जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रान्ति का उद्घोष किया
-आज लहरों में निमंत्रण तीर पर कैसे रुकूँ मैं ?
–डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज
गाँधीजी के नेतृत्व में देश के आजादी की जो लड़ाई लड़ी गयी थी ,उसके बाद आजाद भारत में संसदीय लोकतंत्र की आवश्यकता भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था में मौलिक परिवर्तन लाने के लिये एक सशक्त विकल्प के रूप में महसूस की गयी थी।
आजादी के रजत जयंती वर्ष तक आते-आते जनसामान्य यह स्पष्टतः महसूस करने लगा था कि जिस व्यवस्था में वह जी रहा है ,क्या वह वास्तव में लोकतांत्रिक है ?क्या संसद और विधानसभा लोकतंत्र के वाहक रह गये हैं ?आम आदमी की रोटी और आजादी राजनीति का शिकार होती चली गयी। जो राजनीति आम आदमी की भाषा हो सकती थी वह मात्र एक तरकीब बन कर रह गयी । इस व्यवस्था के बदलाव के लिए एक नायक की तलाश थी।
डा लोहिया के बिना राष्ट्र का विरोध पक्ष सूना होता चला गया था। डा लोहिया की कल्पना थी कि विरोध एक आंदोलन का रूप ले और उन्होंने इस बात की चेष्टा भी की थी कि सभी विरोधी दल सही अर्थों में अपनी भूमिका का निर्वाह करने में ,आपस के आरोप – प्रत्यारोप से आगे बढ़कर एक व्यापक मंच पर कुछ कार्यक्रम के साथ एकत्रित हों। सन् 1967 में विपक्षी दलों को जो अवसर मिला था उसमें वे एकमत होकर जनसामान्य की आकांक्षाओं के लिए कुछ नहीं कर सके। लोहिया का स्वप्न अधूरा ही रह गया। उनके स्वप्न को मूर्त रूप देने के लिये एक नायक की तलाश थी।
कांग्रेस, जिसने गांधी जी को काफी पीछे छोड़ दिया था ,उसके अंतर्विरोध को भी एक नायक की तलाश थी।
क्रान्ति के साथ जयप्रकाश जी -जे पी का पुराना लगाव रहा। आजादी के संघर्ष में राष्ट्रीय क्रांति के बाद सामाजिक क्रान्ति की दिशा में उन्होंने निरंतर कार्य किया। उन्होंने महसूस किया कि लोकतान्त्रिक सरकारें लोक के प्रति जिम्मेदार रहने के बदले स्वच्छंद और निरंकुश बनती जा रही हैं। सर्वोदय जैसी सामाजिक संस्थाओं के रचनात्मक कार्य भ्रष्ट व्यवस्था की बलि चढ़ते जा रहे हैं। उस क्रान्ति से भी जे पी का मोहभंग होता जा रहा था।
दिसम्बर 73 में जे पी विनोबा जी से मिलने पवनार आश्रम पहुंचे ।,वहीँ उन्होंने –यूथ फार डेमोक्रेसी -का आवाहन करते हुए देश के नवयुवकों से कहा –दुनिया के कई देशों में विद्यार्थियों ने अपने देश की भाग्य रेखा को बदलने में निर्णायक रूप से हाथ बंटाया है। भारत में भी राष्ट्रीय रंगमंच पर नौजवानों को अपना निर्णायक पार्ट अदा करके लोक शक्ति की सर्वोपरिता सिद्ध करनी चाहिए और पैसा , झूठ और पशुबल के बोलबाले पर विजय प्राप्ति करनी चाहिये। वह घड़ी आ चुकी है।
देश के क्षितिज पर क्रान्ति के बादल मंडराने लगे थे । गुजरात के विद्यार्थियों ने नवनिर्माण समिति के बैनर के तले आंदोलन शरू कर दिया था। फरवरी ’74 में जे पी गुजरात पहुंचे। छात्रों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने बच्चन जी की पंक्ति दुहरायी –आज लहरों में निमंत्रण ,तीर पर कैसे रुकूँ मैं।
