महात्मा गाँधी और हिन्दी : सौ साल पहले
डॉ0 रवीन्द्र कुमार*
“हमारी राष्ट्रभाषा के क्या लक्षण होने चाहिएँ? १–वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए सरल होनी चाहिए; २–उस भाषा द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कार्य हो सकना चाहिए; ३–उस भाषा को भारत के अधिकांश जन बोलते हों; ४–वह भाषा राष्ट्र के लिए सरल हो; (तथा) ५–उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक अथवा कुछ समय तक रहने वाली स्थिति पर बल न दिया जाए I अंग्रेजी भाषा में इनमें से एक भी लक्षण नहीं है I (इन पाँच में से) पहला लक्षण मुझे अन्त में रखना चाहिए था I परन्तु मैंने उस पहले इसलिए रखा है कि वह लक्षण अंग्रेजी भाषा में दिखाई पड़ सकता है I गम्भीरता से विचार करने पर हम देखेंगे कि आज भी शासकीय सेवकों के लिए वह भाषा सरल नहीं है I ये पाँचों लक्षण रखने वाली हिन्दी (भाषा) की प्रतिस्पर्धा करने वाली अन्य कोई भाषा (भारत में) नहीं है…हिन्दी के धर्मोपदेशक और उर्दू के मौलवी सम्पूर्ण भारत में अपने भाषण हिन्दी में ही देते हैं I” –महात्मा गाँधी
वर्तमान पीढ़ी में से कदाचित् ही कोई जानता होगा कि गाँधीजी ने ये विचार २० अक्टूबर, १९१७ ईसवी को भरूच में आयोजित द्वितीय गुजरात शिक्षा परिषद की अध्यक्षता करते हुए अपने सम्बोधन में व्यक्त किए थे I लगभग एक सौ वर्ष पूर्व व्यक्त उनके विचारों से हम आज भी यह भली-भाँति समझ सकते हैं कि राष्ट्रभाषा के रूप में भारत के लिए हिन्दी की महत्ता को गाँधीजी कितना पहचानते एवं स्वीकार करते थे I
यही नहीं, इससे पूर्व, लगभग दस दस माह पहले २६ से ३० दिसम्बर १९१६ ईसवी के मध्य अम्बिकाचरण मजूमदार की अध्यक्षता में लखनऊ में आयोजित काँग्रेस के एक ऐतिहासिक अधिवेशन को गाँधीजी ने हिन्दी में सम्बोधित किया था और उसी अधिवेशन के समय उन्होंने यह तय किया था कि वे भविष्य में काँग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन को (जिस में भी वे भगीदारी करेंगे) हिन्दी में ही सम्बोधित करेंगे I उनकी उस प्रतिबद्धता का अन्य समकालीनों, विशेषकर अहिन्दीभाषी क्षेत्रों से आने वाले राष्ट्रीय नेताओं पर कितना प्रभाव पड़ा, परिणामस्वरूप उसने राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के स्वर्णकाल –गाँधीयुग में हिन्दी के भारतभर में उत्थान, प्रचार-प्रसार और राष्ट्रव्यापी बनने में कितना बड़ा योगदान दिया, वर्तमान पीढ़ी को उसे जानना चाहिए I हिन्दी प्रसार-प्रचार कार्य राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन का एक भाग बन गया था I स्वाधीनता आन्दोलन के गाँधीयुग में वह स्वाधीनता सेनानियों की गतिविधिओं के साथ जुड़ गया था I
मार्च, १९१८ ईसवी में गाँधीजी ने इन्दौर में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता की I अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का दृढ़तापूर्वक आह्वान किया I देशभर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु एक ऐतिहासिक पहल की I उन्होंने कुछ लोगों का चयन किया, जो देशभर में जाकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार कार्य को आगे बढ़ाएँ I चयनित लोगों में उनके सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी भी सम्मिलित थे और उन लोगों ने अपना कार्य द्रविड़ क्षेत्र –आज के तमिलनाडू से प्रारम्भ किया I
