे संवैधानिक अधिकार प्रदान किये जाएंगे जिससे यह निष्पक्ष और निर्बाध रूप से कार्य कर सके।

इसकी संस्तुति यशपाल समिति ने भी की थी। स्कुल शिक्षा के लिए भी इसी प्रकार के केंद्रीकृत रेगुलेटरी बाड़ी का प्रस्ताव है।

कुछ बुनियादी सवाल

शिक्षा का बुनियादी प्रश्न है की शिक्षा का व्यवसायीकरण कैसे रोका जाए।

कैसे सभी वर्गों को एक समान शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा जो लगातार महगी होती जा रही है वह कैसे मुहैया कराया जाए।

वर्त्तमान में देश की शिक्षाव्यवस्था वेंटिलेटर पर है।

विश्वबैंक की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2018 -लर्निग टू रियलाइज एजुकेशन प्रॉमिज के अनुसार भारत की शिक्षा व्यवस्था बदतर स्थिति में है।

विगत वर्षों में ग्रामीण क्षेत्र में सरकार ने शिक्षा के लिए पर्याप्त निवेश किये पर आपेक्षित सफलता नहीं प्राप्त हो सकी।

कैग की रिपोर्ट के अनुसार -2017 बड़ी संख्या में ज्यादातर स्कुल एक शिक्षक के भरोसे चलरहे है।

यूजीसी के एक सर्वे के अनुसार पुरे देश में 25 प्रतिशत प्रोफ़ेसर, 46 प्रतिशत एशोसिएट प्रोफ़ेसर और 26 प्रतिशत सहायक प्रोफ़ेसर के पद विश्विद्यालयों में रिक्त हैं, महाविद्यालयों में यह संख्या अधिक हो सकती है।

2016 में ही सुब्रमनियन में अपने रिपोर्ट में संस्तुत किया था की विश्विद्यालयों में नियुक्ति हेतु भारतीय शैक्षिक सेवा स्थापित किया जाये जिसे नई शिक्षा नीति में समिल्लित नहीं किया गया।

नई शिक्षा नीति में कुछ तात्कालिक कदम उठाये जाने की संस्तुतियां होनी  चाहिए थी।

शिक्षा नीति का वास्तविक और व्यावहारिक क्रियान्वयन तो राज्य सरकारों के नीति नियत और उनकी प्रतिबद्धता पर है।

स्कूली शिक्षा के परिवर्तन के लिए राज्य सरकारों का बजट शिक्षा को आधारभूत सुविधा कितना उपलब्ध करा सकेगा, इस पर सफलता आश्रित होगी।

विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस देश में खुल जाने पर तथा शिक्षा के व्यवसायीकरण से शिक्षा मॅहगी हो जायेगी जो कुछ प्रतिशत के लोंगो के लिए ही सुलभ हो सकेगी।

प्रतियोगिता में निम्न और मध्य आर्थिक वर्ग के लोग स्वाभाविक रूप से पीछे रह जाएंगे।

प्राथमिक शिक्षकों के साथ साथ माध्यमिक और उच्चशिक्षा के शिक्षकों के अभाव से नई शिक्षा नीति कितनी प्रभावी हो सकेगी यह भविष्य के गर्भ में है।

जीडीपी का छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जा सकेगा यह भी यक्ष प्रश्न है।

1986 की राष्ट्रिय शिक्षानीति में भी इसकी संस्तुति की गई थी।

शिक्षा के क्षेत्र में जितने भी सुधार के प्रयास किये गए उनकी असफलता का मूल कारण रहा है दिशाहीनता और शिक्षा के सभी हितकारकों को ध्यान में न रखना तथा युवकों को काम के संवैधानिक अधिकार से वंचित रखना।

यदि नई शिक्षा नीति -2020 क्रियान्वयन के स्तर पर इससे अपने को मुक्त रख सकी तो राष्ट्र को समग्र विकास के लिए शिक्षा से दृष्टि मिल सकेगी।

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