नागालैंड प्रकरण एवं लोकतंत्र का भविष्य

राज्य पुलिस ने तिजित पुलिस थाने में 21 पैरा स्पेशल फोर्स के खिलाफ एफआईआर में कहा गया कि ''यह ध्यान देने योग्य है कि घटना के समय वहां कोई पुलिस गाइड नहीं था और न ही सुरक्षा बलों ने उनके अभियान के लिए पुलिस गाइड मुहैया कराने के लिए पुलिस स्टेशन से अनुरोध किया था। इससे स्पष्ट है कि सुरक्षा बलों की मंशा नागरिकों को घायल करने और उन्हें मारने की थी।

बिमल कुमार

संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के बजाय सशस्त्र बलों पर अधिकाधिक निर्भरता को मजबूत नेतृत्व का परिचायक बताना लोकतंत्र को कमजोर करने वाला है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ठंडे बस्ते में डाल कर, इन क्षेत्र के लोगों को हम कैसे विश्वास दिला पायेंगे कि यह देश तुम्हारा है और फौज व पुलिस तुम्हारी सुरक्षा के लिए है?

प्रो बिमल कुमार

नागालैंड में सुरक्षा बलों द्वारा निहत्थे नागरिकों की हत्या ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। बताया गया है कि यह घटना नागालैंड के मोन जिले के ओटिंग और तिरुगांव के बीच हुई। 4 दिसंबर की शाम करीब सवा चार बजे 8 ग्रामीण, जो कोयला खदान में मजदूरी करते थे, मजदूरी के बाद एक पिकअप ट्रक से अपने घर लौट रहे थे। सुरक्षा बलों ने घात लगाकर हमला किया, जिसमें 6 लोगों की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गयी।

गोलियों की आवाज सुनकर गांव वाले घटना स्थल पर पहुंचे। गुस्साए गांव वालों एवं सुरक्षा बलों के बीच झड़प में हुई हिंसा में 7 और गांव वाले मारे गये। इस पूरे घटनाक्रम पर सुरक्षा बलों का कहना था कि उन्हें गुप्त सूचना मिली थी कि उग्रवादी विद्रोही कोई हिंसा की कार्रवाई करने वाले हैं। इन मजदूरों को उग्रवादी दल समझ कर उन पर हमला किया गया। केन्द्रीय गृहमंत्री ने इसी पक्ष को अपने वक्तव्य में आधार बनाया। जबकि राज्य की पुलिस द्वारा दिया गया ब्योरा बिलकुल भिन्न है। राज्य पुलिस ने तिजित पुलिस थाने में 21 पैरा स्पेशल फोर्स के खिलाफ एफआईआर में कहा गया कि ”यह ध्यान देने योग्य है कि घटना के समय वहां कोई पुलिस गाइड नहीं था और न ही सुरक्षा बलों ने उनके अभियान के लिए पुलिस गाइड मुहैया कराने के लिए पुलिस स्टेशन से अनुरोध किया था। इससे स्पष्ट है कि सुरक्षा बलों की मंशा नागरिकों को घायल करने और उन्हें मारने की थी।

इससे दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं। एक सुरक्षा बलों ने घेराबंदी कर उन्हें समर्पण करने व जीवित पकड़ने के प्रयास क्यों नहीं किये? इतनी नफरत क्यों की कि जीवित पकड़ कर राज उगलवाने की अपेक्षा उन्हें सीधे मौत के घाट उतार दिया। दूसरा सवाल दायित्व का है। सुरक्षा बलों में यह भाव क्यों है कि वे कुछ भी करेंगे, उसके लिए वे कानूनी रूप से उत्तरदायी नहीं होंगे?

इससे दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं। एक सुरक्षा बलों ने घेराबंदी कर उन्हें समर्पण करने व जीवित पकड़ने के प्रयास क्यों नहीं किये? इतनी नफरत क्यों की कि जीवित पकड़ कर राज उगलवाने की अपेक्षा उन्हें सीधे मौत के घाट उतार दिया। दूसरा सवाल दायित्व का है। सुरक्षा बलों में यह भाव क्यों है कि वे कुछ भी करेंगे, उसके लिए वे कानूनी रूप से उत्तरदायी नहीं होंगे?

