मधुमेह और मोटापे की अचूक दवा: उपवास और सैर

शिवकांत
शिवकांत लंदन से

ऋषि आत्रेय को भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद का प्रणेता माना जाता है। एक दिन उनके शिष्यों ने उनसे पूछा, आचार्य! क्या कोई ऐसी दवा है जिससे हर रोग का इलाज हो सके? ऋषि आत्रेय ने मुस्करा कर कहा, हाँ है। शिष्यों के अचरज और उत्सुकता का ठिकाना न रहा। आचार्य ने कहा, ‘आहारप्रभवा रोगा लङ्घनं परमौषधम्।’ यानी उपवास रखना या निराहार रहना ही सबसे बड़ी दवा है क्योंकि आहार ही बीमारियों की जड़ है। ज़्यादातर बीमारियाँ हमारे आहार के दोषों या उसकी मात्रा से जन्म लेती हैं।

आज महामारी की तरह फैल रही मधुमेह, जिगर, पेट और दिल की बीमारियाँ और मोटापा आचार्य अत्रेय की बात को वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित करते हैं।

भुखमरी की समस्या को दूर करने के लिए पिछली दो सदियों से हम खेती, पशुपालन का औद्योगीकरण और भोजन का प्रसंस्करण करते आ रहे हैं। भोजन की बढ़ती प्रचुरता और बेहतर होते जीवन स्तर के कारण हम ज़रूरत से ज़्यादा बार और मात्रा में खाने लगे हैं। प्राकृतिक पदार्थों को छोड़ कृत्रिम रूप से तैयार प्रसंस्कृत पदार्थ खानेलगे हैं जिन्हें पचाने के लिए हमारा शरीर बना ही नहीं है।

ज़रूरत से ज़्यादा बार और मात्रा में खाने और मशीनों और रसायनों से प्रसंस्कृत कृत्रिम भोजन करने के साथ-साथ हमने लंबे उपवास करना और भोजनों के बीच लंबा अंतराल रखना छोड़ दिया है। इसकी वजह से हमारे पाचन-तंत्र को अपनी देखभाल करने और शरीर को अपनी सफ़ाई और मरम्मत करने का समय नहीं मिल पाता है। कृत्रिम और प्रसंस्कृत पदार्थों को खाने करने की वजह से शरीर में विकार बढ़ रहे हैं और मधुमेह, जिगर, पेट और दिल के रोगों और मोटापे को जन्म देते हैं।

अकेले भारत में ही लगभग आठ करोड़ लोग मधुमेह से पीड़ित हैं। यूरोप के मधुमेह शोधपत्र डायबीटोलोजिया में प्रकाशित एक नए शोध के अनुसार 2045 तक यह संख्या बढ़कर साढ़े 13 करोड़ हो जाने की संभावना है। इस वक़्त बीस साल की उम्र वाले युवाओं में से 55 प्रतिशत और युवतियों में से 65 प्रतिशत के जीवन में आगे चल कर मधुमेह केरोगी बन जाने की संभावना है। इनमें से 95 प्रतिशत लोगों कोइंसुलिन की मात्रा बढ़ने से होने वाली टाइप-2 के मधुमेह की बीमारी होगी। डॉक्टर मधुमेह को भारत की मौन महामारी कहने लगे हैं।

मधुमेह की बीमारी से गुर्दे, जिगर और पेट की और बहुत सी बीमारियों को जन्म देती है। पेट के इर्द-गिर्द चर्बी जमा होने लगती है और वज़न बढ़ने लगता है। रक्तचाप और दिल की बीमारियाँ भी घेरने लगती हैं। डॉक्टरों का मानना है कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर में मृत्यु दर ऊँची रहने का एक कारण मधुमेह की बीमारी रहा। क्योंकि भारत में लोग नियमित रूप से ख़ून की जाँच नहीं कराते। इसलिए मधुमेह की बीमारी के कगार पर पहुँचने और बीमारी के आरंभिक दौर में पहुँचने के बावजूद उन्हें अपनी बीमारी का पता नहीं होता।

सवाल उठता है कि भारत में मधुमेह के महामारी का रूप धारण करने की वजह क्या है? शरीर और आहार विशेषज्ञ इसके चार कारण गिनाते हैं। पहला, हम शरीर की ज़रूरत से ज़्यादा और ज़्यादा बार खाने लगे हैं। दूसरा, मशीनों और मोटरों ने जीवन आसान बना दिया है। मेहनत करनेऔर चलने-फिरने की ज़रूरत नहीं रही है। इसलिए भोजन से मिलीकैलरी या ऊर्जा पूरी तरह ख़र्च नहीं हो पाती। तीसरा, भोजन में प्रसंस्कृतपदार्थों, चीनी और रसायनों की मात्रा बढ़ गई है। चौथा, हमने उपवास रखना और खाने के बीच अंतराल रखना बंद कर दिया है और हम नियमित रूप से व्यायाम नहीं करते।

