असम के कामाख्या देवी मंदिर की महिमा से ब्रह्मपुत्र नदी का पानी हो जाता है लाल

असम का कामाख्या देवी मंदिर, देवी के 51 शक्तिपीठों में से सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. कामाख्या देवी मंदिर में मां की कोई मूर्ति नहीं है. भक्त मंदिर में बने एक कुंड पर फूल अर्पित कर पूजा करते हैं. इस कुंड को फूलों से ढककर रखा जाता है क्योंकि कुंड देवी सती की योनि का भाग है, जिसकी पूजा-अर्चना भक्त करते हैं. इस कुंड से हमेशा का पानी का रिसाव होता है, इसी वजह से इसे फूलों से ढ़ककर रखा जाता है.

— सुषमाश्री

51 शक्तिपीठों में से एक है असम का (Kamakhya Temple) कामाख्या मंदिर, जिसे मां दुर्गा के शक्तिपीठों में से एक, सबसे पुराने शक्तिपीठ और महापीठ का दर्जा हासिल है. गुवाहाटी से दो मिल दूर पश्चिम में नीलगिरि पर्वत पर स्थित सिद्धि पीठ कामाख्या मंदिर का उल्लेख कालिका पुराण में भी मिलता है. इस मंदिर में तांत्रिक अपनी सिद्धियों को सिद्ध करने आते हैं.

कामाख्या देवी मंदिर में मां की कोई मूर्ति नहीं है. भक्त मंदिर में बने एक कुंड पर फूल अर्पित कर पूजा करते हैं. इस कुंड को फूलों से ढककर रखा जाता है क्योंकि कुंड देवी सती की योनि का भाग है, जिसकी पूजा-अर्चना भक्त करते हैं. इस कुंड से हमेशा का पानी का रिसाव होता है, इसी वजह से इसे फूलों से ढ़ककर रखा जाता है.

पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव का माता सती के प्रति मोह भंग करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने च्रक से माता सती के 51 टुकड़े किए थे, जिसके बाद जहां-जहां ये टुकड़े गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ बन गया. मान्यताओं के अनुसार, माता सती के योनि का भाग कामाख्या नामक स्थान पर गिरा था. इसके बाद से ही इस स्थान पर देवी के पावन मंदिर को स्थापित किया गया, जिसे कामाख्या मंदिर कहा जाने लगा.

बता दें कि माता सती के कुल 52 शक्तिपीठ हैं, लेकिन एक शक्तिपीठ पाकिस्तान में स्थित है। भारत में कुल 51 शक्तिपीठ हैं.

नदी का पानी हो जाता है लाल

आश्चर्य की बात यह है कि हर साल जून महीने में तीन दिनों तक ब्रह्मपुत्र नदी का पानी लाल हो जाता है. मान्यता के अनुसार, इस दौरान देवी अपने मासिक चक्र में होती हैं इसलिए ब्रह्मपुत्र नदी लाल हो जाती है. इस दौरान यह मंदिर 3 दिनों तक बंद रहता है. मंदिर से निकलने वाले इस लाल पानी को यहां आने वाले भक्तों के बीच बांटा जाता है. इन तीन दिनों में भक्तों का बड़ा सैलाब इस मंदिर में उमड़ता है. भक्तों को प्रसाद के रूप में लाल रंग का सूती कपड़ा भेंट किया जाता है. ऐसा हर साल अम्बुवाची मेले के समय ही होता है.

यहां प्रसाद के रूप में लाल रंग का गीला कपड़ा दिया जाता है. कहा जाता है कि जब मां को तीन दिन का रजस्वला होता है तो सफेद रंग का कपड़ा मंदिर के अंदर बिछा दिया जाता है.

प्रसाद में मिलता है लाल कपड़ा

कामाख्या मंदिर का प्रसाद दूसरे शक्तिपीठों से बिल्कुल अलग है. यहां प्रसाद के रूप में लाल रंग का गीला कपड़ा दिया जाता है. कहा जाता है कि जब मां को तीन दिन का रजस्वला होता है तो सफेद रंग का कपड़ा मंदिर के अंदर बिछा दिया जाता है. तीन दिन बाद जब मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं, तब वह वस्त्र माता के रज से लाल रंग से भीगा होता है. इस कपड़े को अम्बुवाची वस्त्र कहते हैं. इसे ही भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है.

मनोकामना पूरी करने के लिए यहां कन्या पूजन व भंडारा कराया जाता है. इसके साथ ही यहां पशुओं की बलि दी जाती है. हालांकि यहां मादा जानवरों की बलि नहीं दी जाती है.

