कृष्णम वन्दे जगद्गुरुम – कृष्ण चिंतन
कृष्णम वन्दे जगद्गुरुम।
भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी की अर्द्धरात्रि में काले कृष्ण के अवतरण से विश्व के अदीप्त कण प्रकाशवान हो जाते हैं।श्रीकृष्ण के रूप में सृष्टि की सम्पूर्ण चेतना अपनी सम्पूर्ण पूर्णता में जगद्गुरु के रूप में अवतरित होता है –कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम। कृष्ण जन्माष्टमी को व्रज भूमि को ध्यान में लाइए ,यह पृथ्वी ही व्रजभूमि है जहाँ वन ,उपवन ,तालाब ,तड़ाग ,सर सरोवरों की भरमार है जहाँ मयूर ,कोकिल ,कपोत ,शुक,हंस ,कुक्कुट आदि आदि में कृष्ण भक्तों की आत्माएं कृष्णतत्व में मग्न हैं। मोर मुकुट ,वनमाला धारी बांसुरी बजाते विषधर के फनो पर नृत्य करनेवाला कृष्ण अपने जीवन के हर चरण में विष ही पीता रहा। माखनचोर गोपियों से ठिठोली करने वाला धर्म संस्थापक कृष्ण के रूप में प्रसिद्द होता है।
इंद्र की पूजा इसलिए करो की वह पानी बरसता है से इतर धर्म को कर्तव्य के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले कृष्ण ने नीति और धर्म को समन्वित किया। कर्ण और कालयवन के बध को अनुचित नहीं माना। जिन लोगों ने अपने जीवन के आचरणों में धर्म का कभी आदर न किया हो उसे दूसरे से धर्माचरण की आशा नहीं करनी चाहिए।
धर्मगत नीति और नीतिगत धर्म के अनेको उदहारण महाभारत में है जिसे कृष्ण ने समाज और व्यक्ति का मार्गदर्शन किया। एक महत्वपूर्ण प्रसंग अश्वत्थामा के मणिहरण के पश्चात् उन्हें छुड़ा देना और युगों तक प्रायश्चित करने के लिए बाध्य होना भी है। कृष्ण ने अपने धर्मपरायणता की परीक्षा भी दी। मृत बालक के रूप में जन्मे परीक्षित को जीवित करने के लिए उन्होंने अपने धर्म को दांव पर लगाते हुए उद्घोषित किया की यदि मैंने आजन्म कभी धर्म का वा सत्य का अतिक्रमण न किया हो तो यह बालक जी उठे। कृष्ण ने परीक्षित के जीवन के लिए अपना सत्य और धर्म न्यौछावर कर दिया।
महाभारत के युद्ध में मोहग्रस्त पार्थ के सारथी के रूप में आत्मा की अमरता एवं निष्काम कर्मयोग का ऐसा पाठ पढ़ाया की गीता ऐसा कालजयी ग्रंथ बनजाता है जो हर काल में प्रतिक्षण महाभारत में जूझते मानव के लिए मार्गदर्शक हो जाता है। परमात्मा होकर भी यज्ञ का ऐसा विनयी पुरुष जो अतिथियों का पादप्रक्षालन चुनता है। कर्षण करने वाला कृष्ण समूचे युग का चित खींचता रहता है क्योंकि वह परात्पर तत्व है –कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने। यह मधुसूदन सरस्वती का उपदेश अपने भक्तों के लिए है जिनके बारे में कहा जाता है उन्हें कृष्ण का साक्षात्कार हुआ था ,इसका अर्थ है की श्रीकृष्ण से परे कोई तत्व है यह मैं नहीं जानता।
गीता में कृष्ण ने कहा मैं समासों में द्वंद्व समास हूँ जो दो अलग अलग संज्ञाओं को संयुक्त करने वाला है ,जो विपरीत ध्रुवों ,विपरीत आवेशों को जोड़कर एक अन्य संभावना विकसित कर देता है। वस्तुतः कृष्णतत्व पदार्थ को प्राण से तथा जीव को जगत से जोड़ता है। सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
ऋग्वेद में एक मंत्रदृष्टा ऋषि के रूप में कृष्ण का उल्लेख कई मन्त्रों में मिलता है जिसे अंगिरस कृष्ण कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में इस ऋषि को देवकी नंदन कृष्ण के साथ जोड़ा जाता है। ऋग्वेद के मन्त्रों में राधा और व्रज का भी उल्लेख मिलता है।
प्रखर समाजवादी चिंतक डा राममनोहर लोहिया की दृष्टि में कृष्ण ऐसे महानायक हैं जिन्होंने भारत में पूर्व और पश्चिम की संस्कृति और राजनीति का एकीकरण किया। देश की एकता अखंडता के लिए तमाम सत्ताकेंद्रों को ध्वस्त करके एक सत्ताकेंद्र कुरु में स्थापित किया द्वारिका में नहीं। कृष्ण के द्वैत रूप में अद्वैत के दर्शन होते है।
कृष्ण यशोदानन्दन है तो देवकीनंदन भी कृष्ण नंदनंदन हैं तो वसुदेवनन्दन भी हैं। कृष्ण क्या नहीं हैं –गिरिधारी हैं गिरधर हैं ,गोपाल हैं ,मुरलीधर हैं तो चक्रधर भी हैं। रासलीला का कृष्ण योगिराज स्थितप्रज्ञ है। लोहिया जैसा चिंतक असमंजस में रहता है की गीता का कृष्ण और राधा का कृष्ण में इन हजारों वर्षों में कौन कब भारी हो जाता है यही कृष्ण चिंतन है।