यहीं से सम्पूर्ण क्रांति का उद्घोष हुआ। गुजरात आंदोलन भले कोई स्वरूप न ग्रहण कर सका हो पर छात्रों ने जनता के व्यापक मांगों के लिए संघर्ष की शुरुआत तो कर ही दी । जे पी ने छात्रों से नवनिर्माण की रुपरेखा तैयार करने की अपील की।
18 मार्च 1974 को बिहार के छात्रों ने विधानसभा का घेराव करने का निर्णय लिया। वह एक कलंक का दिन साबित हुआ।,बिहार विधानसभा के सामने सत्याग्रह कर रहे विद्यार्थियों पर अंधाधुंध लाठियां और गोलियां चलायी गयीं। पटना शहर में जगह जगह आगजनी ,लूटपाट हुई। अंग्रेजी अखबार ‘ सर्च लाइट’ का दफ्तर घंटों जलता रहा।
ऐसा लगा जैसे सारे शहर में प्रायोजित हिंसा हुई। शासक वर्ग की ओर से जयप्रकाश जी और उनसे सम्बंधित संस्थाओं को बदनाम करने का कुचक्र रचा जाने लगा। जे पी ने शांतिपूर्ण आंदोलन के लिए लोक शिक्षण प्रारम्भ किया। 8 अप्रैल को पटना में शांति मार्च हुआ। 9 अप्रैल को एक आम सभा में जे पी ने घोषणा की-“यह शांतिपूर्ण आंदोलन का प्रारम्भ है। इसके आगे हमें सत्याग्रही की भूमिका में काम करना है। एक सरकार के जाने और दूसरी सरकार के आने भर से हमारा काम चलेगा नहीं। यह तो भूत के जाने और प्रेत के आने जैसी बात होगी। इसलिए हमें समाज की बीमारियों की जड़ में जाना होगा।”
5 जून 1974 भारत के इतिहास का वह अविस्मरणीय दिन है जब पटना के गाँधी मैदान में उपस्थित भारी भीड़ को सम्बोधित करते हुए लोकनायक जेपी ने बिहार विधानसभा को भंग करने की मांग के साथ ही सम्पूर्ण क्रान्ति की उदघोषणा करते हुए कहा कि इसका उद्देश्य बहुत दूरगामी है । वह है भारत में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना। नैतिक ,सांस्कृतिक और शैक्षणिक क्रान्ति के माध्यम से अन्याय और शोषण मुक्त समाज की संरचना।
यद्यपि जेपी के समक्ष मुख्य ध्येय था लोक जागरण और लोक चेतना , पर उन्हें न चाहते हुए भी राज्य शक्ति से संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने 1 नवम्बर 74 को इंदिरा जी से भी मुलाक़ात की । तमाम मुद्दों पर उनसे विस्तार से चर्चा की पर बिहार विधानसभा भंग करने के प्रकरण पर इंदिरा जी ने जेपी को ही चुनौती देते हुए कहा –‘ मैं इस्तीफा देना पसंद करुँगी पर बिहार विधानसभा भंग करने को तैयार नहीं होउंगी।’ जयप्रकाश जी कहते हैं कि जनता उनके आंदोलन के साथ है तो उन्हें सब्र से काम लेना चाहिये। इस बात का फैसला अगले चुनावों में होगा। जेपी को इंदिरा जी की चुनौती स्वीकार करनी ही पड़ी।
सम्पूर्ण क्रांति के प्रवाह की दिशा बदलने लगी राजनीतिक दलों के युवा संगठन सक्रियता से छात्र संघर्ष समिति में जुड़ने लगे। मुख्य रूप से समाजवादी युवजन सभा ,आर एस एस ,तथा सर्वोदयी मानसिकता के युवा आंदोलन से जुड़ रहे थे । जिन्हें यह बात विशेष रूप से समझाई जाती थी कि उन्हें सम्पूर्ण क्रान्ति का वाहक बनना है । यह मात्र सत्ता के विरुद्ध संघर्ष नहीं है । पर कैप्चर आफ पावर की मानसिकता से राजनीतिक घुट्टी फिर लोग मुक्त नहीं हो पाते थे। जेपी राज्य शक्ति पर लोक शक्ति के अंकुश का अलख जगाते देश की युवा शक्ति को जागृत करते रहे।
