लहू बोलता भी है : मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों पर दस्तावेज़ी किताब की समीक्षा
सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी की किताब का टाइटल ‘लहू बोलता भी है’ पढ़कर शुरू में अटपटा सा लगा, क्योंकि लहू खौलता है, लहू बहता है, लहू के निशान है, वगैरह-वगैरह के जुमले, अक्सर सुनने और पढ़ने को मिलते रहे है मगर लहू बोलता भी है पहली बार पढ़ने को मिला। 477 पन्ने की इस किताब को पढ़कर समझ में आया कि वाकई में यह सुर्खी बहुत ही मौजू है।
दरअसल इस किताब के ज़रिये शाहनवाज कादरी ने उस तंजीम, ज़हनियत साजिश, प्रचार के जिसमें हिंदुस्तान के मुसलमानों को मूल्क का गद्दार सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है, उसका माकूल जवाब, जबानदराजी, तल्ख़ी या गप्पबाज़ी से नहीं तबारिख के पन्नों को सबूत के साथ पेश कर दिया है।
आज की हक़ीक़त है कि जब से भाजपा गद्दी नशीन हुई है उसकी सियासत का सारा ताना बाना हिंदू-मुस्लिम नफ़रत की बिना पर टिका है। वजीरे आजम मोदी ने अपने चुनावी प्रचार की शुरुआत ही श्मशान बनाम कब्रिस्तान से शुरू की थी। हिंदू-मुस्लिम हिंदुस्तान पाकिस्तान उसका मुख्य एजेंडा है। कादरी ने किताब की शुरुआत में ही यह किताब क्यों है? में अपने मकसद को स्पष्ट करते हुए लिखा :
“हिंदुस्तान की आज़ादी के ….. साल पूरे हो चुके है इतने अरसे बाद भी उन हिंदुस्तानी मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जा रहा है जिन्होंने इस मुल्क की मिट्टी की मौहब्बत में मौतबादिल (विकल्प) रहते हुए भी अपनी खुशी से अपना वतन माना और यहाँ रहना पसंद किया था। मुल्क के लिए उनकी ही वफादारी पर उंगलियां उठाई जा रही है और वह भी किसके ज़रिये जिनका मुल्क को आज़ादी के लिए सौ साल तक चले मुसलसल, जद्दोजहद में कहीं नामोनिशान नहीं था। इस किताब के जरिये मेरी कोशिश है कि हमारा मुल्क कौमी एकजहती भाई-चारे मेल मिलाप और मुल्क में रहने वालों के तमाम मजाहिब का एहतराम (सभी धर्मों का सम्मान) करते हुए आगे बढ़े और तरक्की को जिसके ख्वाब हमारे शहीददाने वतन ने देखे थे।”
अक्सर यह हुआ है कि मीनार के क्लश को तो हर कोई पहचानता है मगर नींव के पत्थर गुमनामी में पड़े रहते हैं। हिंदुस्तान की जंगे आज़ादी के इतिहास में मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद, अशफाकुल्ला खान, हकीम अजमल खाँ, मौलाना हसरत मौहानी, अब्बास तैय्यवी, डॉ॰ अंसारी, मौलाना अब्दुल बारी जैसे नेताओं के नाम और कुर्बानी से तो सभी वाकिफ़ है, परंतु कुर्बानी का इतिहास यही खत्म नहीं होता, कादरी ने गुमनामी में पड़े 1192 मुस्लिम देशभक्तों की कुर्बानी के लोमहर्षक इतिहास को सबूतों की बिना पर कलमबंद किया है।
इस काम को पूरा करने के लिए कादरी ने जो खाक छानी, हिंदुस्तान की मुत्तलिफ लायब्रेरियों, मर्कजों, तंजीमों और लोगों से व्यक्तिगत राफ्ता कायम किया वह कोई मामूली काम नहीं है।
हालाँकि यह किताब लिखी तो गई थी, मुस्लिम देश भक्तों के इतिहास को सामने लाने के लिए, मगर इसमें 1857 से 1947 की जंगें-आज़ादी के मुकम्मल इतिहास को भी उजागर किया गया है।
