जय माँ गंगे
जय माँ गंगे
विमल तरंगे
हे अलकनन्दे
पतित पावनि
विधि कमण्डलिनि
विष्णुपद पावनि
शिवमन भावनि
मोक्षदायिनी
अधम मानव जन
किस मुँह से कैसे
करैं तेरी अर्चना वंदना
माँ पुण्यसलिला जननी
जनहित धरती पर
अवतरित प्रवाहित
हे मन्दाकिनी माँ
व्यथित प्रदूषित
कराहती
सुख गए तेरे
नयनो के जल
पाषाण ह्रदय
मानवका धुल न पाया
मन का मल
हतभाग्य मनुज
जिस भागीरथी माँ ने
तेरे पापों को आत्मसात कर
तुझे बनाया था पावन
वह आज बिलखती
बन घोर अपावन
रे मूरख मानव
गंगा की धारा
तेरी संस्कृति है
जिसने मानव को
अमृतपुत्र बनाया था
तू अपनी संस्कृति से ही
कब तक कितना छल
करता जाएगा
अब तो चेतो
त्रिदेवों की अदभुत थाती को
रचा बसा लो अपने जीवन में
माँ को मुक्त करो
मल से बांधों से
इसको अविरल बहने दो
हे माँ गंगे
जय माँ गंगे
- डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज