नेपाल में मध्यावधि चुनाव क्या इमरजेंसी के साये में होगा
राष्ट्रपति विद्या भंडारी ने नेपाल में मध्यावधि चुनाव की तारीखें भी तय कर दी है । संसद विघटन का मामला उच्च न्यायालय में है। सत्ता विरोधी राजनीतिक दलों का मानना है कि देर सवेर न्यायालय का फैसला मध्यवाधि चुनाव के पक्ष में ही आएगा और इसी के दृष्टिगत वे पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों तक ओली विरोधी मोर्चा खोलकर एक तरह चुनावी माहौल बनाने में सक्रिय हो गए हैं। इसमें नेपाली कांग्रेस, मधेसी दल तथा ओली से अलग हुए प्रचंड और माधव कुमार नेपाल गुट के कम्युनिस्ट दल सभी शामिल है। ओली के खिलाफ धरना प्रदर्शन व पुतलादहन जैसे कार्यक्रम जारी है।
इधर राजधानी काठमांडू में चर्चा तेज है कि विपक्षी दलों के आंदोलनों से निपटने के लिए ओली देश में इमरजेंसी भी लगा सकते हैं। नेपाली कांग्रेस के सांसद अभिषेक प्रताप शाह ने ऐसी आशंका जाहिर करते हुए कहा कि राष्ट्रपति और ओली ऐसा फैसला ले सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो यह 1960 की पुनरावृत्ति होगी जब राजशाही ने इमरजेंसी लगाकर स्व.वीपी कोइराला सरकार को बर्खास्त कर दिया था और लोकतंत्र की आवाज उठाने वाले तमाम विरोधियों को जेल में डाल दिया था।
नेपाल की नियत शायद राजनीतिक अस्थिरता ही है। ऐसा न होता तो ओली के नेतृत्व में चल रही अच्छी खासी सरकार अपने कार्यकाल के दो साल पहले ही न भंग हो जाती? कहना न होगा कि 2008 में राजशाही की समाप्ति के इन करीब बारह वर्षों में दस प्रधानमंत्री बदले गए।ओली ने प्रचंड और अपने अनन्य सहयोगी माधव नेपाल, बामदेव गौतम आदि से उत्पन्न विवाद के कारण संसद का विघटन कर दिया.
इस बीच नेपाल से जुड़ी दो बड़ी घटनाओं पर भी नजर डालना होगा।पहला तो यह कि सरकार भंग करने के बाद और पहले तक चीन ओली सरकार को बचाने की कोशिश में पूरी ताकत से खड़ा दिखा।काठमांडू में चीनी राजदूत तो खुलेआम सक्रिय थी हीं,चीन ने अपने मंत्रियों का एक जत्था तक काठमांडू में उतार दिया था।इसके इतर भारत खामोश था।दूसरा,हाल ही नेपाली विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञ्यावली का दिल्ली जाना हुआ था,वे पीएम मोदी से भी मिलना चाहते थे,हमारे प्रधानमंत्री ने उनसे मिलना मुनासिब नहीं समझा।नेपाल को यह कड़ा किंतु मौन संदेश था।भारत ने नेपाल को कोविड वैक्सीन का बड़ा खेप उपलब्ध कराया जिसका दूसरा संदेश यह था कि हमारा मतभेद नेपाल सरकार से हो सकता है, नेपाली नागरिकों से नहीं।
भारत और नेपाल के बीच मतभेद और तनाव नया नहीं है।यह चलता रहता है और सुलझता रहता है। लेकिन इधर ओली के सत्ता सीन होने के बाद दोनों देशों के बीच तल्खी कुछ इस हद तक बढ़ी कि इसका असर नेपाल के नागरिकों पर पड़ा और वे भारतीयों से नफरत करने लगे।ओली के कार्यकाल में नेपाल के पहाड़ी इलाकों में घूमने फिरने गए भारतीयों से बदसलूकी की घटनाएं खूब हुई। इसके पीछे शायद ओली के नेतृत्व में नेपाल का तेजी से चीनीकरण होना है।नेपाल का चीनीकरण भारत पर क्या असर डालेगा, यह हमारी चिंता का विषय होना चाहिए।
हां भारत के लिए संतोष की बात यह है कि ओली के सरकार भंग करने के आत्मघाती नीर्णय के बाद ओली सरकार और उनकी पार्टी टुकड़ों में बंट गई। प्रचंड की माओवादी नेकपा और माधव नेपाल व बामदेव गौतम का संगठन पर कब्जा हो गया। ओली अपनी ही पार्टी से बेदखल कर दिए गए।
