महेश बाबा , मन्दिर विध्वंसकों से बचे पर क्या जमीन लोभियों से बच पायेंगे ?
दिनेश कुमार गर्ग
कौशाम्बी जनपद में ज्ञात-अज्ञात इतिहास की धरोहरें लगभग हर गांव मोहल्ले में ध्वंसावशेष के रूप में बिखरी हैं और उन्हीं में से एक हैं महेश बाबा जो कौशाम्बी-चित्रकूट मार्ग पर बसे ग्राम टेंवां में हैं ।जमीन सरकारी-सार्वजनिक हो या मन्दिर-तीर्थ की या फिर जंगल की , भूमि-लोभियों की निगाहें सब जगह लगी हैं ।
महेश बाबा की वर्तमान दशा देखकर लगता है कि समय के सुपरफास्ट परिवर्तन के दौर में हम अपने स्थानीय अतीत की धरोहरों से कटते जा रहे हैं या फिर उनके सुन्दर पर्यावरण को नष्ट करने पर आमादा हो गये हैं । मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि मुझे अपने क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण स्थलों में अतीत से दूरी और पर्यावरण विनाश ही दिख रहा है । एकदम शीतल , हरे-भरे माहौल में पडे महाश बाबा स्थल पर भूमि कब्जाने वाले सक्रिय दिख रहे हैं ।
टेंवां गांव से पश्चिम माइनर नहर के किनारे मात्र डेढ-दो एकड के अवशिष्ट वन खण्ड में महेश बाबा का स्थान है । भगवान शिव का एक नाम महेश है । वर्तमान में महेश बाबा के इतिहास के बारे में टेवां की 6 दशक पुरानी मेरी पीढी के लोग भी ठीक सा बता नहीं पाये तो मैंने टेवां गांव के वयोवृद्ध लल्लू तिवारी से सम्पर्क किया ।
अगर असल पूरा महाश बाबा स्थल की भूमिधरी उन्हीं के पास है और धनाभाव के कारण उन्होंने व्यवस्था एक बिजनेसमैन को दे दिया है । उन्होंने बताया कि सुरम्य जंगली पृष्ठभूमि में एक बडे तालाब के किनारे एक चबूतरे पर शिवलिंग और दुबला सा नन्दी रखा रहता था । गांव और आस-पास के क्षेत्र में बडी मान्यता रही है महेश बाबा की ।
वहां अनेक तरह के जंगली वृक्ष रहे जैसे बवासीर की दवा मकरतेन्द का वृक्ष, पेट विकारों में व सर्पदंश में काम आने वाला ढेरा का वृक्ष , जामुन, गुलर, पाकड़ , बरगद, पीपल, नीम , कनेर आदि हैं । एक छोटा सा भूखण्ड जंगली वृक्ष मकरतेन्द और ढेरा के लिए आरक्षित है , पर सवाल है है कि कृषि भूमि के लालची कब तक सब्र करेंगे और लोभियों से कब तक विलुप्त प्राय वृक्ष प्रजाति बची रह पायेगी ?
इस दो एकड के सुरम्य स्थान में अब उसके प्राचीन रूपरेखा से जमकर छेड छाड चल रही है । ईंटा-लोहा-सीमेण्ट के ढेर लगाकर अपना नाम अमर करने वाले लोभी खूब सक्रिय हो गये हैं । स्थान भगवान शंकर का है पर मन्दिर अलग अलग देवताओं के बन रहे हैं । नैसर्गिक हरे विस्तार को समेटकर अब इस स्थान को कांक्रीट संकुल में बदलने वाली मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति छा गयी है ।
तालाब में पानी है , पुष्पित कमल हैं, पर कुछ मूर्खों ने उसमें जलकुम्भी भी लाकर डाल दिया है जिससे अब वह तालाब सिकुड़ रहा है ।
चित्र में टेवां गांव के लल्लू तिवारी हैं जिन्होंने महेश बाबा का 70 वर्ष पूर्व का शब्द चित्र मुझे दिया । उन्होंने ही मुझे वृक्षों का परिचय दिया और आतिथ्य में पेठा और ताजा ठंडा पानी भी पिलाया ।
मेरे गांव में भी झारखंडी मैय्या के स्थान पर ढेरा का एक प्रचीन वृक्ष है जिसे मैं सन् 1962 से जब से मैं तब के निर्जन मन्दिर में जाने की क्षमता हासिल कर सका , तब से देख रहा हूं । सन् 1962 में मैं 4 साल का रहा होऊंगा । तब झारखण्डी मय्या का स्थान एक चबूतरे पर चार दीवारी के अन्दर था और बाहर रूस(वासा) नामक वनस्पति के जंगल हुआ करता था । निकटवर्ती तालाब के किनारे अनेक कपित्थ (कैथा) , जामुन, आम के पेड थे । आबादी और बस्ती के विस्तार में सब कुछ नष्ट हो चुका है । झारखण्डी मैय्या का स्थान भर सुरक्षित बचा है जिसकी सेवा गांव के कुछ नवयुवक श्री अवनीश दुबे के नेतृत्व में कर रह रहे हैं । गांव के भाँट विप्र और माली भी इसमें सहयोग करते हैं।
आशा जनक यही है कि नयी पीढी के कुछ नवयुवक इन धरोहरों के बारे में सजग हुए हैं और स्थान की सुरक्षा और पवित्रता बनाये रखने को आवाज भी उठाने लगे हैं ।