आदमी और कुर्सी
—डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी। प्रयागराज
आदमी
और कुर्सी पर बैठे आदमी
में अंतर होता है
जमीन पर बैठा आदमी
या पैदल चलता हुआ आदमी
भूख के लिए
रोटी तलाशता आदमी
कुदरत का सताया आदमी
निखालिस आदमी होता है
जैसे ही कोई आदमी
जब कुर्सी पर बैठ जाता है
तो उसको एक अदद दुम
नुकीले सींग धारदार दांत
बघनखे से नाख़ून उग आते हैं
निखालिस आदमी को
कुदरत ने जो दांत और नाख़ून दिए
वे साग रोटी खाने गुदगुनाने
ज्यादासे ज्यादा चिकोटी काटने
के लिए पर्याप्त होते हैं
कुर्सी पर बैठे आदमी को
साग रोटी के अलावा
बाकी सब कुछ खाना होता है
कुर्सी पर बैठा आदमी
कुर्सी की आत्मा की पुकार पर
खाने चबाने खरबोटने काटने
आदि आदि के लिए
दुम सींग दांत नाख़ून का
जितना अधिक इस्तेमाल
करता जाता है
उद्विकास के सिद्धांत के अनुसार
उसके कुदरती अंग
लापता होते जाते हैं
कुर्सी पर आदमी के बजाय
दुम सींग दांत और नाख़ून ही
बैठे नजर आते हैं
सत्ता से अभिसार
हे धर्म दर्शन के तत्ववेत्ता
समता समानता के भाष्यकार
बंधुता के चिंतक अखंडता के पोषक
जब सत्ता के शिखर तक पहुँचने के लिए
राजनीती के महारथी
मूल्यों के विशाल तरुओं को
काट काट अपने रास्ते बना रहे थे
आप सब प्रमादग्रस्त
पाखण्ड और रूढ़ियों के मोदक
लोक को प्रसाद के रूप में बाँट रहे थे
सत्ता की महत्वाकांक्षा के इन्ही राहों पर
दम्भ और अहंकार के उन्मत्त अश्वों पर सवार हो
विचारों के लहलहाते फसलों को
रौंदते हुए विजयी सेना घोष करते
सिंहासन की और बढती रही
साहित्य कला संस्कृति
धर्म अध्यात्म के साधकों के कन्धों पर
राजनीति ने सत्ता से अभिसार हेतु
अपनी पालकी उठवाई है
निःशब्दता ऐसी छाई है
शाप भी मुरझाई है