मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम और रामराज्य
श्रीराम के राज्य –रामराज्य में “न्याय” शासन का आधार था। न्याय, नैतिकता और सत्य को प्रकट करता है I इसीलिए, रामराज्य पृथ्वी पर “ईश्वरीय राज्य” का प्रतीक था। राजाराम के नेतृत्व में संचालित शासन, आज की भाँति मतपत्रों के बहुमत से शासक के चुनाव न होने पर भी, एक श्रेष्ठ प्रजातंत्र था। इस तरह रामराज्य की व्याख्या कर रहे हैं ड़ा रवींद्र कुमार.
“रम” (रमना, निहित होना अथवा निवास करना) और “घम” (ब्रह्माण्ड का रिक्त स्थान) से निर्मित “राम”, सम्पूर्ण जगत में रमा हुआ, समस्त चराचर व दृश्य-अदृश्य में विराजमान वह शब्द है, जिससे सम्पूर्ण जगत की शोभा, एवं वैभव है। “राम” शब्द की अनुभूति, विचार और स्मृति से हृदय और मस्तिष्क की शुद्धता का मार्ग प्रशस्त होता है; धर्म पालन के लिए प्रतिबद्धता बलवती होती है। जीवन के सर्वाधिक मूल्यवान आभूषण “समानता” की वास्तविकता प्रकट होती है; समानता से ही जुड़े तीन अन्य अविभाज्य पहलुओं –न्याय, मानवाधिकार और स्वतंत्रता की मनुष्य की स्वाभाविक पात्रता सामने आती है।
एक और व्याख्या के अनुसार: “राम” शब्द में “रा” का अर्थ “आभा” या “प्रकाश” है; “म” का अभिप्राय “मैं” –”मेरा” है। इस प्रकार, अति साधारण भाव से “राम” शब्द का अर्थ हुआ, “मेरा प्रकाश”। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि “मैं राम से प्रकाशित हूँ; राम ही मेरी आभा, कान्ति अथवा प्रकाश है। राम मेरा पथप्रदर्शक, निर्देशक और आदर्श है। राम द्वारा दिखाए गए मार्ग के अनुसरण से ही मेरा कल्याण होगा, मेरा जीवन सार्थक हो सकेगा।“ यह उस सत्यता की ही पुष्टि है, जो महर्षि वशिष्ठ द्वारा कोशल नरेश दशरथ के पुत्रों के नामकरण के अवसर पर प्रकट की गई थी। महर्षि ने कहा था:
“जो आनंद सिंधु सुखरासी/
सीकर तें त्रैलोक सुपासी//
सो सुखधाम राम अस नामा।
अखिल लोक दायक बिश्रामा//”
भाव यह कि “ये जो आनन्द के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस(आनन्द सिन्धु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम “राम” है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शान्ति प्रदानकर्ता है।“
“राम”, इस प्रकार, आदिकाल से ही भारतीयों के मस्तिष्क एवं हृदयों में बसा एक वह नाम है, जो उनके जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। वह मानवता को, उसके विशुद्ध कल्याण के उद्देश्य से, सच्चरित्रता –न्यायसंगत कार्य-प्रक्रिया से जीवन-पथ पर अग्रसर रहने की निरन्तर प्रेरणा देता है।