1857 की जंगे आज़ादी को अंग्रेजों ने हालाँकि सिपाही विद्रोह या गदर का नाम दिया था, लेकिन यह जंगे आज़ादी ही थी ….. इसकी शुरुआत की तफ़सील को लिखते हुए कादरी बताते है –फजले हक खैराबादी ने सबसे पहले दिल्ली की जामा मस्जिद से अंग्रेजों के खिलाफ़ जेहाद का फतवा और खुद बहादुर शाह जफर के साथ मिलकर इस जंग को परवान चढ़ाया।
इस फतवे के बाद पूरे मुल्क का मुसलमान सड़कों पर उतरकर अपनी-अपनी पहुँच के मुताबित जंगे आज़ादी में हिस्सा लेने के लिए बेताब दिखाई देने लगा। मुल्क का ज्यादातर हिस्सा जंग का मैदान नज़र आने लगा। जंग काबू करने के लिए अंग्रेजों ने आम अवाम को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया।
अंग्रेज़ इतिहासकार लिखते है कि सन् 1857 के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने अपने नुमाइन्दे डॉ॰ विलियम से यहाँ के हालात के बारे में मालूम किया। जवाब में विलियम ने जो लिखा वह यह है कि हिंदुस्तान में मुसलमान बहुत ज्यादा बेदार हैं। जंगे आज़ादी 1857 में सिर्फ़ मुसलमानों की वजह से ब्रिटिश हुकूमत को इतना बड़ा जानी और माली नुकसान उठाना पड़ा मौज़ूद वक्त में हम मुसलमानों पर आसानी से हुकूमत नहीं कर सकते। इनके दिलों-दिमाग से जेहाद का जज्बा खत्म करना ज़रूरी है।
मिस्टर थामसन के मुताबिक ब्रिटिश हुकूमत ने हिंदुस्तान से उलेमाओं को खत्म करने की गरज से 14000 उल्माओं को मौत की खोफ़नाक सजाएं दीं। थामसन ने कबूल किया कि दिल्ली की चाँदनी चौक से खैबर तक जी॰ टी॰ रोड़ पर कोई ऐसा पेड़ नहीं था जिस पर कि उलेमाओं को लटकाकर फाँसी नहीं दी गयी हों।
थामसन के कबूलनामें यह भी जिक्र है कि मौलानाओं को तांबे से दागा जाता, फिर सूअर की खाल लपेट कर आग में जिंदा जला दिया जाता, लाहौर की शाही मस्जिद के सहन में, जो अंग्रेज़ फौज के कब्जे में थी। फाँसी के 80 फंदे बनाए गए थे। जिस पर हर दिन 80 मौलवियों को लटकाया जाता था और उनकी लाशों को रावी नदी में फैंक दिया जाता था थामसन जब दिल्ली के किले जहाँ अँग्रेज़ी फौज का बैरक था के पीछे बदबू सूंघकर चला गया और देखा कि आग दहक रही है और 40 उलमाओं को निर्वस्त्र करके टांगा गया है। अंग्रेजों का गुस्सा इस जंगे आज़ादी में शामिल मुजाहीदीन और सिपाहियों तक ही महदूद नहीं था बल्कि उनके रिश्तेदारों औरतों व बच्चों तक को गिरफ्तार करके लालकिले के खूनी दरवाज़े (ब्लडीगेट) से बाहर निकलने को कहा गया। लेकिन बाहर निकलते वक्त उन्हें गोलियों से भून दिया गया जबकि बचे हुए लोगों को तोप से उड़ा दिया।
कादरी ने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना का जिक्र करके इस बात को दिखाया है कि अपने वतन से बाहर किसी मुसलमान का कोई मुकाम नहीं है।
“कुछ लोगों ने हिजरत की तहरीक शुरू कर दी जिसके तहत कुछ लोग अपना घर बार छोड़कर अफगानिस्तान हिजरत करने लगे। हिजरत की वजह से खिलाफत आंदोलन में लगे उलमाओं और कांग्रेस के मुस्लिम रहनुमाओं को सदमा लगा।
