कर्म की भाषा में ही प्राप्त होता है ज्ञान
गीता प्रवचन तीसरा अध्याय
संत विनोबा गीता प्रवचन करते हुए कहते हैं कि सेना नाई बाल बनाया करता था। दूसरों के सिर का मैल निकालने का कर्म करते-करते उसे ज्ञान हुआ, “देखो, मैं दूसरों के सिर का मैल तो निकालता हूँ, परंतु क्या खुद कभी अपने सिर का, अपनी बुद्धि का भी मैल मैंने निकाला हैं?”
ऐसी आध्यात्मिक भाषा उसे उस कर्म से सूझने लगी।
खेत का कचरा निकालते-निकालते कर्मयोगी को खुद अपने हृदय का वासना-विकाररूपी कचरा निकाल डालने की बुद्धि उपजती है।
मिट्टी को रौंदकर समाज को पक्की हँड़िया देनेवाला गोरा कुम्हार अपने मन में ऐसी पक्की गाँठ बाँधता है कि मुझे अपने जीवन की भी हँड़िया पक्की बना लेनी चाहिए।
इस प्रकार वह हाथ में थपकी लेकर ‘हँड़िया कच्ची है या पक्की?’ यों संतों की परीक्षा लेने वाला परीक्षक बन जाता है।
उस-उस कर्मयोगी को उस-उस कर्म या धंधे की भाषा में से ही भव्य ज्ञान-प्राप्त हुआ है।
वे कर्म क्या थे, मानो उनकी अध्यात्म-शाला ही हों। उनके वह कर्म उपासनामय, सेवामय थे। वे देखने में व्यावहारिक, परंतु वास्तव में आध्यात्मिक थे | क्रमश: