दुखों का लॉकअप
अथ लॉक डाउन कथा
गौरव अवस्थी, पत्रकार, रायबरेली
भोर हुई ही थी की उसे अपनी औरत की आवाज सुनाई दी ‘ आज काम मिला है कि नहीं?’ वह बिना कुछ कहे खाट से उठकर बाहर चला आया। काम तो आज भी नहीं था। पर हो सकता है कि कहीं से बुलावा आ जाये। यही सोचता वह खड़ा ही था की गांव का मनवा जोगी गाता हुआ निकला ‘ सब कुछ छोड़ के हम करब ओझाई। कछुवो न मिली त खएका कहाँ से आयी। ‘ जोगी के इस स्वीकार करने की उक्ति पर उसे हंसी आ गयी।
नरेंद्र नाम है उसका. तीन भाइयों में एक. उम्र महज 28 साल. तीन-तीन बड़े हो रहे बच्चों का पिता नरेंद्र अपने बच्चों के भविष्य की सोच ही रहा था कि परदेस में कमा-खा कर लौटे गांव के ही युवक रामू ने कंधे पर पीछे से हाथ धरते हुए धीरे से कहा-” घर बैठे कितने दिन काम चलाओगे बच्चे भी तो बड़े हो रहे हैं”
रामू के इस अपनापे पर नरेंद्र सोच में पड़ गया. यही उमड़न-घुमड़न मन में लिए वह घर लौट आया. रामू की बात उसके दिल में गहरे तक पैठ गई थी. आखिरकार अपने और बच्चों के सुखों की खातिर नरेंद्र एक दिन मय बीवी बच्चों के घर से 1200 सौ किलोमीटर दूर गुजरात के गांव में काम करने खुशी-खुशी निकल पड़ा.
वैसे मां शांति देवी नहीं चाहती थी कि उसका मंझला बेटा उसे छोड़ काम पर परदेस जाए, वह भी मय बाल बच्चों के, लेकिन मां की सुनता और समझता कौन है ? मां की ख्वाहिश को अनसुना करते हुए , बच्चों का भविष्य और अपने वर्तमान के लिए नरेंद्र एक दिन अपनी मां और माटी को प्रणाम कर निकल पड़ा. एक नई जिंदगी और नए-नए सुखों की तलाश में. मां की आंखें उसे निहारती रहीं दूर तलक तब तक जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गया.
स्टेशन के प्लेटफार्म पर ट्रेन के इंतजार में बैठे बच्चों ने भी एक बार ज़िद की- पापा हमें नहीं जाना लौट चलो घर ” लेकिन नरेंद्र के सिर पर तो अनदेखे सुखों की दुनिया सवार थी. उसे क्या पता था जिन सुखो की खातिर वो अपना वतन छोड़ परदेस जा रहा है वहां कितने दुख नसीब में आने वाले हैं.
झटके खाती ट्रेन सूरत के उस खूबसूरत स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 3 पर खड़ी हुई . नई और चमकीली दुनिया से पहली बार वाबस्ता हो रहे नरेंद्र मन में ही सोचने लगा-” इतना बढ़िया तो नखलऊ का भी स्टेशन नहीं है” नए शहर में रामू का सहारा भी था. रामू के साथ वह अपने नए पड़ाव की ओर बढ़ चला. फैक्ट्री में कपड़ा रंगते-रंगते पहली बार 19 दिन काम की पगार हाथ में आई तो नरेंद्र के सपने जवा हो गए. बाजार गया. बच्चों के कपड़े लाया और घर का सामान भी. उसे लगने लगा कि अभी तो जिंदगी शुरू हुई है..
