मंकी पॉक्स : नयी मुसीबत

प्रो अजय तिवारी, दिल्ली

मंकी पॉक्स का चौथा मरीज़ दिल्ली में मिला है, पाँचवाँ हिमाचल में निगरानी में है। कुल 75 देशों में इस नयी बीमारी के मरीज़ पाये गये हैं। अब तक 16,000 लोगों में इस बीमारी के संक्रमण की पुष्टि हुई है। इसलिए विश्व स्वस्थ्य संगठन ने इसे नया वैश्विक स्वस्थ्य संकट कहा है: सम्भावित आपातस्थिति!

इधर स्मालपॉक्स और चिकेनपॉक्स (चेचक के दो रूपों) का उन्मूलन हुआ, उधर मंकीपॉक्स आ धमका। चेचक, हैजा, कोरोना की तरह मंकी पॉक्स भी एकदेशीय समस्या नहीं है। आधुनिक संसार की यह विडंबना अथवा विशेषता है कि हर प्रवृत्ति विश्वव्यापी होती है। यानी वैश्विक। संचार साधनों का विस्तार जितना तेज़ हो रहा है, दुनिया के देश एक-दूसरे के सम्पर्क में जिस रफ़्तार से आ रहे हैं, उसमें यह स्वाभाविक है। लेकिन इस वैश्विकता का नतीजा है कि रोग और महामारियाँ भी वैश्विक होती हैं। 1918 कि इन्फ़्लुएन्ज़ा और 2019 का कोविड इसके उदाहरण हैं।

फिर भी, अधिक विचारणीय प्रश्न दूसरा है। 16वीं शताब्दी का तपेदिक (टीबी), 18वीं शताब्दी का मलेरिया, बीसवीं शताब्दी का इन्फ़्लुएन्ज़ा, 21वीं शताब्दी का कोरोना–हर महामारी क्रमशः असाध्य होती जाती है। बेशक़, विज्ञान के विकास के चलते इन महामारियों का नियंत्रण और निरोध भी आसान हुआ है। इसीलिए एक महामारी अपना क़हर बरपा करने के बाद नियंत्रित कर ली जाती है, प्रतिरोधक टीकों के माध्यम से उनकी रोकथाम होने लगती है, जन्मकाल से ही टीके देकर उनमें कई का उन्मूलन करने में सफलता मिली है।

लेकिन सोचने की बात है कि एक महामारी छोड़ती नहीं, दूसरी जकड़ने लगती है। इसका कारण क्या है? आधुनिक सभ्यता के सूत्रधार और विश्व व्यवस्था के कर्णधार लगातार एक से बढ़कर दूसरी घातक महामारी के अभ्युदय पर क्यों नहीं चिंतित होते? यह क्यों नहीं खोजते कि एक से बढ़कर घातक दूसरी महामारी का क्रम कैसे रोका जाये?

16वीं शताब्दी में पहले टीबी, फिर हैज़ा महामारी का जन्म नव-विकसित पूँजीवादी इंग्लैण्ड में हुआ था–वहाँ की मज़दूर बस्तियों में रहनेवाले कामगारों की नारकीय ज़िंदगी की परिस्थितियों के चलते। इसका भरपूर ब्यौरा एंगेल्स ने अपनी पुस्तक’कंडीशन्स ऑफ वर्किंग क्लास इन इंग्लैण्ड’ में दिया है। कोरोना को चीन में उत्पन्न बताया गया लेकिन जाँच के बाद अब तक इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है। एड्स से लेकर मंकीपॉक्स तक अनेक महामारियों की जन्मस्थली अफ्रीका है। इंग्लैण्ड के मजदूरों की तरह अफ्रीका के जनगण भी उन्हीं गोरे पूँजीपतियों द्वारा उत्पीड़ित और शोषित हैं जिन्होंने भारत को दो शताब्दियों तक लूटा और कुचला था।

यदि इसपर ध्यान दें कि 16वीं शताब्दी के बाद से सभी महामारियों का जन्म पूँजीवादी शोषण का नतीजा है तो यह वाजिब होगा। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि अधिकांश महामारियाँ उत्पीड़ित समुदाय के बीच उत्पन्न होती हैं क्योंकि उन्हीं को नारकीय परिस्थितियों में रहना पड़ता है। कोरोना पहली महामारी थी जो अमीरों के बीच जन्मी और उन्हीं के द्वारा फैली, हालाँकि उसकी मार भी सबसे ज़्यादा और सभी रूपों में गरीबों को ही सहनी पड़ी। और बीमारियाँ धरती पर चलकर फैलती हैं, कोरोना हवाई जहाज़ पर चलकर फैली थी।