1 फकीर आंदोलन, 2 पागल पंथी आंदोलन, 3 करबंदी आंदोलन, 4 मुबारिजू द्दौला की बगावत 5 वलीउल्लाही आंदोलन, 6 नीलबगान आंदोलन, 7 असहयोग आंदोलन, 8 अहरार मूंवमेंट, 9 भारत छोड़ो आंदोलन, 10 मोपला आंदोलन, 11 वहावी मूवमेंट, 12 खिलाफत आंदोलन, 13 रेश्मी रुमाल तहरीक, 14 गदर मूवमेंट, 15 खुदाई खिदमतगार मूवमेंट, 16 स्वदेशी आंदोलन, 17 होमरूल मूवमेंट, 18 मेरठ बगावत के एक महीने बाद, 19 बिहार शरीफ-नवादा बगावत, 20 गया में नजीबों और सिपाहियों का बगावत, 21 चम्पारण बगावत, 22 मुजफ्फरपुर बगावत, 23 जमात-ए-उलमा-ए-हिंद और उलमाओं के आंदोलनख, 24 आल जम्मू एण्ड कश्मीर मुस्लिम काफ्रेंस, 25 अंजुमने-वतन बलुचिस्तान, वगैरहा वगैरहा।
हालाँकि इस किताब का मकसद, आज़ादी की जंग में मुसलमानों की कुर्बानियों को उजागर करना है परंतु कादरी एक ओर महत्त्वपूर्ण मुद्दे की ओर भी पाठक का ध्यान खींचते हैं। वो लिखते है कि जंगे आज़ादी की कहानी में इतिहासकारों ने सिर्फ़ फिरकापरस्ती की बुनियाद पर ही नहीं बल्कि ख्यालाती (वैचारिक) नज़रिये से भी भेदभाव किया है। इसकी नजीर देते हुए वो डॉ॰ राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्रदेव और जयप्रकाश नारायण जिनका भी कद आंदोलन की पहली कतार के नेताओं से अगर बड़ा नहीं तो कम भी नहीं था परंतु इतिहास की किताबों में जो जगह उनको मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिली।
किताब का सबसे मार्मिक वर्णन मुल्क के बंटवारे के बाद दिल्ली में आजादी का जब जश्न मनाया जा रहा था तो वहाँ गांधी जी मौज़ूद नहीं थे। जब गांधी जी को जश्न में शामिल होने का दावतनामा दिया गया तो उन्होंने कहा कि “जिसका जिस्म कटता है, वह खुशी नहीं मनाता। इसलिए मुझे इन बेसहारा लूले-लंगड़े और अंधों (दंगों के शिकार) के पास ही रहने दो। मेरी खुशी और जश्न यही लोग है।”
कादरी अपनी किताब में हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे की पूरी तफसील का जिक्र करते है परंतु उस मौके पर उनसे भी और इतिहासकारों की तरह चूक होती है। बंटवारे के प्रस्ताव पर कांग्रेस पार्टी की बैठक में महात्मा गांधी, खान अब्दुल गफ्फार खान, जयप्रकाश नारायण, डॉ॰ लोहिया बंटवारे का विरोध करते हैं उसको कलमबंद करना कादरी भूल जाते हैं।
बाहरी रूप में यह किताब मुसलमानों की कुर्बानियों को उजागर करती नज़र आएगी। मगर इसके लेखक महज एक विद्वान् तक ही सीमित न होकर, इन्कलाबी, मुल्कपरस्त, सोशलिस्ट तहरीक में पूरी मुस्तैदी के साथ शिरकत करने वाले रहे हैं। सोशलिस्ट नेता राजनारायण जी की शार्गिदी के कारण फ़र्क के साथ लोकबंधु राजनारायण के लोग मिशन चलाते हैं। मुझे भी दो बार इनके साथ जेल जाने का मौका मिला है। पहली बार बीएचयू के छात्रों द्वारा दिल्ली में राष्ट्रपति भवन के घेराव के सिलसिले में तिहाड़ जेल में बंदी जीवन तथा शिमला के रिज मैदान पर जम्हूरियत में बराबरी के हकूक को लेकर किये गये प्रदर्शन पर गिरफ्तार होकर हिमाचल की नहान जेल का कारावास, इस किताब में कहीं भी गलतबयानी, कौम परस्ती, तरफदारी की बू नज़र नहीं आती। यह इस किताब की ये सबसे बड़ी खूबी है।
प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन