मोरारजी भाई ने कहा कि जेपी मसीहा बनना चाहते हैं
युवा क्रांति का वाहक
19 महीनों के काले दिनों के बाद चुनावों की घोषणा लोकतांत्रिक मानस की पहली जीत थी. सभी राजनीतिक दलों, उनके नेताओं और आंदोलन के कार्यकर्ताओं को उस चुनाव को स्वीकार करने और उसमें शिरकत करने को लेकर घोर असहमति थी.
–सुशील कुमार
जेपी की मृत्यु के समय चरण सिंह प्रधानमंत्री थे. जेपी का शव श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल के बरामदे में दर्शनार्थ रखा गया था. 9 अक्टूबर 1979 को देश के अनेक दिग्गज नेता जेपी के अंतिम दर्शनार्थ पहुंचे, किन्तु मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम ने जेपी का अंतिम दर्शन भी नहीं किया.
लोकनायक जयप्रकाश नारायण छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के वाहिनी नायक भी थे, यह ओहदा 8 अक्टूबर 1979 को ही समाप्त हो गया. छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की राष्ट्रीय परिषद का दूसरा अधिवेशन 11 अक्टूबर 1979 से तीन दिन के लिए प्रस्तावित था.
योजना थी कि जेपी की 77वीं जयंती के दिन देश के विभिन्न प्रदेशों से आये प्रतिनिधिमंडल वाहिनी नायक से मिलकर उन्हें शुभकामनाएं देकर मुजफ्फरपुर रवाना हो जायेंगे.
वाहिनी के संविधान की प्रारूपण समिति और राष्ट्रीय कार्यकारिणी की संयुक्त बैठक मुजफ्फरपुर जिला स्कूल में 7 से 10 अक्टूबर 1979 तक होनी थी, जिसमें सांगठनिक, संवैधानिक और राष्ट्रीय परिस्थितियों पर मसौदा तैयार किया जाना था. एक दिन यह बैठक चल चुकी थी. 8 अक्टूबर को सुबह हम सभी दूसरे दिन की बैठक के लिए तैयार हो रहे थे. सुबह लगभग 7 बजे तत्कालीन राष्ट्रीय संयोजक अमर हबीब भागते हुए आये और सूचना दी कि जेपी नहीं रहे.
हम सभी के सिर पर एक तूफानी झन्नाटा सा महसूस हुआ. किसी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला. शीघ्र पटना जाना तय हुआ. मुजफ्फरपुर से ट्रेन द्वारा पहले जाघाट और वहां से स्टीमर से गंगा पार महेन्द्रू घाट का सफर तय हुआ. जब स्टीमर गंगा की बीच धारा में पहुंचा तो हमने देखा कि अमर हबीब स्टीमर के मस्तूल के पास गंगा की लहरों को निहारते खामोश खड़े थे.
मैं उनके पास गया और पूछा, क्या सोच रहे हैं. उनका जवाब था, ‘वाहिनी नायक तो नहीं रहे, अब इतने बड़े राष्ट्रीय संगठन की जिम्मेदारी मेरे ही कंधे पर आयेगी, यही सोचकर मैं चिन्तित हूं.’ अमर हबीब के इस जवाब पर हम दोनों ठहाके लगाकर हंस पड़े. पता नहीं यह महज एक मजाकिया जुमला था या संपूर्ण क्रांति के भविष्य पर एक गहरा प्रश्नवाचक चिन्ह?
चुनाव की चुनौती
उपरोक्त आख्यान एक संस्मरण है, जिसका भारत के आने वाले भविष्य और वाहिनी नायक के ऐलान ‘युवा क्रांति का वाहक होगा’ से एक गहरा रिश्ता बनता है. मार्च 1977 की ऐतिहासिक, लोकतांत्रिक क्रांति के बाद 1979 तक का कालखंड भारतीय लोकतंत्र के अध्ययन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है.
संपूर्ण क्रांति के आंदोलन को 25 जून 1975 को एक गहरा झटका तत्कालीन सत्ता द्वारा दिया गया. यह झटका न सिर्फ संपूर्ण क्रांति आंदोलन, आंदोलन में जूझ रहे देश के युवा मानस या लोकनायक पर था, बल्कि भारत और दुनिया की लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्कृति पर भी था.
19 महीनों के काले दिनों के बाद चुनावों की घोषणा लोकतांत्रिक मानस की पहली जीत थी. सभी राजनीतिक दलों, उनके नेताओं और आंदोलन के कार्यकर्ताओं को उस चुनाव को स्वीकार करने और उसमें शिरकत करने को लेकर घोर असहमति थी.
एकमात्र जेपी ने चुनाव की चुनौती को स्वीकार करते हुए कहा कि मुझे भारत की जनता की लोकतांत्रिक आस्था पर पूरा भरोसा है. मैं चुनाव की इस चुनौती को स्वीकार करता हूं. यह चुनाव सत्ता और जनता के बीच होगा.
