कश्मीर : नए मार्ग तलाशें और देश को समाधान की ओर ले जाएं
हम शहादत का मोल दुश्मन की मौतों की गिनती से नही लगा सकते
अनुपम तिवारी, पूर्व सैनिक, लखनऊ से
जिस समय मैं यह लेख लिख रहा हूँ, खबर आ रही है कि जम्मू कश्मीर के पुलुवामा में भारतीय सेना ने मुठभेड़ में एक दुर्दांत आतंकवादी मार गिराया है। पिछले 4 दिनों में यह तीसरी बड़ी मुठभेड़ और दूसरा बड़ा आपरेशन है। याद रहे कि ऐसे ही एक दुष्कर आपरेशन को अंजाम देते हुए विगत 2 मई को हंदवाड़ा में हमारे 4 सैनिक और एक स्थानीय पुलिस अफसर शहीद हो गए थे। इस घटना को 48 घंटे भी न बीते थे कि सीआरपीएफ की पेट्रोलिंग पार्टी पर हैंड ग्रेनेड से आतंकवादियों ने हमला कर दिया जिसके कारण हमें 3 जवानों की शहादत फिर से देखनी पड़ी। पिछले महीने केरन सेक्टर में भी एक बड़े सैन्यआपरेशन को अंजाम देते हुए हमारी एलीट पैरा फ़ोर्स के 5 कमांडो वीरगति को प्राप्त हुए। इन कार्रवाइयों में कितने आतंकवादी मारे गए, इसका जिक्र मैं जरूरी नही समझता, क्योंकि मुझे लगता है, जनमानस को अपनी सोच में बदलाव लाने की सख्त जरूरत है।
हम शहादत का मोल दुश्मन की मौतों की गिनती से नही लगा सकते। हमारा एक सिपाही भी हताहत हो, यह बात देश के लिए बर्दाश्त से बाहर होनी चाहिए। जबकि हम कहीं न कहीं यह सोच कर संतोष कर लेते हैं कि चलो, बदले में कुछ दुश्मन तो मारे गए न। यही संतोष का भाव अब इस देश को बदलना पड़ेगा।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आतंकवाद का यह सांप हमको कब तक डसेगा? खुद कश्मीरी लोग धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले इस भूभाग में कब तक आतंक पोषित नर्क को जीने के लिए अभिशप्त रहेंगे? और सब से बड़ी बात आज़ादी के इतने वर्षों के बाद भी हमें कब तक अपने सिपाहियों की लाशों को ढोकर, एक तरह का तमाशा बनाना पड़ेगा।
यकीन मानिए ‘तमाशा’ सही शब्द है, सैनिक के बलिदान का इससे बड़ा अपमान क्या होगा कि शहादत की पुनरावृत्ति रोकने के प्रयास करने के बजाय हमारा पूरा ध्यान इन चर्चाओं पर रहता है कि किसने उसके लिए क्या कहा? अमुक मंत्री का ट्वीट आया कि नही? पक्ष या विपक्ष के नेता ने उसके सम्मान में चंद शब्द बोल कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर ली या नही। किसी कलाकार या खिलाड़ी ने इससे संबंधित फेसबुक पोस्ट की अथवा नहीं? टीवी चैनलों पर बहस का तमाशा शुरू होता है? भुजाएं फड़काते एंकर, विशिष्ट मेहमानों और प्रवक्ताओं के साथ एक दो पाकिस्तानियों को बुला कर, उनका मान मर्दन शुरू कर देते हैं, जैसे वह पैनलिस्ट ही सभी समस्याओं की जड़ है।
फिर शुरू होता है, घोषणाओं और आर्थिक सहायता के नाम पर राजनैतिक लाभ हानि का खेल। सच मानिए शहीद हुए सैनिक को आपके इन सब दिखावों की कोई आवश्यकता नही रहती। अगर समाज उनको सच मे सम्मान देना चाहता है, तो उनके परिवार को सिर्फ शहादत के दिन नही, तमाम उम्र अपने सर का ताज बना कर रखे। तंत्र और राजनीति अगर सच मे उनके बलिदान के प्रति अपना ऋण चुकाना चाहती है तो यह सुनिश्चित करे कि फिर किसी कर्नल आशुतोष शर्मा का शव तिरंगे में लिपट कर न आये। फिर किसी मेजर अनुज सूद की पत्नी विवाह के सिर्फ 4 महीनों बाद विधवा न हो। फिर किसी नायक राजेश का घर बेटे से मरहूम न हो। अपने सैनिकों के बलिदान की कीमत हमें बहुत ऊंची रखनी होगी। और उस कीमत को दुश्मन से वसूलने का सामर्थ्य पैदा करना होगा। सशक्त देश के तौर पर हम उस क्षमता को प्राप्त करें कि सैनिक अपनी शौर्य गाथा स्वयं जीवित रह कर सुनाएं। उनको वीरता पुरस्कार मरणोपरांत देने की जरूरत ही न पड़े।