सपनों की नई दुनिया में नरेंद्र खोया ही था कि अचानक फैक्ट्री में लगे टीवी पर अपने पीएम को “जनता कर्फ्यू” बोलते देखा. यह नाम तो उसने पहली बार ही सुना था . दूसरे दिन देख भी लिया. 1 तारीख और बीती ही थी की शुरू हो गई कोरोना की मार. फैक्ट्री में ताला पड़ गया. काम छिन गया.. और साथ में तकदीर भी. लॉक डाउन की घोषणा बताते हुए फैक्ट्री मालिक ने 10 किलो आटा,चावल,तेल, मसाला देकर उसे विदा कर दिया यह कहते हुए कि घर जाओ. फैक्ट्री जब खुले तब फिर काम पर आ जाना.
नरेंद्र के जीवन में यह मुश्किलों की शुरुआत भर थी. मुश्किलों का भरा पूरा दौर तो आगे था. हर कदम से आगे मुश्किल, एक नई मुश्किल, मुश्किल फिर एक नई मुश्किल.. पर इंतज़ार का दामन वह पकड़े रहा… मुश्किलों का यह सफर तब और मुश्किल हुआ जब घर में खाना खत्म हो गया. गैस चुक गई. खाना पाने वालों की लंबी कतार का हिस्सा बनने की बारी आ गई. घर में 4 प्राणी और एक लंच पैकेट..
बच्चे भी भूख से बिलबिलाने लगे. एक दिन पत्नी कह ही दिया- “जानते हो घर में कुछ नहीं है तो लंच पैकेट 4 ले आया करो” वह क्या बताता पत्नी को. एक लंच पैकेट के बदले चार चार बार फोटो खींचते हैं वहां. मन ही मन वह बुदबुदाया, पता नहीं यह दान है या गान.
बच्चों की भूख उससे देखी नहीं जा रही थी तभी एक दिन सुबह- सुबह ही नरेंद्र का फोन घनघनाया. घर से फोन देख बच्चे लपक पड़े- “पापा पहले हम बात करेंगे पहले हम..” बच्चों की भूख के बोझ से दबे नरेंद्र ने फोन खुद ही रिसीव किया. उधर से उदास स्वरों में छोटे भाई सुरेंद्र ने मनहूस सूचना दी-” भैया मां नहीं रही”. क्या कह रहे हो सुरेंद्र.. सुबह-सुबह तो झूठ मत बोलो सच-सच बताओ, हुआ क्या है? भैया, सच ही कह रहा हूं. रात में ही मां को जुखाम- बुखार आया और सुबह वह चल बसी. यह कहते ही उधर सुरेंद्र फफक पड़ा और इधर नरेंद्र.
दुखों में दुख का एक नया सिलसिला नरेंद्र के जीवन में जुड़ गया. मां के आखरी दर्शन और उसके अंतिम संस्कार में शामिल होने की छटपटाहट उसके अंदर कसमसाने लगी . उसे उदास देख पड़ोस की ही झुग्गी में रहने वाले गांव के किशन से रहा नहीं गया. पूछ बैठा-नरेंद्र क्या बात है? उदास क्यों हो? रूंधे गले से नरेंद्र बोला- ” मां नहीं रही ” इस वाक्य से जैसे किशन भी हिल गया. कहा,कैसे क्या हुआ? संक्षेप में वृत्तांत बताकर नरेंद्र फिर उदासी मे घिर गया..
नरेंद्र ने किशन से कहा-मां का अंतिम दर्शन तो कर ही ले. उसके घर जाने की इच्छा पर झुग्गी के साथियों ने आपस में पैसे इकट्ठे कर नरेंद्र के हाथ में रख दिए. नरेंद्र के लिए यह सिर्फ पैसे नहीं थे, हिम्मत थी हिम्मत. अंतिम दर्शन की लालसा में नरेंद्र निकल पड़ा अपने गांव घर के लिए लेकिन सुनसान सड़क पर डंडा फटकते पुलिस वाले ने कड़क आवाज में कहा- कहां जा रहे हो? नरेंद्र ने अपनी आपबीती इस आस में एक सांस में बता डाली कि शायद रहम हो जाए- “साहब मैं यूपी जा रहा हूं. मेरी मां नहीं रही. अंतिम संस्कार में शामिल होना है” लेकिन पुलिसवाला न पसीजा तो न पसीजा. कड़क अंदाज में ही बोला, “तुम नहीं जा सकते लौट जाओ. जानते नहीं कोरोना फैला है कोरोना.लॉक डाउन चल रहा है. न कोई आ सकता है न कोई जा. सकता है . लाकडाउन ने नरेंद्र को अपनी मा की अर्थी में कन्धा न दे पाने के दुःख ने अंदर तक हिला दिया। क्या यही चकमक पत्थर पाने वह यहाँ आया था?
