लोकपाल : संपूर्ण क्रांति का सपना और महंगी ख़ामोशी

लोकपाल की चुप्पी केवल संस्थागत असफलता नहीं,बल्कि क्रांति के अधूरे सपने की पीड़ा है।

रामदत्त त्रिपाठी

Ram Dutt Tripathi
Ram Dutt Tripathi , senior journalist

साल 1974–75 में जब हमने जयप्रकाशनारायण (जेपी) के नेतृत्व में संपूर्णक्रांतिआंदोलन में भाग लिया था,तो हमारा उद्देश्य केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था की खोज थाजहाँ शासन जनता के प्रति जवाबदेह और नैतिक हो।

उस आंदोलन की एक प्रमुख मांग थी — लोकपालकीस्थापना,जो सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की जवाबदेही तय करे और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाए।

आपातकाल (1975–77) के दौरान मैं खुद 18 महीने जेल में रहा।हमें विश्वास था कि यह कुर्बानी लोकतंत्र को मज़बूत करेगी और भविष्य में कोई सरकार जनता की आवाज़ को दबा नहीं सकेगी।

लेकिन आज लगभग पचास साल बाद जो लोकपालहमारे सामने है,वह उस सपने की फीकी परछाईं बन चुका है।

लोकपाल कानून और जनता की उम्मीदें

2011 में अन्नाहज़ारे के नेतृत्व में जब जनलोकपालआंदोलन उठा, तो ऐसा लगा मानो जेपी की पुकार फिर से गूंज उठी हो।अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण, संतोष  हेगड़े और लाखों नागरिकों की भागीदारी सेदेश में पारदर्शिता और जवाबदेही की नई आशा जगी।

जनता के दबाव में संसद ने लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 पारित किया, जो 16 जनवरी 2014 से लागू हुआ।लेकिन इस कानून को लागू करने और पहला लोकपाल नियुक्त करने में पाँच साल लग गए।

मार्च 2019 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्रघोष पहले लोकपाल बने।उनके बाद जस्टिस प्रदीप कुमार मोहंती ने अंतरिम रूप से कार्यभार संभाला।वर्तमान में जस्टिस अजय माणिकराव खानविलकर (मार्च 2024 से) लोकपाल हैं।

मेरा अनुभव : लोकायुक्त के समक्ष भी वही कहानी

मैं यह बात केवल सिद्धांत में नहीं कह रहा हूँ।1986 में मैंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन लोकायुक्त, न्यायमूर्ति मुर्तज़ा हुसैन के समक्षएक मंत्री और कई वरिष्ठ अफसरों के खिलाफ औपचारिक शिकायत दर्ज कराई थी।

मेरे पास दस्तावेज़ी सबूत और विश्वसनीय गवाहों के बयान थे।एक प्रमुख गवाह थे श्री धर्म सिंह रावत, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी।लेकिन उनका बयान दर्ज होने से पहले ही लोकायुक्त ने बिना कोई कारण बताए केस बंद कर दिया।

जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि जिन अफसरों पर आरोप थे, उन्होंने लोकायुक्त कार्यालय के कर्मचारियों पर प्रभाव डाल दिया था।यह जनता के प्रहरी और सत्ता के संरक्षक के बीच की मिलीभगत थी।

यह मामला बाद में उत्तर प्रदेश विधान सभा में भी विपक्ष के नेता सत्यपाल सिंह यादव द्वारा उठाया गया,

लेकिन सरकार की ओर से कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई।लोकायुक्त, जिसे जनता की नैतिक आवाज़ होना चाहिए था, वह नौकरशाही और राजनीतिक दबाव में मौन हो गया।

प्रेस में दर्ज साक्ष्य : द हिंदू की रिपोर्ट

मेरी यह शिकायत केवल कार्यालयी कार्यवाही तक सीमित नहीं रही — इस पर राष्ट्रीय मीडिया ने भी प्रश्न उठाया।3 जनवरी 1987 को The Hindu में “An unholy hurry in winding up a case” शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट मेंस्पष्ट लिखा गया था कि

मैंने 22 दिसंबर 1986 को लोकायुक्त को पत्र भेजकर जांच की प्रक्रिया पर आपत्ति जताई थी।रिपोर्ट के अनुसार, लोकायुक्त जस्टिस मुर्तज़ा हुसैन ने मेरे और गवाह धर्म  सिंह रावत (सेवानिवृत्त IAS) का बयान रिकॉर्ड किए बिना मामला बंद कर दिया, जबकि वे 6 जनवरी 1987 को सेवानिवृत्त होने वाले थे।

मैंने उनसे अनुरोध किया था कि यह मामला उनके उत्तराधिकारी को सौंप दिया जाएताकि पूरी जांच हो सके, लेकिन उसी दिन इसे “साक्ष्य के अभाव” में निपटा दिया गया।

The Hindu ने इस पर टिप्पणी की थी कि

“When the Lokayukt was to retire within days, why this unholy hurry in winding up a case?”