वर्ष १९१९ ईसवी से गाँधीजी ने देश के आम और खासजन को व्यापक रूप से जागृत कर हिन्दुस्तान की स्वाधीनता सुनिश्चित करने और भारतीय मार्ग से ही भारत के पुनर्निर्माण हेतु तैयार करने के उद्देश्य से दो सुप्रसिद्ध साप्ताहिकों का सम्पादन-प्रकाशन प्रारम्भ किया I उनमें से एक नवजीवन हिन्दी में था, जो बाद में हरिजनसेवक के रूप में सामने आया I प्रारम्भिक दिनों में नवजीवन तदुपरान्त हरिजनसेवक ने हिन्दी भाषा और साहित्य के माध्यम से देशव्यापी स्तर पर राष्ट्रीय संस्कृति एवं मूल्यों के संरक्षण और एकता के निर्माण में जो अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान दिया, वह आजतक अविस्मरणीय है I जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों से जुड़े विषयों, विशेषकर आमजन से जुड़ी समस्याओं व उनके निदान, तथा राष्ष्ट्रीय मुद्दों पर स्वयं महात्मा गाँधी और अन्य नेताओं, सार्वजनिक जीवन में संलग्न लोगों व विद्वानों के एक से बढ़कर एक आलेख हिन्दी भाषा में देशवासियों के समक्ष प्रस्तुत हुए I
वह कार्य अभूतपूर्व था I स्वयं हिन्दी भाषा के उत्थान एवं समृद्धि की दिशा में ठोस कदम होने के साथ ही राष्ट्रभाषा के रूप में इसके गौरव और प्रतिष्ठा का प्रकटीकरण भी था I राष्ट्रीय एकता के निर्माण में हिन्दी की भूमिका तथा योगदान का देशवासिओं से सुपरिचय करता था, आजतक भी कराता है I
ये कुछ एक उदहारण मात्र हैं, गाँधीजी के भारत के स्वाधीनता संग्राम में विधिवत –सक्रिय रूप में जुड़ाव के समय के और कुछ प्रारम्भिक वर्षों के, जब उन्होंने देश के लोगों को एकबद्ध करने और उन्हें विशुद्ध मानवता केन्द्रित राष्ट्रवाद, जो भारतीय राष्ट्रवाद का सच्चा परिचय है, की भावना से ओत-प्रोत करने का बीड़ा उठाया I अंग्रेजी साम्राज्यवाद से हिन्दुस्तान की मुक्ति के लिए अहिंसा-मार्ग चुना और इस हेतु जनैकता स्थापना एवं आमजन में राष्ट्रवाद की भावना के विकास के लिए हिन्दी की भूमिका, महत्ता और योगदान को प्राथमिकता से समझा, तदनुसार कार्य को आगे बढ़ाया I
हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार कार्य को, जैसा कि पहले भी उल्लेख किया है, भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन कार्यक्रम का एक भाग बनाया I इस कार्य में गाँधीजी स्वयं जीवनभर सक्रिय रहे I वे लोगों को, विशेषकर स्वाधीनता सेनानियों-रचनात्मक कार्यकर्ताओं को प्रेरित करते रहे I देशभर में हिन्दी प्रचार-प्रसार कार्य की प्रगति आख्याएँ नवजीवन में निरन्तर प्रकाशित होती रहीं I वह कार्य असाधारण था I हिन्दी के राष्ट्रव्यापी प्रसार-प्रचार और उत्थान की दिशा में एक मील के पत्थर के समान था I उस कार्य की बहुत बड़ी महत्ता को हम आज भी समझ सकते हैं I उससे सीख सकते हैं I दिशानिर्देश प्राप्त कर सकते हैं I
गाँधीजी का हिन्दी प्रेम और राष्ट्रभाषा के रूप में उनकी हिन्दी की स्वीकार्यता को किसी पुष्टि की आवश्यकता नहीं I वे देश के प्रत्येकजन से भी इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारने की अपेक्षा करते थे I उनका दृढ़तापूर्वक मानना था, “हिन्दी राष्ट्रभाषा है I उर्दू भी हिन्दी की शक्ति से ही उत्पन्न हुई है I हिन्दी (में ही वह क्षमता है कि वह) द्रविड़ जनता (सहित पूरे देश के लोगों के दिलों) में अविलम्ब घर कर सकती है I”
