जयप्रकाश भारत की नैतिक आत्मा

श्रद्धा के साथ संकोच का जुड़ा होना स्वाभाविक है। जयप्रकाशजी मेरे श्रद्धा-पात्र हैं और उनके बारे में कुछ कहते संकोच होता है, उस परिस्थिति में और भी अधिक जिसमें हमारा सारा राजनैतिक जीवन एक सफलतावाद से आक्रान्त हो, जिस सफलता का कोई सम्बन्ध नैतिकता से अथवा व्यवहार-शुद्धता से नहीं है, केवल सत्ता से है। आज जयप्रकाश नारायण भारत की नैतिक आत्मा हैं। यह पद उन्होंने स्वेच्छा से नहीं ओढ़ा है, परिस्थिति ने ही उन्हें दिया है। इस पद के साथ अंतर्विरोध हमेशा जुड़ा रहता है जिसे जयप्रकाशजी अच्छी तरह पहचानते हैं। ‘मैं नैतिक मार्ग-निर्देश देता रहा हूँ,’ ऐसा सोचने या मानने वाले के आचरण में एक प्रकार की अहंमन्यता आ जाती है और यह अहंमन्यता अपने-आप में एक नैतिक बाधा बन जाती है। जयप्रकाशजी में ऐसी अहंमन्यता नहीं है और इसके प्रति वह सतर्क हैं, यही बात उनके नैतिक प्रभाव को और अधिक गहराई और बल देती है। इसी सतर्कता और विनयशीलता की कमी के कारण उस आंदोलन के कई सामान्य नेता और आचार्य प्रतिष्ठा के उस पद से हट गये जहाँ हमने उन्हें रखा था। स्वयं जयप्रकाशजी भी जिस सर्वोदय आंदोलन के प्रति अपने को सर्पित करते रहे उसकी भी प्रभावकता इसलिए कम हो गयी कि उसमें एक आत्म-तुष्टि ने घर कर लिया। नैतिक आत्मा आत्म-तुष्ट कभी हो ही नहीं सकती; सारे राजनैतिक कर्म की लगातार नैतिक कसौटी करते रहना अपने-आप में एक अग्नि-तपस्या है जिसमें अहंमन्यता राख होकर उड़ जाती है। ऐसा सात्त्विक विनय महात्मा गांधी में था; वही सात्त्विक विनय जयप्रकाशजी में भी है। अभी एक महीना पहले भी उनसे बात हुई थी तो उनके चिन्तन में कहीं इस सन्तोष की वू नहीं थी कि वह रास्ता बताते हैं या बता सकते हैं; उनका मनोभाव यही थाः ‘आप कुछ बतायें कि मैं कब क्या कर सकता हूँ तो करूँ ।’

और यह विनय ही है; ऐसा नहीं है कि किसी तरह का दिग्भ्रम उन्हें हो। मैंने उन्हें देश की ‘नैतिक आत्मा’ कहा है; लेकिन ऐसा नहीं है कि वह ऐसे आदर्शवादी हैं जो व्यवहार से कटे हैं। उन्होंने जितने काम उठाये हैं उनको उन्होंने व्यावहारिक रूप दिया है। प्रत्येक के साथ वह अन्त तक नहीं चले हैं तो इसीलिए कि उनसे देश की जनता ने माँगा बहुत अधिक है, इसलिए नहीं कि उनके उठाये हुए काम अव्यावहारिक सिद्ध हुए हैं। निःसन्देह ऐसा भी है कि योजनाओं को कार्यान्वित करते-करते ही उनकी व्यावहारिकता की कसौटी भी हुई है और जिन योजनाओं का रूप कार्यारम्भ से पहले स्पष्ट नहीं था उनके लक्ष्य भी व्यवहार के दौरान ही स्पष्ट हुए हैं; लेकिन यह तो नीति पर आधारित राजनैतिक कर्म की गत्यात्मकता का ही प्रमाण है। सब कुछ पहले से स्पष्ट हो ऐसा तो पैग़म्बर के लिए होता है; राजनैतिक और विशेष रूप से नीतिप्राण राजनैतिक कर्मी के लिए तो कर्म-क्षेत्र में उतरने के बाद ही लक्ष्य स्पष्टतर होते चलते हैं।

जयप्रकाशजी आज अस्वस्थ हैं और उनका शरीर-सामर्थ्य भी सीमित है। यह बाधा स्वयं उन्हें बहुत अखरती है और सारे देश को तो इसे ले कर चिन्ता है ही। देश की जनता उनके शतायु होने की कामना करती है तो वह शुभकामना कायिक स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है; जयप्रकाशजी शतायु हों और शताधिक वर्षों तक उनके कर्म की तेजस्विता भी सारे देश को बल देती रहे, यही हम सबकी कामना है। शरीर तो मर्त्य है और मर्त्य धर्म से बंधा है। स्वयं धर्म अमृत है और जब हम जयप्रकाशजी को नैतिक आत्मा का पद देते हैं तो उन्हें धर्म-प्रेरणा के ही समकक्ष रखते हैं।

यह अमृत महोत्सव देश के आत्म-बल का भी अमृत महोत्सव हो।

संदर्भ जयप्रकाश नारायण अभिनंदन ग्रंथ 
(published by Sarva Seva Sangh Prakashan in honour of Amrit Mahotsava on completion of 75 years)

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