अब इस राजनीतिक उठापटक का असर चुनाव में क्या पड़ता हैं, कैसे समीकरण बनते हैं,यह बात बाद की है। नेपाल राजनीति के जानकारों की मानें तो मौजूदा घटनाक्रम के पीछे कहीं न कहीं प्रचंड और ओली के बीच सत्ता की जंग थी ही, ओली के भारत विरोधी बयान भी ओली सरकार और संगठन में विखंडन की बड़ी वजह है। प्रचंड,माधव कुमार नेपाल,बामदेव गौतम सरीखे कम्युनिस्ट नेता ओली के भारत विरोधी बयानों से किनारा कर लिए क्योंकी ये सभी नेता चीन से बेहतर संबंधों के पक्षधर तो हैं लेकिन भारत को नाराज करके नहीं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि उनके किसी भी मुश्किल में जितना काम भारत आ सकता है उतना चीन कभी नहीं आ सकता।
अपने भारत विरोधी बयान और लिंपियाधुरा,लिपुलेख तथा कालापानी को लेकर ओली अपनों के बीच घिरते चले गए। भारत पर अपनी सरकार गिराने का आरोप लगाकर वे चीन के करीब तो हुए लेकिन अपनों से दूर हो गए।
अब यदि नेपाल में मध्यावधि चुनाव की नौबत आई जिसकी संभावना अधिक है, तो राजनीति के नए समीकरणों का भी उदय होना तय है। पहले से कई टुकड़ों में बंटे मधेशी दल एक हो गए हैं। प्रचंड के विश्वसनीय पूर्व सहयोगी बाबू राम भट्टाराई भी मधेशी दलों के साथ हैं। राजावादी पार्टी राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी भी मजबूत हुई है जो हिंदुत्व के एजेंडे को धार देने में जुटी हुई है।उधर मधेशी दल हिंदी की अनिवार्यता को भी अपने एजेंडे में शामिल करने को सोच रहे हैं।नेपाल में हिंदी की आत्मा भटक रही है जबकि हिंदी यहां की 70प्रतिशत आवादी की लिखत पढ़त की आम भाषा है। 104 साल राणा शासनकाल में हिंदी नेपाल की मान्य सरकारी भाषा रही हिंदी का वहां अब कोई मुकाम नहीं है जबकि भारत के दो प्रांतो सिक्किम और दार्जिलिंग में बोले जाने के नाते नेपाली भाषा भारत में आठवीं अनुसूची में शामिल है। जैसा कि चर्चा है, यदि मधेशी दल ने हिंदी का मुद्दा उठाया तो तराई के 22 जिलों में उसे फायदा हो सकता है।
नेपाल अपने अस्तित्व काल से ही भारत का सबसे विश्वसनीय पड़ोसी मित्र राष्ट्र रहा है। वहां जब राजशाही था तब नेपाल से भारत की जैसी मित्रता थी,उम्मीद थी कि लोकतांत्रिक दर्जा हासिल करने के बाद इसमें और प्रगाढ़ता आएगी,लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
नेपाल का तराई बेल्ट जिसे भारतीय मूल के नेपाली नागरिकों का क्षेत्र कहा जाता है और नेपाल के इसी क्षेत्र से भारत का रोटी बेटी का रिश्ता होने के नाते भारत से संपूर्ण नेपाल को इस रिश्ते से जोड़कर देखा जाता है, हैरानी हुई जब 2017 के आम चुनाव में भारत सीमा से सटे इस इलाके तक कम्युनिस्टों का झंडा गड़ गया।करीब 22 जिलों के 90 लाख भारतीय मूल के नेपाली नागरिकों में नेपाली कांग्रेस और टुकड़ों में बंटे मधेशी दलों का प्रभाव था।सब धराशायी हो गए।नेपाली कांग्रेस का हिंदू कार्ड भी नहीं काम आया और न ही मधेशी दलों का मधेशियों को संविधान में अधिकार दिलाने का वादा ही।
पहली बार अपने दम पर नेपाल में सत्तारूढ़ हुई कम्युनिस्ट सरकार से भारत का असहज होना स्वाभाविक था। कम्युनिस्ट सरकार के पीएम ओली चीन के हाथ की कठपुतली बनकर इस गति से भारत विरोधी अभियान में जुट गए कि वे यह भूल गए कि भूकंप में मची भारी तबाही के बीच भारत ही नेपाल का बड़ा मददगार साबित हुआ था,और यह कि नेपाल में उत्पादित जड़ी बूटियों का एक मात्र खरीदार भारत है और यह भी कि करीब पांच लाख अवकाश प्राप्त गोरखा सैनिकों के परिवारों के लिए करोड़ों का पेंशन उनके खातों में भारत से जाता है।
भारत का विरोध कर स्वयं को राष्ट्र भक्त बनकर मध्यवाधि चुनाव में फिर मैदान मार लेने की मंशा पाले ओली की राह आसान नहीं है। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि फिलहाल ओली जैसे युग की दुबारा वापसी,नामुमकिन नहीं लेकिन मुश्किल जरूर है।
यशोदा श्रीवास्तव, नेपाल मामलों के जानकार