विडंबना यह है कि एक ज़िम्मेदार समाज के तौर पर हम बार बार फेल हो रहे हैं। कश्मीर समस्या क्या है इसका सही हल कैसे निकले, इस पर बात शुरू करो तो सारा विमर्श चंद बिंदुओ में उलझ कर रह जाता है। जैसे पाकिस्तान का हाथ, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, पंडितों का पलायन, स्थानीय राजनीतिज्ञों की अकर्मण्यता आदि। समस्या ढूंढने भर से समाधान नही होता। समाधान करना पड़ता है। हमको समझना पड़ेगा कि कश्मीर समस्या मात्र द्विध्रुवीय बहस का मुद्दा नही है, इसके अलग अलग आयामों से बुद्धिमानी पूर्वक और साहस के साथ जूझना पड़ेगा। क्योंकि सिर्फ एक उरी या बालाकोट स्ट्राइक इसका समाधान नही है। न तो व्यापारिक संबंध विच्छेद, और न ही नदियों को रोक देना। देश पर गर्व, सेना का शौर्य आदि बहुत प्रभावी शब्द हैं किंतु जब उनको वास्तविकता से परे ले जा कर राष्ट्रवाद की चाशनी में लपेट दिया जाता है तब उसका प्रभाव चकनाचूर हो जाता है। अति राष्ट्रवाद से यदि समस्याओं को सुलझाया जा सकता तो विश्वास कीजिये, उससे सरल कुछ हो ही नही सकता था। दुर्भाग्यवश, देश का उदारवादी मानस भी इसको सिर्फ सतही रूप से ही देखता रहा है, समस्या को कभी मानवाधिकार तो कभी धार्मिक सहिष्णुता के नाम पर भटकाता रहा है। जिनको राह दिखानी चाहिए थी वह ही रोड़ा बनने को तत्पर होते रहे हैं।
हद तो यह है कि पूरे देश को लगातार परेशान कर रही इस समस्या को सुलझाने में हमारी कूटनीति और विदेश नीति के प्रयास भी अब तक प्रायः असफल ही रहे हैं। इसी लिए शायद घरेलू नीति में परिवर्तन किया गया, अनुच्छेद 370 और 35ए का हटना, एक के स्थान पर दो प्रादेशिक सत्ताओं का उदय और एक लंबे और थका देने वाले कर्फ्यू के बाद यह नीति भी आपेक्षित सफलता हासिल करती नही दीख रही है। आज के समय में जब पूरा देश, कोविड-19 नामक एक अन्य मोर्चे पर पूरी ताकत से लड़ रहा है, सारे संसाधन देश को इस आपदा से बचाने में लग रहे है, उस पर देश की सीमाओं से आने वाली शहादत की खबरें विचलित करती है।
कश्मीर को लेकर अब गड़े मुर्दे उखाड़ने का समय नही रह गया। कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं जिनके विषय मे आप आश्वस्त नही हो पाते कि इसका कौन सा समाधान उचित है। पहले भी हमने प्रयास किये, जो शायद मनचाहे परिणाम नही दे पाए, अब जो कर रहे हैं उनकी सफलता या असफलता भविष्य के गर्भ में है। आवश्यकता पड़ेगी तो भविष्य में नई संभावनाएं निकाली जाएगी। हमारा ध्यान उद्देश्य की पूर्ति पर होना चाहिए। जो बीत गया उससे सबक लें, नए मार्ग तलाशें और देश को समाधान की ओर ले जाएं।
सबसे पहला बदलाव तो यह होना चाहिए कि ‘पाकिस्तान’ शब्द के प्रति अनावश्यक झुकाव हमको त्यागना पड़ेगा। जिस तरह दुश्मन के शवों को गिनते रहने से जंग नही जीती जा सकती, उसी तरह दुश्मन देश का नाम ले ले कर पैदा किया गया राष्ट्रवाद बहुत छिछला होता है। हमको सोच बदलनी ही पड़ेगी, स्वयं की भी और एक राष्ट्र के स्तर पर भी। हमको समवेत प्रयास करने पड़ेंगे, राष्ट्र को अपना सामर्थ्य बढ़ाना पड़ेगा, राजनीतिक नफे नुकसान को दर किनार करते हुए एक दूरगामी नीति बनानी होगी। कोरोना के खिलाफ जिस तरह हम एकजुट हैं, लॉकडाउन जैसे उन मार्गों को अपना रहे हैं, जिनके बारे में कुछ दिन पहले तक सोचना भी कठिन था, तो कश्मीर मसले पर भी एक रहेंगे बस नीति नियंताओं के प्रयासों में गंभीरता और निरंतरता होनी चाहिए।
सत्ता को और समाज को भी, अपने हर एक नागरिक, हर एक सैनिक के जीवन का मूल्य समझना पड़ेगा। प्राथमिकतायें तय करनी पड़ेंगी। अत्याधुनिक संसाधनों, सबल गुप्तचर व्यवस्थाओं के बिना हम आतंकवाद और छद्म युद्ध से नहीं लड़ सकते। हमारी सेना ही यह सिखाने में समर्थ है कि दुस्साहसी प्रयास कैसे किये जा सकते हैं, संसाधनों का समुचित और प्रभावी इस्तेमाल कैसे संभव है। अनावश्यक प्रदर्शन के बिना कठिन से कठिन परिस्थितियों में जीत का वरण कैसे किया जा सकता है। बस दृढ़ इच्छाशक्ति तो पैदा कीजिये।