श्रीराम का परिचय एक ऐसे परम वीर, महाप्रतापी और आदर्श राजा के रूप में भी है, जो स्वयं ब्रह्म के प्रतीक –धर्मरक्षक और पालक थे। श्रीराम धर्म की प्रतिमूर्ति –मर्यादापुरुषोत्तम थे I पुत्र, पति, भ्राता, जमाई, पिता, मित्र और संरक्षक सहित प्रत्येक सम्बन्ध में वे अनुकरणीय आदर्श थे; आजतक भी हैं। श्रीराम एक सेतु थे। उन्होंने दो महापुरुषों, दशरथ और जनक को जोड़ा। उसी प्रकार दो महर्षियों, वशिष्ठ तथा विश्वामित्र के मध्य सेतु का कार्य किया। वे जगत से बुराई का अन्त करने वाले तथा सत्य और नैतिकता की पराकाष्ठा थे; उनके शासन –रामराज्य में, प्रत्येक को, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्याय उपलब्ध था। यहाँ तक कि रामराज्य में एक गरीब नागरिक के लिए भी, किसी महंगी और विस्तृत प्रक्रिया के बिना, शीघ्रता से न्याय-प्राप्ति की सुनिश्चितता थी।
श्रीराम के राज्य –रामराज्य में “न्याय” शासन का आधार था। न्याय, नैतिकता और सत्य को प्रकट करता है I इसीलिए, रामराज्य पृथ्वी पर “ईश्वरीय राज्य” का प्रतीक था। राजाराम के नेतृत्व में संचालित शासन, आज की भाँति मतपत्रों के बहुमत से शासक के चुनाव न होने पर भी, एक श्रेष्ठ प्रजातंत्र था, जहाँ प्रत्येक नागरिक –स्त्री या पुरुष, किसी भी प्रकार के भेदभाव और बाधा के बिना अधिकारपूर्वक न्याय की माँग कर सके, और उसे शीघ्र न्याय सुलभ हो, तो ऐसे शासन से श्रेष्ठ और कौनसा लोकतंत्र होगा? बाधारहित न्याय सुलभता व्यक्ति की समानता की द्योतक होती है, और नागरिक समानता जनतंत्र का प्रमुख आधार।
ऐसे शासन में किसी के शोषण की सम्भावना शेष नहीं रहती और व्याप्त शान्ति के वातावरण में हर एक की उन्नति का मार्ग प्रशस्त रहता है। श्रीराम के नेतृत्व में शासन, रामराज्य, इसीलिए, श्रेष्ठ लोकतंत्र था। वह आजतक भी आदर्श शासन के रूप में स्वीकार किया जाता है। आज भी भारत ही नहीं, विश्वभर में करोड़ों जन रामराज्य की कल्पना करते हैं; पूर्णतः न्याय को समर्पित और सर्वकल्याणकारी श्रीराम के शासन का भाग होने की कामना करते हैं।
करोड़ों जन श्रीराम में, एक आराध्य देव और आदर्श राजा, दोनों ही रूपों में, अपार श्रद्धा और आदर रखते हैं। अपने एक-से-बढ़कर दूसरे महागुण, सत्कर्मों और स्थापित आदर्शों के कारण श्रीराम हजारों वर्षों से आम और खास जन के हृदयों में वास करते हैं। वे जोड़ते हैं। समन्वय और सौहार्द का निर्माण करते हैं।
आज भी करोड़ों जन की दिनचर्या “राम-राम” के उच्चारण से प्रारम्भ होती है। श्रीराम दिन भर में न जाने कितनी बार लोगों की कुशल-क्षेम के केन्द्र में होते हैं। जीवन-मुक्ति द्वार तक पहुँचने का माध्यम बनते हैं; “अन्ततः न्याय मिलेगा”, श्रीराम, व्यक्ति की इस प्रबल आशा का आधार बनते हैं। श्रीराम की कृपा की कामना करते समय, उनके द्वारा स्थापित न्याय रूपी आदर्श से साक्षात्कार करना चाहिए।
अपने जीवन-व्यवहारों में न्याय को उच्चतम स्थान पर रखने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। सजातीय समानता की सत्यता को स्वीकार कर, किसी भी रूप में किसी के भी शोषण को, सबसे बड़े पापों और अन्यायों में एक के रूप में लेते हुए, इसके निषेध के लिए दृढ़निश्चय करना चाहिए। ऐसा करना श्रीराम के आदर्शों को अपनाने –प्रभु के मार्ग पर चलने के समान होगा।
*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I
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