चौथा कारण ही इस बीमारी का सबसे अचूक और आसान इलाज भी है। बहुत सी आम शारीरिक बीमारियों के इलाज में उपवास और व्यायाम की भूमिका पर पिछले कई वर्षों से अमरीका, यूरोप और जापान में गंभीर शोध चल रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि ये तमाम शोध उन्हीं बातों को प्रमाणित कर रहे हैं जो भारत के वैद्य ढाई हज़ार साल पहले अपने आयुर्वेद के ग्रन्थों में लिख गए हैं। नियमित रूप से उपवास रखने से हमारे पाचन तंत्र में मुस्तैदी आती है। इन्सुलिन का स्तर नियंत्रण में रहता हैइसलिए मधुमेह नहीं होता।

सबसे बड़ी बात यह होती है कि हमारी कोशिकाएँ अपनी सफ़ाई और कचरे को रिसाइकल करने लगती हैं। जिसे ऑटोफ़जी या स्वपाचन कहते हैं। इससे केंसर नहीं होते और बुढ़ापे की रफ़्तार धीमी पड़ती है।सूजन और उससे होने वाली बीमारियाँ नहीं होतीं। हमारे दिमाग़ में नई कोशिकाएँ और नए संपर्क जाल बनने लगते हैं। जिसकी वजह से भूलने की बीमारी और पार्किन्संस जैसी बीमारियों की संभावना कम हो जाती है। पेट की बीमारियाँ नहीं होती। पेट के आसपास चर्बी जमा नहीं होती इसलिए वज़न भी नहीं बढ़ता।

सबसे बड़ी बात यह होती है कि हमारी कोशिकाएँ अपनी सफ़ाई और कचरे को रिसाइकल करने लगती हैं। जिसे ऑटोफ़जी या स्वपाचन कहते हैं। इससे केंसर नहीं होते और बुढ़ापे की रफ़्तार धीमी पड़ती है।सूजन और उससे होने वाली बीमारियाँ नहीं होतीं। हमारे दिमाग़ में नई कोशिकाएँ और नए संपर्क जाल बनने लगते हैं। जिसकी वजह से भूलने की बीमारी और पार्किन्संस जैसी बीमारियों की संभावना कम हो जाती है। पेट की बीमारियाँ नहीं होती। पेट के आसपास चर्बी जमा नहीं होती इसलिए वज़न भी नहीं बढ़ता।

उपवास के फ़ायदों की जानकारी इंसान को बहुत प्राचीन काल से है। इसीलिए लगभग सारे धर्मों और रीति-रिवाजों में उपवास की परंपरा पाई जाती है। लेकिन धार्मिक परंपराओं के उपवास उस प्रक्रिया से काफ़ी दूर हो चुके हैं जिनकी बात आज का विज्ञान और प्राचीन आयुर्वेद करते हैं। धार्मिक उपवासों में उपवास के नाम पर ऐसे फलाहारों का या जंगली अनाजों से बने आहारों का चलन हो गया है जिनमें औसत आहार से ज़्यादा शक्कर, कार्बोहाइड्रेट और चिकनाई होती है। निराहार उपवास करने वालों के उपवास की अवधि कम होती है जिसकी वजह से शरीर में स्वपाचन की वह प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाती जिससे फ़ायदा होता है।

आयुर्वेद की तरह ही आज का विज्ञान दो तरह के उपवासों की बात करता है। भोजन के बीच अंतराल का रोज़ रखा जाने वाला उपवास और 36 घंटों से लेकर 168 घंटों तक रखा जाने वाला एक दिन से सात दिन तक का उपवास। भोजन के बीच अंतराल रखने के दैनिक उपवास को 8-16 का उपवास भी कहते हैं। इसमें आप दिन के किन्हीं आठ घंटों के भीतर एक या दो बार भोजन करते हैं और शेष बचे 16 घंटों में पानी और बिना दूध व चीनी की चाय या कॉफ़ी के अलावा कुछ नहीं लेते। दैनिक उपवास रखने वाले लोग आम तौर पर दोपहर के 12 बजे से लेकर शाम के आठ बजे के बीच दोपहर और शाम का भोजन कर लेते हैं। नाश्ता नहीं करते।

