श्रम का अवमूल्यन व सभ्यता का संकट
प्रो बिमल कुमार, अर्थशास्त्री, प्रयागराज
कोरोना वायरस के पैâलने से वैश्विक सभ्यता संकट में है। विज्ञान के प्रयत्न भी असहाय दिख रहे हैं। इस दौर में जो वर्ग सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है, वह श्रमिक वर्ग है। लेकिन आज भी सत्ता व पूंजी के केन्द्रों की प्राथमिकता श्रमिक वर्ग नहीं है। इस व्यापक वैश्विक संकट के दौर में श्रमिकों की भुखमरी व बदहाली को सही तरह से समझना होगा।
इतिहास का एक दौर था कि जब संकट आता था तो श्रमिक वर्ग ही सभ्यता व समाज को टिकाये (बचाये) रखते थे; दूसरों के श्रम पर जीवित रहने वाले परजीवी वर्ग द्वारा निर्मित व्यवस्था व सभ्यता नष्ट होने लगती थी। दुनिया की तमाम प्राचीन सभ्यताओं का नष्ट हो जाना इसका प्रमाण है। भारत क्षेत्र की सभ्यता लंबे समय तक टिकी रही क्योंकि प्रकृति प्रदत्त जीवन आधारों (जैसे जल, जंगल, जमीन, खनिज आदि) के उपयोग से श्रमिक वंचित नहीं किये गये। दुनिया की वे सभ्यताएं नष्ट होती चली गयीं, जिन्होंने श्रमिकों को प्रकृति प्रदत्त आधारों व उत्पादन के साधनों से वंचित कर दिया। परजीवी आधारित सभ्यताएं अंतत: नष्ट होती ही हैं।
लगभग ३०० वर्ष पूर्व (कुछ विद्वानों के अनुसार ५०० वर्ष पूर्व) विश्व भर में एक नयी आर्थिक प्रणाली का उदय होना शुरू हुआ। इस प्रणाली में साम्राज्यवादी देशों में भी और उपनिवेशों में भी, श्रमिक को उत्पादन के प्राकृतिक साधनों से वंचित किये जाने की प्रक्रिया शुरू हुई। फलस्वरूप परजीवी वर्ग का नियंत्रण प्रकृति के स्रोतों पर बढ़ता गया। प्रकृति के स्रोतों पर नियंत्रण दो अन्य प्रक्रियाओं के साथ हुआ—(१) पूंजी का केन्द्रीकरण तथा उस पर नियंत्रण, (२) उत्पादक श्रमिक को, श्रम बेचने वाले मजदूर में तब्दील कर उस पर नियंत्रण।
इस कारण आज स्थिति यह है कि महासंकट आने पर श्रमिक (मजदूर) वर्ग सबसे पहले दुर्दशा का शिकार होने लगा है। साथ ही श्रमिक के पतन के फलस्वरूप पूंजी की असहायता व अक्षमता भी प्रकट होने लगी है। श्रमिक ‘कार्यविहीन’ होगा, तो पूंजी भी अपनी उत्पादकता खोने लगेगी—यह समझने में पूंजीवाद समर्थक अर्थशास्त्रियों को आज भी दिक्कत हो रही है। कोरोना वायरस प्रभावित अर्थव्यवस्थाओं में लगभग पूर्ण तबाही का विश्लेषण करते हुए इस पक्ष को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
आज श्रमिक बेहाल हैं। परंपरागत व प्रकृति निर्भर श्रमिक एवं असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति अधिक दयनीय है, जबकि कुल कामगारों में इनकी संख्या लगभग ९३³ है। इनमें भी प्रवासी श्रमिकों को अब भुखमरी के कगार पर ला दिया गया है। यदि आप सत्ता और संपत्तिवान के दृष्टिकोण में भेदभाव देखना चाहते हैं तो प्रवासी श्रमिक व प्रवासी परजीवी वर्ग को उनके मूल स्थान पर लाने की नीति को देखें व उसका विश्लेषण करें कि ऐसा क्यों है।
यह समय है कि इस आत्यंतिक दुख की घड़ी में भी श्रमिकों के साथ संवाद बनाये रखा जाये। दुनिया भर के मीडिया व सूचना तंत्र के मुख्य विमर्श के दायरे के बाहर है श्रमिक वर्ग। ऐसे में उनका अपना संवाद तंत्र विकसित हो, यह बेहद जरूरी है। परजीवी वर्ग का नियंत्रण मीडिया व सूचना तंत्र पर भी है। इस कारण वह मूल विषय से ध्यान भटकाने में सफल हो जाता है। उसकी कोशिश होती है कि वह श्रमिक वर्ग को जाति-धर्म आदि आधारों पर बांट सके, व उनके बीच नफरत की दीवारें खड़ी कर सके। इस प्रयास को बेनकाब व बेअसर करना होगा।
महाबली सत्ताओं व अर्थव्यवस्थाओं की बेबसी साफ प्रकट हो रही है। इन्हें महाबली समझने की भूल में सुधार करना होगा। केन्द्रीय सत्ता एवं केन्द्रीकृत पूंजी के नियंत्रण को अस्वीकार करने का समय आ गया है। सत्ता केन्द्रित संबंधों एवं व्यवस्थाओं को बदलने की शुरुआत करें। सत्ता व पूंजी की केन्द्रीयता के हटते ही नये संबंधों की शुरुआत हो सकेगी।
केन्द्रीय व्यवस्था संचालित इकाइयों के भी लाकडाउन हो जाने से हवा और पानी शुद्ध होने लगे हैं। श्रमिक न केवल प्रकृति के स्रोतों के उपयोग का पुन: अधिकार प्राप्त करें, बल्कि प्रकृति के साथ नये संबंधों का अध्याय भी लिखना शुरू करें तो ऐसी प्राकृतिक आपदाओं की पुनरावृत्ति घटेगी, क्योंकि प्रकृति के संतुलन के साथ छेड़छाड़ की संभावना घटेगी।
कोरोना वायरस प्रभावित महामारी से यही सबक लेना होगा कि समाज निर्माण के केन्द्र में श्रमिक आयें, वे प्रकृति के स्रोतों के उपयोग से वंचित न हों और प्रकृति के साथ हमारा सहजीवी संबंध विकसित हो।
लेखक गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान शोध संस्थान प्रयागराज में एसोशिएट प्रोफ़ेसर थे.
Sir
Bahut achchha write-up hai.