पत्रकारिता के एक तीर्थ की यात्रा

हाल ही में एक क़स्बे बदनावर में जाना हुआ। केवल बदनावर के नाम से आपको कुछ शायद नहीं आए ,लेकिन यह मध्यप्रदेश के आदिवासी ज़िले धार का एक क़स्बा है। क़रीब अस्सी नब्बे साल पहले यह छोटा सा गाँव था। इसी गाँव में 1935 में हिन्दुस्तान की आज़ादी के बाद सबसे बड़े हिंदी संपादक राजेंद्र माथुर का जन्म हुआ था। वैसे तो कई बार वहाँ गुज़रना हुआ ,लेकिन उस घर में जाना कभी नहीं हुआ, जिसमें माथुर जी ने पहली बार दुनिया को अपनी आँखों से देखा था।

वह उनके मामा जी का निवास था। कम उमर में ही माता – पिता को खो बैठे। इसके बाद मामा जी के संरक्षण में उनके भीतर विचारों की फसल पकी। मामा जी का विशाल पुस्तकालय था। उन दिनों बताते हैं कि उसमें पाँच हज़ार देश विदेश की किताबें थीं और जवान होते होते राजेंद्र माथुर इन किताबों को घोंट चुके थे। मेरी इच्छा इसी पुस्तकालय को देखने की थी।अफ़सोस ! मुझे उस धरती पर माथा टेकने का अवसर तो मिला ,लेकिन लायब्रेरी की चाबी उपलब्ध नहीं थी। इसलिए उस ख़ज़ाने के दर्शन से वंचित हो गया। यहाँ कुछ चित्र उस आवास के हैं।


बहरहाल ! बदनावर तहसील के पत्रकार साथियों ने मुझे इस तीर्थ का न्यौता भेजा था। उनका सालाना अलंकरण जलसा भी आयोजित था।चार दशक से मित्र – भाई और वरिष्ठ पत्रकार जे पी दीवान भी इस मौके पर पहुँचे थे। धार के शिखर पत्रकार साथी छोटू शास्त्री और बदनावर तहसील पत्रकार संघ के अध्यक्ष गोवर्धन सिंह और शहर अध्यक्ष पुरुषोत्तम शर्मा इस कार्यक्रम के सूत्रधार थे।

इस जलसे में नागरिक आपूर्ति निगम के अध्यक्ष और बदनावर के जन जन के प्रतिनिधि राजेश अग्रवाल ख़ास तौर पर मौजूद थे। कुल मिलाकर माथुर जी की धरती पर इस भव्य आयोजन का सन्देश यह निकला कि हमें अपने पूर्वजों की याद और उनकी विरासत को सहेज कर रखना चाहिए। राजेंद्र माथुर पर शीघ्र ही मेरी एक पुस्तक आ रही है। इस पुस्तक में उनके व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं पर जानकारी आपको मिलेगी। यहाँ प्रस्तुत चित्र कुछ आयोजन के और कुछ माथुर जी के जन्म स्थल के हैं।

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