गाँधीजी जहाँ निश्चित रूप से यह मानते थे कि हिन्दी देश के अधिकांशजन द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, वहीं वे यह भी स्वीकार करते थे कि यह देश के लगभग सभी अहिन्दी भाषिओं द्वारा भी, न्यूनाधिक, समझ लिए जाने वाली भाषा है I इस प्रकार, यह देश के लोगों की जीवनरेखा है I इतना ही नहीं, देवनागरी लिपि के सम्बन्ध में उनका यह कहना था, “भारत के अधिकांश लोग उसे जानते हैं; मैं (इसीलिए) यह मानता हूँ कि इस बात का कोई प्रमाण देने की आवश्यकता (ही) नहीं है कि देवनागरी ही सर्वसामान्य लिपि (भी) होनी चाहिए I” अर्थात्, देश की सभी भाषाओं के लिए एक ही देवनागरी लिपि हो, जिससे देश की अनेकानेक समस्यायें सुलझेंगी, भाषायी विवाद निपटेंगे और लोगों में राष्ट्रीय एकता के लिए प्रतिबद्धता का श्रेष्ठ विकास होगा I
गाँधीजी का स्पष्ट कहना था कि हिन्दी देशवासिओं को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में पिरोने का सबसे सुदृढ़ आधार बन सकती है I देशवासिओं की वही एकबद्धता समन्वयकारी, विकासोन्मुख और विभिन्नताओं में एकता निर्माण करने वाली भारतीय संस्कृति को निरन्तर सुदृढ़ता प्रदान करते हुए हमारे विशिष्ट राष्ट्रवाद को देशवासियों के वृहद् कल्याण का माध्यम बनाते हुए वसुधैव कुटुम्बकम् अवधारणा को चरितार्थ कर सकती है I महात्मा गाँधी का हिन्दी को लेकर इतना विशाल और मानवीयता से भरपूर दृष्टिकोण था I
हिन्दी के सन्दर्भ में महात्मा गाँधी की चर्चा करते समय हमें हिन्दी भाषा के प्रति उनके आदर-सम्मान को स्मरण रखना चाहिए I हिन्दी के निधि-भंडार में उनके योगदान को श्रद्धापूर्वक नमन करना चाहिए I हिन्दी के प्रचार-प्रसार व उत्थानार्थ किए गए कार्यों, साथ ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने की उनकी कटिबद्धता से सीखना चाहिए, अतिविशेष रूप से उनकी उस अभिलाषा से, जिसमें वे हिन्दी भाषा को देश की सभी क्षेत्रीय-प्रान्तीय भाषाओं की संरक्षक –पालने-पोसने वाली माता के समान बनती भी देखना चाहते थे I
भारत में जितनी भी क्षेत्रीय-प्रान्तीय भाषाएँ हैं, स्थानीय बोलियाँ हैं, वे सभी उन्हें बोलने वालों के लिए प्राणप्रिय हैं; अंततः वे उनकी मातृभाषाएँ हैं I इसीलिए, २५ अगस्त, १९४६ ईसवी को हरिजनसेवक में यह उल्लेख करते हुए कि, “मेरी मातृभाषा में भले ही कितनी भी त्रुटियाँ क्यों न हों, मैं उससे उसी प्रकार चिपटा रहूँगा, जिस प्रकार अपनी माँ की छाती से“, उन्होंने स्थानीय-क्षेत्रीय भाषाओं की समान उन्नति का भी आह्वान किया और यह हार्दिक कामना की कि हिन्दी भारतीय संस्कृति की ही भाँति सबको समाहित करने वाली सिद्ध हो I कठोरता और एकांगिता से दूर रहकर देश की सदाबहार संस्कृति सदृश्य स्थापित हो और विशिष्ट हिन्दुस्तानी राष्ट्रवाद का सजीव उदहारण बनकर उभरे, तथा विश्वभर में भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की जय-जयकार हो I
महात्मा गाँधी के इस आह्वान व कामना को अपने मस्तिष्क-हृदयों में दृढ़तापूर्वक स्थापित कर हमें हिन्दी-सेवा –राष्ट्-सेवा, राष्ट्रीय एकता व समृद्धि के कार्य में जुटना चाहिए I यही हमारे लिए श्रेयस्कर होगा I गाँधीजी की हिन्दी परिकल्पना को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा I
*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित भारतीय शिक्षाशास्त्री प्रोफेसर डॉ0 रवीन्द्र कुमार मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I
****