सोशियोलॉजी, साइकोलॉजी और इकोनॉमी भी समझने की कोशिश कीजिये
अरुण अस्थाना, वरिष्ठ पत्रकार मुंबई से
मुंबई में कल के बांद्रा की तस्वीर, तो आपने अब तक देख ही ली होगी। यहाँ सड़क पर उतरे हज़ारों लोग बिलकुल वही लोग हैं जो तीन दिन पहले सूरत से और तीन हफ़्ते पहले दिल्ली NCR से निकालने को आतुर थे। इतने बेचैन लोगों की भागने की कोशिश इनका ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया नहीं है जैसा हम मध्य वर्ग के लोग मानते हैं, बल्कि उनका डर और मजबूरी है। क्योंकि ये सब भी ज़िंदा रहना चाहते हैं। हालांकि मुंबई के इस बांद्रा वाकये के पीछे हमेशा की तरह तमाम कॉन्सपिरेसी थ्योरीज़ भी गढ़ी जाने लगी हैं जहां इस घटना में राजनीतिक या साम्प्रदायिक रंग भरे जा रहे हैं। वाट्सअप विद्यापीठ भरने लगा है ऐसे ज्ञान से, ट्विटर एंसाइक्लोपीडिया से ये छलक छलक कर फैल रहा है। हो सकता है सच भी हो, ऐसे मौके पर राजनीति के काफी खिलाड़ी बहुत अच्छे से खेलते हैं, हालांकि सब नहीं। पर ये भी सच है कि मुंबई खौल रहा है खौफ के गुस्से से।
तो ये खौफ, ये गुस्सा समझना और उसका इलाज करना सबसे जरूरी है वरना मुंबई में तांडव मचाये कोरोना से निपटना और मुश्किल होता जायेगा। मुंबई देश की सबसे घनी आबादी वाला शहर है। सबसे विविध भी। कफ परेड में जहां अंबानी और टाटा के घर हैं वहीं बिल्डिंग से निकलते ही समुंदर किनारे झोपड़पट्टियों का समंदर भी। इसी तरह बांद्रा में जहां सचिन, शाहरुख, आमिर, सलमान रहते हैं उसी का एक हिस्सा गरीबी की बेहद सच्ची तस्वीर भी है।
असल में कल जो लोग बांद्रा में इकट्ठा थे वो तो खेरवाड़ी से SV रोड तक पसरे उस बांद्रा के लोग हैं जो एक अलग दुनिया है, ये वो लोग हैं जो मुंबई के अलग अलग इलाक़ों से वहाँ आए, धारावी से लेकर कुरला, चूनाभट्टी और पोइसर, मालवनी तक से।
वो लोग इकट्ठा हुए या किये गये, इससे ज्यादा इस पर गौर करना जरूरी है कि ये कितना बेचैन हैं, वहां से निकलने के लिए। एक तरफ इनके सामने भूख और कल की चिंता मुंह बाये खड़ी है जब इनके पास काम नहीं होगा जब वे धंधे, कारखाने, दुकानें नहीं खुलेंगे जहां से उनकी आमदनी थी। इनमें से ज्यादातर लोगों की जमापूंजी खत्म हो चुकी है। हालांकि ये बार बार कहा जा रहा है कि इनके खाने का पूरा इंतजाम है और इसे सच ना मानने की कोई वजह भी नहीं दिखती। फिर भी झोपड़पट्टियों की तंग गलियों और चालों के छोटे छोटे दड़बों में बरसों से बसे ये लोग अब किसी भी हाल में वहां से भागना चाह रहे हैं। क्यों?
क्योंकि ये सारे लोग भूख और बेरोज़गारी के साथ कोरोना से भी बुरी तरह डरे हुए हैं। इन्हें पता है कि जहाँ वे रहते हैं वहां लाख कोशिश करके भी वे सोशल डिस्टेंसिग का पालन नहीं कर सकते। जहां, गली में अगर दो लोग आमने सामने से आ रहे हों तो एक के तिरछा होना पड़ता है, जहां आठ बाइ आठ के कमरे में अगर चार लोगों का परिवार रहता है तो उसे ठीक ठाक रहना माना जाता है, जहाँ बस्ती के एक शौचालय के सामने सुबह सौ, दो सौ लोगों की लाइन लगती है, जहाँ पानी के लिए नलों पर मारामारी होती है। जहाँ एक कमरे में रह रहे चार लोगों में से दो तब सो पाते हैं जब बाकी दो काम पर जाते हैं। जहां चौपाटी और जूहु से लेकर मढ तक के बीच हर शाम ऐसे लोगों और परिवारों से भरे रहते है, जिनके घर में सबके एक साथ रहने की जगह ही नहीं… ज़्यादातर ऐसे ही इलाके वहां कोरोना के हॉटस्पॉट हैं।
वहां रहना अब मौत को दावत देने से कम नहीं। उन्हें ये भी नहीं मालूम कि कब तक वे यूं ही कोरोना संक्रमण के साये में जीते रहेंगे। ऊपर से जमा पूंजी उड़ी जा रही है, आमदनी फिर कब शुरु होगी, इसका कोई पता नहीं। इसीलिए, ये लोग भागना चाहते हैं।
मुंबई में बांद्रा की घटना के बाद कुछ ऐसे लोगों से बात हुई जो ऐसे ही इलाकों में रहते हैं. जो उनकी सोच और उसका लब्बोलुबाब ये कि- गांव में कम से कम सोशल डिस्टेंसिंग तो कर सकेंगे… दूर दूर बैठने की कम से कम जगह तो मिलेगी… पैसा नहीं भी होगा तो एक सपोर्ट सिस्टम तो होगा… अपने लोग तो आसपास होंगे।
और – वहां कम से कम भूख से नहीं मरेंगे, वहां कम कमायेंगे पर देर सबेर कुछ न कुछ काम मिल ही जायेगा … और अब जरूरी नहीं कि यहीं रहें जहां अच्छा मौका मिलेगा चले जायेंगे.
तो सिर्फ क्रोनोलॉजी पर ही मत अटके रहिये। ज़रा देश की सोशियोलॉजी, साइकोलॉजी और इकोनॉमी भी समझने की कोशिश कीजिये। बाकी बेरोजगारी का सवाल तो बड़ा है ही। इस पर मैं पहले ही लिख चुका हूं। मोदीजी को अब जीवन के साथ जीविका बचाने की मुहिम शुरु ही करना होगी। पढ़िये ‘दि प्रिंट’ में प्रकाशित मेरा विश्लेषण –
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. अमरउजाला, बीबीसी और स्टार न्यूज़ में काफी समय काम करने के बाद अब दि प्रिंट, वॉयस ऑफ अमेरिका और कनाडा ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया नेटवर्कों के लिए काम करते रहते हैं.