नरेंद्र से ना अब बच्चों की भूख देखी जा रही है ना मां के अंतिम दर्शन कर पाने का दुख सहा जा रहा है लेकिन अब करे तो क्या करे ? कोरोना की मार सहने के सिवा..! उसे समझ में नहीं आ रहा है किस-किस का रोना रोए. कोरोना का, बच्चों की भूख का या मां की मौत के दुख का.. दुख एक हो तो रो भी ले यहां तो जिधर देखो उधर दुख ही दुख का सागर फैला था ! आखिर यह अदृश्य कोरोना कहाँ से आया ? क्या उसकी ही किस्मत खोटी थी।
सुख जुटाने के सफर पर निकला नरेंद्र चमकदार शहर में दुख, दुख और दुख ही देखता हुआ अब लड़खड़ाते हुए घर लौटने के सुख के सच होने के इंतजार में है..
कमरे के बाहर एक किनारे बैठा नरेंद्र सोच रहा है-“कब लॉक डाउन खत्म हो और कब दुखों के लॉकअप से छुटकारा पाए और अपनी माटी, अपने वतन, अपने लोग मिले.. जहां दुःख तो है, सुखों के साधन भी नहीं थे पर उसमें सुख का एहसास जरूर छिपा होता है. यह सोचते हुए वह अपने गांव के उन पुराने दिनों को याद करता जा रहा है जिसमें दुःख-सुख मंद गति से आगे पीछे होते रहते हैं लेकिन सुख अपार था..वह मां का प्यार दुलार.. वह दोस्त.. जो चेहरे की उदासी पढ़ने में माहिर थे.. पिता की वो टोका-टाकी, प्यार की झिड़की , काम खर्चे में रहने की हिदायत…!
उसे याद आया एक गीत जो माँ अक्सर गाया करती थी ‘बाघिन , हमक जो तू खाई लेतेयु , बिपतिया से छूटित हो। ” तो क्या वह बिपति इससे भी बड़ी थी जो आज वह झेल रहा है। नहीं … बड़ी तो बिलकुल नहीं. अपने साथ हों तो कोई भी बिपत्ति बड़ी नहीं
उदासी के अँधेरे घर में बैठे-बैठे उसने अब निश्चय कर लिया है कि अपने हिस्से की पसीने की हर बूंद अब अपनी माटी पर ही न्योछावर करेगा..
गांव की प्यारी सी-मीठी सी दुनिया के बारे में सोचते सोचते उसे झपकी आ गई.. झटके में आंखें खुली तो बाहर फिर मुश्किलें इंतजार में थी.. मुश्किलों की इस बहार से दूर अब वह केवल अपने गांव की उन मुश्किलों से मुकाबिल होने की बेसब्र प्रतीक्षा में है.. हां वही मुश्किल है जो परदेस के हजार सुख से लाख गुना अच्छी है. अब बस उसे इंतजार है लॉक डाउन डाउन खत्म होने का…
¤ गौरव अवस्थी
रायबरेली (उप्र)
91-9415-034-340
(अपने गांव से 1200 किलोमीटर दूर गुजरात के एक गांव में फंसे रायबरेली के एक मजदूर के जीवन की सत्य घटना पर आधारित)