वास्तव में देखा जाए तो 8-16 का दैनिक उपवास कोई उपवास नही है। केवल अपनी भोजन की दिनचर्या को आदिम मानव की उस दिनचर्या से मिलाने का प्रयास है जिसमें रहकर हमारे शरीर का विकास हुआ है। धरती पर मानवजाति का इतिहास करीब 25 लाख वर्ष पुराना यानी बारह हज़ार पीढ़ियों का है। खेती को शुरू हुए दस हज़ार साल या 500पीढ़ियाँ गुज़री हैं और खाद्य पदार्थों का औद्योगीकरण हुए मात्र 200 साल या दस पीढ़ियाँ गुज़री हैं। यानी पाँच सौ पीढ़ी पहले तक खेती भी नहीं थी। लोगों को मुश्किल से एक वक़्त खाने को मिलता था और वह भी दिन के समय। हमारे शरीर और जीनों का विकास उसी के अनुरूप हुआ है।

खेती और पशुपालन की शुरुआत के बाद पिछली 500 पीढ़ियों से इंसान ने भोजन जमा करना और दिन में एक से अधिक बार खाना शुरू किया। लेकिन आज हालत यह है कि हम सारा दिन कुछ-न-कुछ खाते-पीते ही रहते हैं। नाश्ते, दोपहर और रात के भोजन के अलावा, कभी चाय-कॉफ़ी, कभी चिप्स, कभी चाट-पकोड़े और कभी दूसरे पेय। हमारे पेट में जैसे ही कुछ भी जाता है, हमारे पाचन तंत्र को काम पर जुट जाना होता है। सब से पहले भोजन की ऊर्जा को कोशिकाओं तक पहुँचाने के लिए इन्सुलिन की मात्रा बढ़ती है। पाचन की क्रिया, शरीर के रख-रखाव और हमारी गतिविधियों में ख़र्च होने के बाद जो ऊर्जा बच जाती है उसे संकट की घड़ी में इस्तेमाल करने के लिए चर्बी में बदल कर जमा कर लिया जाता है।

इसलिए रोज़मर्रा की खपत से ज़्यादा ऊर्जा देने वाला भोजन करने से शरीर में संकट काल के लिए चर्बी जमा होने लगती है। जो अक्सर पेट, कूल्हों और गर्दन के आस-पास जमा होती है। चर्बी से वज़न बढ़ने लगता है। हमारी कोशिकाएँ भी लगातार मिल रही ऊर्जा की भरमार की वजह से अपनी सफ़ाई और जमा हो रहे कचरे को रिसाइकल करने का काम बंद कर देती हैं जिस की वजह से तरह-तरह के विकार, अंगों की सूजन और केंसर जैसी बीमारियाँ पनपने लगती हैं। उपवास यह सब रोककर शरीर में वह प्रक्रिया शुरू करता है जिसके प्रभाव से कोशिकाएँ अपनी सफ़ाई, रिसाइकलिंग और डीएनए की मरम्मत का काम शुरू कर देती हैं।

इस प्रक्रिया को ऑटोफ़जी या स्वपाचन कहा जाता है जिसके लाभ पर अमरीका और यूरोप में काफ़ी शोध हो रहा है। यह प्रक्रिया शुरू करने के लिए कम से कम 24 घंटे निराहार रहना ज़रूरी है। क्योंकि उपवास के पहले 24 घंटों में हमारा शरीर ख़ून और जिगर में ग्लाइकोजन और प्रोटीनों के रूप में जमा ऊर्जा का इस्तेमाल करता है। 24 घंटे के उपवास के बाद इंसुलिन की मात्रा घटने लगती है। इंसुलिन की मात्रा घटने से शरीर में जमा चर्बी ऊर्जा में बदलने के लिए तैयार होने लगती है। हमारा जिगर चर्बी को कीटोन रसायनों में बदलता है जिन्हें कोशिकाएँ ग्लूकोज़ की तरह इस्तेमाल कर सकती हैं।

एक दिन या 24 घंटे के उपवास के बाद उपवास जारी रखने से उसके लाभ उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं। शरीर अपने भीतर जमा चर्बी से बनी कीटोन ऊर्जा के सहारे चलने लगता है। इंसुलिन का स्तर कम हो जाता है लेकिन ख़ून में ग्लूकोज़ की पर्याप्त मात्रा बनी रहती है। इसकी वजह से थकान के बजाय हल्कापन और स्फूर्ति का अनुभव होता है। कोशिकाएँ अपनी सफ़ाई और कचरे की रिसाइकलिंग के काम में जुट जाती हैं। विकास के होरमोन बनने लगते हैं जिनसे त्वचा स्वस्थ रहती है। व्यायाम करने पर माँसपेशियाँ बनने लगती हैं। बुढ़ापे के लक्षण कम होने लगते हैं। याददाश्त बेहतर होने लगती है और मन की एकाग्रता बढ़ने लगती है।