तांत्रिकों के लिए खास मंदिर

तांत्रिकों या काला जादू करने वालों के लिए ये जगह काफी महत्व रखती है. इस जगह को तंत्र साधना के लिए सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. यहां साधु और अघोरियों का तांता लगा रहता है. अगर कोई व्यक्ति काला जादू से ग्रसित है तो उसे यहां आकर इस समस्या से निजात मिल जाती है. इसके अलावा यहां लोग अपनी जिंदगी से जुड़ी बहुत सी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए भी दूर-दूर से आते हैं.

काली और त्रिपुर सुंदरी देवी के बाद कामाख्या माता तांत्रिकों की सबसे महत्वपूर्ण देवी हैं. मान्यता है कि यहां के तांत्रिक बुरी शक्तियों को दूर करने में भी समर्थ होते हैं. हालांकि वह अपनी शक्तियों का इस्तेमाल काफी सोच विचार कर करते हैं. कामाख्या के तांत्रिक और साधू चमत्कार करने में सक्षम होते हैं.

कामाख्या देवी की पूजा भगवान शिव के नववधू के रूप में की जाती है, जो मुक्ति को स्वीकार करती हैं और सभी इच्छाएं पूर्ण करती हैं. मंदिर परिसर में जो भी भक्त अपनी मुराद लेकर आता है, उसकी हर मुराद पूरी होती है. कई लोग विवाह, बच्चे, धन और दूसरी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कामाख्या की तीर्थयात्रा पर जाते हैं.

कामाख्या देवी की पूजा भगवान शिव के नववधू के रूप में की जाती है, जो मुक्ति को स्वीकार करती हैं और सभी इच्छाएं पूर्ण करती हैं.

कामाख्या मंदिर तीन हिस्सों में बना हुआ है. पहला हिस्सा सबसे बड़ा है. इसमें हर व्यक्ति को नहीं जाने दिया जाता. वहीं दूसरे हिस्से में माता के दर्शन होते हैं, जहां एक पत्थर से हर वक्त पानी निकलता रहता है. माना जाता है कि महीने के तीन दिन माता रजस्वला होती हैं. इन तीन दिनों तक माता के पट बंद रहते हैं. तीन दिन बाद दुबारा बड़े ही धूमधाम से मंदिर के पट खोले जाते हैं. इस मंदिर के साथ लगे एक अन्य मंदिर में मां की मूर्ति विराजित है, जिसे कामादेव मंदिर कहा जाता है.

कामाख्या मंदिर का इतिहास

कामाख्या मंदिर भारत में सबसे पुराने मंदिरों में से एक है और स्वाभाविक रूप से, सदियों का इतिहास इसके साथ जुड़ा हुआ है. ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण आठवीं और नौवीं शताब्दी के बीच हुआ था. या फिर कहिए की Mleccha dynasty के दौरान हुआ था. जब हुसैन शाह ने कामाख्या साम्राज्य पर आक्रमण किया, तो कामाख्या मंदिर को खत्म कर दिया. तब यहां कुछ भी नहीं बचा और यह मंदिर खंडहर बन गया. ऐसा तब तक रहा जब तक कि इस मंदिर को 1500 दशक में फिर से खोज न लिया गया.

कोच वंश के संस्थापक विश्वसिंह ने इस मंदिर को पूजा स्थल के रूप में पुनर्जीवित किया. इसके बाद जब उनके बेटे ने राजपाठ संभाला तो 1565 में इस मंदिर को दोबारा से बनवाया, जिसके बाद से ये मंदिर ऐसा ही है, जैसा आज दिखाई देता है. इस मंदिर का इतिहास आज भी इसकी दीवारों के पीछे छुपा हुआ है. जहां दर्शन के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों से तीर्थयात्री आते हैं. देवी के दर्शन के लिए यहां हर साल हजारों की संख्या में लोग आते हैं. कामाख्या मंदिर गुवाहाटी आने वाले पर्यटकों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण है.

क्यों पड़ा मंदिर का नाम कामाख्या

इस मंदिर का नाम कामाख्या होने के पीछे भी एक मान्यता है. कहते हैं कि एक श्राप के चलते कामदेव ने अपना पौरुष खो दिया था, जिन्हें बाद में देवी शक्ति के जननांगों और गर्भ से ही इस श्राप से मुक्ति मिली. तब से इस मंदिर का नाम कामाख्या देवी रखा गया और उसकी पूजा शुरू हुई.

कुछ लोगों का तर्क है ​कि यह वही स्थान है जहां देवी सती और भगवान शंकर के बीच प्रेम हुआ ​था. संस्कृत भाषा में प्रेम को काम कहते हैं इसलिए इस मंदिर का नाम कामाख्या देवी रखा गया. यहां देवी के गर्भ और योनि को मंदिर के गर्भगृह में रखा गया है, जिसमें जून के महीने में रक्त का प्रवाह होता है.

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