मानसरोवर से सिताब दियारा तक सरजू माई का सफ़र !
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तिब्बत, चीन फिर नेपाल .चीन में भी यह मानसरोवर ताल के पास से अवतरित होतो हैं .पता नहीं परिक्रमा कर आती है या सीधे चली आतीं हैं .पर नाम तो बदल ही जाता है .नेपाल में इस नदी को करनाली कहा जाता है.स्थानीय लोग इसके पानी को हिमालय का पवित्र जल मानते हैं और नाम भी इसी के हिसाब से रखा गया .गोगरा फिर यह बदला घाघरा में .पर अयोध्या आते आते यह सरजू माई हो गई . इसका मूल उद्गम स्त्रोत तिब्बत के पठार पर स्थित हिमालय की मापचांचुगों नामक पर्वत श्रेणी से माना जाता है. जो कि तालाकोट से लगभग 37 किलोमीटर उत्तर पश्चिम की ओर स्थित है .घाघरा नदी या करनाली नदी गंगा नदी की मुख्य सहायक नदी है जो कि तालाकोट से लगभग 37 किलोमीटर उत्तर पश्चिम की ओर स्थित है.हैरानी की बात यह है कि यह दो हिस्सों में विभाजित हो जाती है जिसकी पश्चिमी शाखा करनाली और पूर्वी शाखा को शिखा कहते हैं.पर यह फिर एक हो जाती हैं . लगभग 970 किलोमीटर की यात्रा के बाद बलिया के सिताब दियारा में यह नदी गंगा में मिल जाती है.पर गुजरती तो अपने गांव से ही है .साठ के दशक में स्टीमर भी चलता था और बड़ी नाव भी .कलकत्ता तो लोग इसी से जाते थे .लोचन भी जाता था कलकत्ता के जूट मिल में .साल में एक दो बार ही आता .
सरयू नदी के उस पार अपना खेत खलिहान रहा. दो तीन बार नाव से नदी पार कर अपना भी आना जाना हुआ. गोइठे की आग पर पके दूध की गाढ़ी गुलाबी दही का स्वाद अभी भी नहीं भूलता. यही सरयू रोहू भी देती थी तो झींगा भी जो दूर तक मशहूर थे. घर में शाकाहारी भोजन ही बनता था इसलिए घर में काम करने वाली लोचन बो के घर मछली बनती थी. उसका घर भी बगल में ही था. लोचन तब कलकत्ता के किसी मिल में काम करता था और स्टीमर से गांव तक आता था. शुक्रवार को उसका घर भी दिखा तो सामने की जमीन भी. यह जमीन उसने अपने घर परिवार के लोगों को बाद में बेच दी पर उसके बाद सामने रहने वाले अहीर परिवार ने दावा किया कि यह जमीन उसे भी बेच दी गई थी. अब कई सालों से मुकदमा भी चल रहा है. गांव में यह सब आम बात है. घर दरवाजे की जमीन को लेकर विवाद चलते रहते है.
मुकदमेबाजी तो ग्रामीण समाज की दिनचर्या में बदल चुका है. साठ के दशक में इस गांव के ज्यादातर घरों में आना जाना ,खाना पीना होता था. मिलने वाले आते रहते और खपरैल के घर के सामने के करीब सौ फुट लंबे ओसारे में हम खटिया पर जमे रहते थे. उनकी आवभगत गुड़ और ठंडे पानी से की जाती थी. मिठाई की जगह यही ज्यादा चलता था. पर अब गांव अनजाना सा लगा. चचेरे भाई ने बताया कि परधानी के चुनाव के बाद गांव बंट गया है. लोग अपने में सिमटते जा रहे हैं. नेवता हकारी भी कम हो गया है. गांव बहुत बदल गया है.
खैर, नदी तक पहुंचा तो गांव भी गया. वह गांव जहां बगल के छोटे से स्कूल में क ख ग सीखा था. खड़िया पट्टी पर, बाद में नरकट की कलम भी इस्तेमाल की. कदम का वह पेड़ तो नहीं मिला जिसके नीचे बैठता था पर वही बेल लदे दो पेड़ मिले. बाई तरफ पुरानी रियासत की छोटी बहू की जर्जर होती कोठी भी दिखी. बताते है कि जब उनके पति गुजर गए तो फिर वे उस कोठी में कभी नहीं गई और बनारस से आई इस छोटी बहू की कोठी सामने बनाई गई. रियासत के किस्से अब बंद हो गए क्योंकि रियासत वाली इमारतें भी ढहने लगी है और रियासत वाले भी छोटे-मोटे काम कर जीवन चला रहे है. ठीक वैसे ही जैसे कई नवाबों के वंशज इक्का-तांगा चलाते नजर आ जाएंगे. वर्ना तो एक दौर था पड़ोस की इस रियासत की इमारत के सामने न कोई जूता पहन कर निकल सकता था, न टोपी पहन कर. आज उसी रियासत की जर्जर इमारत के सामने एक ढाबा नजर आया तो तखत लगा कर दाल रोटी से लेकर चिकन कोरमा बेच रहा था. ऐसा लोकतंत्र पहली बार दिखा..