ये सारे लाभ तभी मिलते हैं जब एक दिन से लंबे उपवास के साथ-साथ सैर करने जैसे हल्के व्यायाम भी जारी रखे जाएँ। उपवास और हल्के व्यायाम के मेल से पेट की चर्बी और वज़न में कमी आती है। हल्के व्यायाम के साथ तेज़ साइकिल चलाने या सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने जैसे तीव्रता वाले व्यायाम रुक-रुक कर, 15-15 सैकेंड के लिए किए जाएँ तो वज़न घटाने में और मदद मिलती है। उपवास के दौरान शरीर में खनिजों की उचित मात्रा बनाए रखने के लिए ख़ूब पानी पीना आवश्यक है। इसीलिए इसे जल-उपवास भी कहते हैं। कमज़ोरी महसूस होने पर पानी में चुटकी भर नमक डाल कर पीने से मदद मिलती है।

शरीर वैज्ञानिकों का कहना है कि 8-16 के दैनिक उपवास के साथ सप्ताह में एक दिन 36 घंटे का उपवास करने से मधुमेह, पेट की चर्बी, बढ़ते वज़न और कई गंभीर बीमारियों से छुटकारा पाया जा सकता है। जिनका वज़न इतने से भी न घटे वे दिन में एक बार खाने और दो दिन में एक बार खाने जैसे उपवास भी कर सकते हैं। केंसर के रोगियों पर किए गए शोधों से यह भी पता चला है कि तीन दिन का उपवास करने के बाद की जाने वाली कीमोथरेपी से रोगी की स्वस्थ कोशिकाओं पर कम बुरा असर पड़ता है। इसलिए अब केंसर के इलाज के लिए भी लंबे उपवासों की उपयोगिता पर काम हो रहा है।

पर ध्यान रहे कि आयुर्वेद और आधुनिक विज्ञान के अनुसार ये उपवास इंसुलिन की कमी से होने वाले टाइप-1 मधुमेह के रोगियों, गर्भवती महिलाओं और किशोरों के लिए ठीक नहीं हैं। उपवासों और व्यायाम के साथ ही खान-पान पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। आहार वैज्ञानिकों का मानना है कि सारे प्रसंस्कृत तेल और उनमें तले हुए भोजन हानिकारक हैं। जैतून, नारियल और सरसों, तिल और मूँगफली के कच्ची घानी के तेल और मक्खन व घी जैसी प्राकृतिक चिकनाइयाँ शरीर के लिए बेहतर हैं। इसी तरह औद्योगिक फ़ॉर्मों में पाले गए पशुओं के मांस और मुर्गियों के अंडों से खुले चरागाहों वाले घास पर पले जानवरों के मांस और खुले मैदान में पली मुर्गियों के अंडे बेहतर हैं। खाने-पीने की हर तरह की प्रसंस्कृत चीज़ और चीनी हमारे शरीर के लिए बेहद हानिकारक है। ख़ास तौर पर चीनी जो पूरी तरह कृत्रिम और प्रसंस्कृत चीज़ है।

उपवास खोलते समय किए जाने वाले भोजन का पाचन भी दिन भर खाने-पीने के बाद किए जाने वाले भोजन से अलग होता है। हमारे शरीर के लिए भोजन पचाना अपने-आप में काफ़ी श्रम का काम है। उपवास के बाद किए जाने वाले भोजन को पचाने में शरीर को अपेक्षाकृत कम श्रम करना पड़ता है। क्योंकि एक तो उपवास के बाद पाचन तंत्र मुस्तैद रहता है। दूसरा इंसुलिन का स्तर नीचा रहने के कारण हम औसत ख़ुराक से कम ही खा पाते हैं। इसलिए आयुर्वेद और आहारशास्त्र बताता है कि लंबे उपवास के बाद धीरे-धीरे हल्का भोजन ही करना चाहिए। 

उपवास, व्यायाम और भोजन में प्रसंस्कृत चीज़ों की जगह प्राकृतिक चीज़ें खाने के संयोग से आज महामारी की तरह फैल रहे मधुमेह, पेट और जिगर के रोगों और मोटापे से छुटकारा पाया जा सकता है। याद रखिए जैसे आपको सप्ताह में एक दिन काम से छुट्टी लेने की ज़रूरत महसूस होती है उसी तरह आपके पाचन तंत्र को भी सप्ताह में एक दिन छुट्टी की ज़रूरत है जो उसे केवल उपवास से ही मिल सकती है।

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