यह उदाहरण दिखाता है कि लोकायुक्त संस्था पर सत्ता और नौकरशाही का दबाव पहले से ही किस तरह मौजूद रहा है।इसके बाद तो उत्तर प्रदेश में लोक आयुक्त संस्था का और बुरा हाल हुआ।

संस्थान का पतन और महंगी प्राथमिकताएँ

लोकपाल/लोकायुक्त संस्थाएँ जनता की सादगी और नैतिकता का प्रतीक होनी चाहिए थीं,

पर आज वे खुद वैभव और सुविधा की प्रतीक बन गई हैं।2025–26 मेंलोकपालको ₹44.32 करोड़ का बजट मिला है, पर उसके ख़र्चे लगातार विवादों में हैं। अक्टूबर 2025 में लोकपाल ने अपने अध्यक्ष और सदस्यों के लिए सात बीएमडब्ल्यू (330Li M Sport) कारें खरीदने का टेंडर जारी किया,जिसकी लागत करीब ₹5 करोड़ थी — यानी कुल बजट का लगभग 10%।

इसके बाद यह भी सामने आया कि लोकपाल ने दिल्ली के एक फ़ाइव-स्टार होटल परिसर में अपना दफ़्तर किराए पर लिया, जिसका मासिक किराया करीब ₹50 लाख रुपये बताया गया।भ्रष्टाचार से लड़ने वाली संस्था के ऐसे खर्चे जनता की समझ से परे हैं।

लोकपाल का रिकॉर्ड : आँकड़े सब कह देते हैं

कानून बने दस साल से ज़्यादा हो चुके हैं, पर लोकपाल की उपलब्धियाँ नगण्य हैं।

वर्ष प्राप्तशिकायतें जांचें अभियोजन / सज़ा

2019–20 1,427 बेहद कम 0

2020–21 2,251 सीमित 0

2021–22 5,680 लगभग 17 (तीन वर्षों में) 0

2023–24 ~6,000 (अनुमान) बहुत कम 0

(स्रोत : लोकपालवार्षिकरिपोर्ट, संसदीयसमिति, मीडियारिपोर्ट)

अन्ना हज़ारे की निराशा

लोकपाल के गठन के बाद अन्नाहज़ारे ने कई बार सरकारों को चेताया कि इस कानून को ईमानदारी से लागू किया जाए।उन्होंने 2018 में पत्र लिखा था कि अगर लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हुई तो वे फिर से आंदोलन करेंगे।पर आज जब लोकपाल महंगी कारें और फाइव-स्टार दफ़्तर ले रहा है,

अन्ना हज़ारे ने कहा —“लोकपाल का उद्देश्य जनता की सेवा था, न कि विलासिता। यदि यही लोकपाल की दिशा है तो यह अन्ना आंदोलन की आत्मा का अपमान है।”

पर अन्ना हजारे को यह भी याद होना चाहिए कि उन्हें स्वयं सत्ता संघर्ष में एक मोहरे की तरह इस्तेमाल करके किनारे कर दिया गया। पहले तो उन्हें ही प्रायश्चित स्वरूप जनता से माफ़ी माँगनी चाहिए एक दशक से अपनी खामोशी के लिए।

आगे की राह

लोकपाल को उसकी आत्मा लौटाने के लिए ज़रूरी है —

1. पूर्णस्वतंत्रता – अपनी जांच और अभियोजन शाखा बने।

2. पारदर्शिता – तिमाही रिपोर्ट सार्वजनिक हो, संसद में वार्षिक समीक्षा अनिवार्य हो।

3. व्हिसल ब्लोअर सुरक्षा – गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।

4. जन सुलभता – ऑनलाइन शिकायत व ट्रैकिंग प्रणाली लागू हो।

5. सादगी – संस्था वैभव नहीं, उदाहरण बने।

अधूरी क्रांति का मौन प्रहरी

लोकपाल उस संपूर्ण क्रांति आंदोलन की उपज था जिसने लोकतंत्र को नई नैतिक दिशा दी थी।पर आज वह कानूनी रूप से ज़िंदा और नैतिक रूप से निस्तेज है।

हम जैसे लोग, जिन्होंने आपातकाल में जेलें भरीं, आज यह सवाल पूछते हैं — क्या लोकपाल जनता के लिए बना था, या सत्ता की सुरक्षा के लिए?

लोकपाल की चुप्पी केवल संस्थागत असफलता नहीं,बल्कि क्रांति के अधूरे सपने की पीड़ा है।

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