‘रियाज़ तो चाहिए, चाहे कुछ भी करो’
पूछा, 'रियाज करते हो?' हम एक दूसरे का मुंह ताकने लगे और कहा, 'हम गाते नहीं हैं। पत्रकार हैं, सिर्फ़ लिखते हैं'. उन्होंने कहा, 'रियाज तो लिखने के लिए भी चाहिए, तभी तो लोग पढ़ेंगे।'*
मेरा तबादला बंबई (अब मुंबई) हो चुका था। उन दिनों मैं नवभारत टाइम्स में रिपोर्टिंग करती थी। अक्सर हम रात को काम खत्म करके कभी जुहू, कभी चौपाटी चले जाते। हमारी निशाचर टोली में टाइम्स हाउस से निकलने वाले कई अखबारों और पत्रिकाओं के कई लड़कियां-लड़के होते। देर रात तक पाव भाजी और नारियल पानी के साथ चहलकदमी करते फिर वापस दफ्तर लौट आते।
उन दिनों टाईम्स का दफ्तर कभी बंद नहीं होता था। लड़कियों के लिए तो बहुत ही बढ़िया शयन कक्ष भी थे। लड़के लोग दफ़्तर में ही गत्ते वगैरह बिछा कर सो जाते। हम लड़कियां आराम से तीन चार घंटे सोकर वीटी स्टेशन (अब छत्रपति शिवाजी जी टर्मिनस) जाकर चाय पीते और पैडर रोड जाते फिर प्रभुकुंज। अंदर तो जा नहीं पाते थे, बाहर ही चक्कर लगाते और वापिस आ जाते। महीनों गुजर गए, उस आवाज़ की मल्लिका की एक झलक भी ना मिली।
एक दिन हमने फैसला किया कि आज हम गेट खोलकर जबरन घुस जायेंगे। और फिर कभी नहीं जाएंगे। लेकिन गजब हो गया। लता दीदी बालकनी में खड़ी दिखीं। हमने गेट से ही प्रणाम किया। उन्होने अंदर आने का ईशारा किया। दरवान ने गेट खोल दिया। हम सरपट भागे उन तक। पांव छुए। आशीर्वाद मिला। हममें से कोई कुछ बोल ही नहीं रहा था।
आखिरकार उन्होंने ही प्यारी सी संगीतमय आवाज़ में कहा, मैं बहत दिनों से देख रही थी कुछ लड़कियां काफी देर तक आसपास चक्कर लगाती हैं, गेट पर कुछ कहती हैं और चली जाती हैं। तो आज बुला लिया।
साहस कर मैंने कहा आपको नज़दीक से देखने आए थे। पांव छुने आए थे। उन्होंने बैठने को कहा, नाश्ता मंगवाया। पूछा कुछ चाहिए। हमने एक-दूसरे का हाथ छूकर साहस बटोरा और कहा आपको सुनने का मन था। उन्होंने तानपुरा लिया और पूछा क्या गाऊं? हमने कहा ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम….’. उन्होंने शुरू की चार पंक्तियां गाईं और तानपुरा एक तरफ रख दिया। पूछा, ‘रियाज करते हो?’ हम एक दूसरे का मुंह ताकने लगे और कहा, ‘हम गाते नहीं हैं। पत्रकार हैं, सिर्फ़ लिखते हैं’. उन्होंने कहा, ‘रियाज तो लिखने के लिए भी चाहिए, तभी तो लोग पढ़ेंगे।’*
🙏🙏🙏🙏🙏🙏मणिमाला