दूसरे प्रश्न का जवाब सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम, 1958 (यानि अफ्स्पा) के प्रावधानों में है। इसी कारण पूरे पूर्वोत्तर में अफ्स्पा को खत्म करने की मांग जोर पकड़ने लगी है। मणिपुर में 60 वर्षों से एवं नागालैंड में 50 वर्षों से अफ्स्पा लागू है। यह कानून उसी प्रकार है, जैसा कि ब्रिटिश सरकार ने एक आर्डिनेन्स द्वारा 1942 में लागू किया था। सन् 1942 के उस अध्यादेश का उद्देश्य भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलना था।

अफ्स्पा के अंतर्गत एक क्षेत्र को अशांत घोषित कर देने के बाद वहां सशस्त्र बलों द्वारा की गयी कार्यवाई को न्यायालय में विचारार्थ नहीं पेश किया जा सकता है। अफ्स्पा का सेक्शन 4 (ए) सशस्त्र बलों को ‘शूट टू किल’ का अधिकार देता है, जो संविधान में धारा 21 में उपलब्ध जीने के अधिकार का उल्लंघन है। इसी प्रकार अफ्स्पा स्वतंत्रता एवं सुरक्षा के अधिकार एवं न्यायिक समाधान के अधिकार का उल्लंघन करता है।

मालूम हो कि अफ्स्पा के दुरुपयोग को ध्यान में रखकर न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक कमेटी ने इसका अध्ययन कर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। कमेटी ने निर्विवाद रूप से अफ्स्पा को खत्म करने की संस्तुति भी की थी।

मालूम हो कि अफ्स्पा के दुरुपयोग को ध्यान में रखकर न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक कमेटी ने इसका अध्ययन कर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। कमेटी ने निर्विवाद रूप से अफ्स्पा को खत्म करने की संस्तुति भी की थी।
पूर्वात्तर के लोगों की आम धारणा है कि ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर अप्रत्यक्ष रूप से सैन्य शासन कायम कर दिया जाता है। यदि 6 महीने या साल भर के लिए विशेष कार्रवाई हो तथा नागरिक जीवन व नागरिक अधिकार थोड़े समय के लिए स्थगित कर दिये जायें तो यह बात समझ में आती है। किन्तु यदि 50-60 वर्षों तक ऐसा चलता रहता है, तो वहां के नागरिक अपने को स्वतंत्र मानने के बजाय यह मानने लगते हैं कि उन पर सशस्त्र बलों का कब्जा हो गया है। भारत का मध्य क्षेत्र तथा जम्मू एवं कश्मीर इस कड़ी में नये क्षेत्र हैं।

ऐसा लगता है कि राजनीतिक लोकतंत्र का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। लोकतांत्रिक संस्कृति का सिकुड़ते जाना धीरे-धीरे सामान्य माना जाने लगा है। उग्रवादियों से निपटने के नाम पर, आम नागरिकों को ही मुख्यधारा से अलग-थलग किया जाने लगा है। इस रणनीति को बदलना होगा। एक तरफ सशस्त्र बलों के अधिकार क्षेत्र का दायरा बढ़ते जाना तथा दूसरी ओर लोकतांत्रिक संस्कृति का दायरा सिकुड़ते जाना, इस बात का संकेत है कि हम संवैधानिक अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहे हैं। संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के बजाय सशस्त्र बलों पर अधिकाधिक निर्भरता को मजबूत नेतृत्व का परिचायक बताना लोकतंत्र को कमजोर करने वाला है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ठंडे बस्ते में डाल कर, इस क्षेत्र के लोगों को हम कैसे विश्वास दिला पायेंगे कि यह देश तुम्हारा है और फौज व पुलिस तुम्हारी सुरक्षा के लिए है?

इसे भी पढ़ें:

इतनी ज़्यादा डरी-सहमी क्यों दिख रही है BJP?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Related Articles

Back to top button