मंकीपॉक्स के लिए भी कहा जा रहा है कि एड्स की तरह यह भी समलैंगिक पुरुषों में जन्मी और छुआछूत से फैलती है। समलैंगिकता को अब क़ानूनी मान्यता है, बहुत स्थानों पर सामाजिक स्वीकृति भी है, इसलिए उसके औचित्य पर कुछ कहना मेरा उद्देश्य नहीं है। लेकिन दो बातों पर गौर करने की आवश्यकता है। पहली, पूँजीवादी वर्ग विरोध बढ़ाता है, एक मानव समुदाय के लिए स्वर्गोपम जीवन सुलभ करता है, दूसरे मानव समुदाय के लिए नारकीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। इसका नतीजा गरीबों-अभागों में महामारी का प्रसार हम देख चुके हैं। दूसरी, पूँजीवाद मनुष्य के साथ-साथ प्रकृति का दोहन और शोषण भी करता है। इसीलिए पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता जा रहा है।

अपने सामाजिक व्यवहार को प्रकृति पर लागू करते हुए वह सिद्धांत देता है कि विज्ञान ने प्रकृति पर मनुष्य की अंतिम विजय निश्चित कर दी! लेकिन हम जानते हैं कि विजय-पराजय का सम्बन्ध शत्रुओं में होता है। मनुष्य और प्रकृति एक-दूसरे के शत्रु नहीं हैं। बल्कि मनुष्य का जीवन प्रकृति पर निर्भर है, प्रकृति को क्षति पहुँचाकर मनुष्य अपने जीवन को भी संकट में डालता है। इसीलिए एंगेल्स ने ‘डायलेक्टिक्स ऑफ नेचर’ में कहा था कि ‘मनुष्य के रूप में प्रकृति ने आत्मचेतना प्राप्त की है।’ यह सहयोग के आदर्श पर निर्मित सिद्धांत है। सहयोग मनुष्य और मनुष्य के बीच, सहयोग मनुष्य और प्रकृति के बीच।
इस तरह, दो समांतर जीवन दर्शन दिखते हैं। एक सहयोग पर आधारित, दूसरा शत्रुता पर आधारित। इतिहास का यह तथ्य है कि पिछले पाँच सौ साल का विश्व इतिहास शत्रुता के दर्शन से परिचालित हो रहा है। वह पूँजीवादी इतिहास है। कोई समाज पूँजीवादी रास्ते पर जिस तेज़ी से चलता है, उसी रफ़्तार से शत्रुता का सामाजिक विस्तार करता है। वर्तमान भारत इसी का साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

प्रकृति ने जीवन का विकास इस तरह किया है कि वह सहयोग पर आधारित है। सभी प्राणी अपने-अपने झुंड में रहते हैं। यह सहयोग का उदाहरण है। मनुष्य अकेला प्राणी है जिसने झुंड से आगे बढ़कर समाज का विकास किया है। झुंड और समाज में यह अंतर है कि झुंड में रहने वाले प्राणी प्रकृति का उपभोग भर करते हैं। जिस प्राणी ने प्रकृति का निर्माण किया, औज़ार की सहायता से पत्थर घिसकर प्रकृति को रचनात्मक रूप में बदला, वही समाज में संगठित हुआ। उसी ने क्रमशः भाषा का और परिवार का विकास किया। इसलिए श्रम को मनुष्य का रचनात्मक सारतत्व कहा जा सकता है। समाज जब श्रम का अवमूल्यन करता है तब कृत्रिम जीवन-शैली अपनाता है। यह कृत्रिम जीवन-शैली बहुत-सी व्याधियों का जनक है। इसीलिए अधिकांश महामारियाँ पूँजीवाद के साथ आयीं और पूँजीवाद के हर नये चरण में नयी-नयी महामारियाँ आती जाती हैं। निस्संदेह, इन महामारियों का जनक पूँजीवाद है लेकिन इनकी सर्वाधिक मार श्रमिकों और गरीबों को सहनी पड़ती है।

मुझे डर है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी अगर सही निकली कि मंकीपॉक्स वैश्विक आपातस्थिति है तो दुनिया भर में कोरोना की तरह लाखों लोग तड़प-तड़प कर मरेंगे। इसके फफोलों की तसवीर देखकर ही रूह काँप उठती है। स्माल पॉक्स में आँख गँवाने वाले अनेक लोगों को निकट से देखने-जानने के कारण उस पीड़ा को समझता हूँ।

कामना करता हूँ कि यह महामारी शीघ्र नियंत्रित हो और भारत इसकी चपेट में आने से बच सके!

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