सभी विपक्षी दलों (सोशलिस्ट पार्टी, संगठन कांग्रेस, भारतीय लोकदल और जनसंघ) को मिलाकर जनता पार्टी गठित हुई, चुनाव हुआ. आजादी के बाद का वह चुनाव आम जनता की सक्रिय भागीदारी का पहला चुनाव था, जिसने देश ही नहीं, पूरी दुनिया में लोकतंत्र को सबसे उपयुक्त राजनीतिक व्यवस्था के रूप में पुनर्स्थापित कर दिया.
निष्कर्ष यह निकला कि जनता की सक्रिय सहभागिता और प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के बगैर सत्ता की स्थापना लोकतंत्र के लिए अपर्याप्त और अवांछनीय है.
संपूर्ण क्रांति की भ्रूणहत्या
लोकनायक लोकतंत्र के परचम के अंतिम आधार स्तम्भ थे. 1977 के चुनाव परिणाम ने दो महत्वपूर्ण उम्मीदें पैदा कीं. पहली यह कि मात खा चुके राजनीतिक दलों और नेताओं में यह उम्मीद जगी कि जनता के अपार समर्थन की नाव पर सवार होकर अनंत काल तक सत्ता के महासागर में तैरते रहेंगे. दूसरी तरफ संपूर्ण क्रांति के लाखों कार्यकर्ताओं के मन में यह उम्मीद जगी कि देश की संपूर्ण व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की राह आसान हो गयी. लेकिन देश के राजनैतिक दलों के मानस की सड़ांध कहें या लोकतांत्रिक व्यवस्था की विडम्बना, ये दोनों अपेक्षाएं ढाई वर्षों में ही धूलि धूसरित हो गयीं.
संपूर्ण क्रांति आंदोलन की इस परिणति का अध्ययन एक अकादमिक विषय है. इसके लिए कुछ घटनाक्रमों और क्रांति नायक जेपी की शैयाग्रस्त परिस्थिति पर भी गौर करना आवश्यक है.
महत्त्वाकांक्षाओं के उबाल
जनता पार्टी में चार महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल शामिल हुए थे. आपातकाल के अंतिम दिनों में सत्ताधारी इंदिरा कांग्रेस से बगावत करके जगजीवन राम के नेतृत्व में गठित सीएफडी (कांग्रेस फॉर डेमाक्रेसी) भी जनता पार्टी का घटक बन गयी थी.
इन सभी घटकों के नेताओं की महत्त्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की थी. विशेषकर संगठन कांग्रेस के नेता मोरारजी देसाई, भारतीय लोकदल के नेता चौधरी चरण सिंह और सीएफडी के नेता जगजीवन राम सबसे ज्यादा महत्त्वाकांक्षी थे.
जनता के दबाव और जेपी के नैतिक प्रभाव के कारण सबसे वरिष्ठ मोरारजी देसाई सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री बने, पर सत्ता लिप्सा कहां थमने वाली थी!
बढ़ते टकराव और विवाद में जगजीवन राम को प्रधानमंत्री पद देने की बात चल निकली. उस समय तक जनता पार्टी के नेताओं की नजर में जेपी अप्रासंगिक हो चले थे.
गुर्दे की बीमारी के कारण भी उनकी सक्रियता लगभग गौण हो चुकी थी. किन्तु महत्त्वाकांक्षाओं के टकराव के बीच जनता और मीडिया की नजर में जेपी की राय अब भी प्रासंगिक थी.
विवादों को सुलझाने के लिए जेपी ने बयान दिया कि वर्तमान परिस्थिति में मोरारजी भाई को जगजीवन राम के लिए प्रधानमंत्री पद छोड़ देना चाहिए. मोरारजी भाई की प्रतिक्रिया थी कि जेपी मसीहा बनना चाहते हैं. इस प्रतिक्रिया की देश भर में तीखी निन्दा हुई.
अंतत: जनसंघ की दोहरी सदस्यता को लेकर जनता पार्टी टूट गयी. चौधरी चरण सिंह का लोकदल जनता पार्टी छोड़कर अलग हो गया और चौधरी चरण सिंह इंदिरा कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने, लेकिन एक दिन भी संसद का सामना नहीं कर सके. कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गयी.
जेपी की मृत्यु के समय चौधरी चरण सिंह कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे. जेपी का शव श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल के बरामदे में दर्शनार्थ रखा गया था. 9 अक्टूबर 1979 को देश के अनेक दिग्गज नेता जेपी के अंतिम दर्शनार्थ पहुंचे, जिनमें शेख अब्दुल्ला से लेकर करूणानिधि तक और इंदिरा गांधी से लेकर संजय गांधी तक शामिल थे, किन्तु मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम ने जेपी का अंतिम दर्शन भी नहीं किया.
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अंतिम दिनों में जो राजनैतिक परिदृश्य उपस्थित हुआ, वह लोकतंत्र में व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के हश्र को समझने के लिए अध्ययन का विषय है.