सन् 1969 में आम आदमी के समक्ष श्रीमती गाँधी का स्वरूप एक क्रन्तिकारी के रूप में उभरा था। पर धीरे-धीरे वे खुद को स्थायी सत्ता की अधिकारिणी समझ बैठीं । वे न तो जनता के प्रति जवाबदेह रह गयीं और न विपक्ष की। न्यायपालिका और विधायिका के बीच का संतुलन समाप्त होने लगा। नौकरशाह तथा सिविल बुद्धिजीवी वर्ग महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मामलों में निर्णयात्मक भूमिका अदा करने लगे। राज्य की हिंसा से मुक्ति दिलाने के जेपी के प्रयास में सहयोग करने की बजाय श्रीमती गाँधी जेपी के साथ संघर्ष में उतर आयीं और वे ताकतें जो कभी महात्मा गाँधी को फासिस्ट कहती थीं उनके साथ मिलकर जेपी को फासिस्ट कहने लगी। कांग्रेस के चंद्रशेखर ,मोहन धारिया आदि नेताओं के सुझाव को न मानकर श्रीमती गांधी ने अपनी छवि धूमिल ही की।
जन आकांक्षांओं के लिये जेपी सर्व सेवा संघ से भी अलग हो गये । समय की मांग थी कि गाँधी के विचारों के अनुयायी विनोबा जी इस सत्याग्रह में आगे आते पर उन्होंने अपना मौन भंग कर जेपी से एकांत में कहा कि अगर इस संघर्ष में श्रीमती गाँधी पीछे नहीं हटतीं तो वे ही पीछे हट जायें। जेपी के लिये यह आत्मघाती प्रस्ताव था। वे जनाकांक्षाओं के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते थे। इसीलिए वे स्वतः सर्वसेवा संघ से हट गये ।
12 जून 1975 को अचानक ही सम्पूर्णक्रांति की धारा में एक नया मोड़ आ गया जब माननीय इलाहबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती गाँधी के खिलाफ की गयी चुनाव सम्बन्धी याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए चुनाव सम्बन्धी भ्रष्टाचार के लिए इंदिरा जी को दोषी ठहराया और उनका चुनाव रद्द कर देने की घोषणा की। विरोधी दलों को इंदिरा जी के खिलाफ यह बड़ा अस्त्र मिल गया । उन्होंने इंदिराजी से त्यागपत्र मांगने के लिए दिल्ली में एक प्रदर्शन का आयोजन किया। यद्यपि जेपी ने प्रारम्भ में इस प्रदर्शन में भाग न लेने का मन बनाया था।
विरोधी दल के नेताओं के दबाव में आखिरकार जेपी 23 जून को दिल्ली पहुंचे और उस रैली में शामिल हुए। 25 जून को रामलीला मैदान में आयोजित आम सभा के मुख्य वक्ता जेपी ही थे। श्रीमती गाँधी और उनके सलाहकारों ने इस्तीफे की बात को राजनीति समझा । उसे नैतिकता और लोकतान्त्रिक मूल्यों की दृष्टि से नहीं सोचा।
विनाशकाले विपरीत बुद्धि । 26 जून 1975 को इंदिरा जी ने अपने सिहासन को बचाने के लिये आतंरिक आपातकाल की घोषणा कर दी। सम्पूर्ण क्रांति के सेनानियों और विरोधी दलों के नेताओं को जेलों में ठूंस दिया। लोकतंत्र पर यह घातक प्रहार देश के लिये अविस्मरणीय रहा। सम्पूर्ण क्रांति और लोक चेतना की अवधारणा मझधार में ही अटक गयी।