इरफान खान : “तुमको याद रखेंगे हम गुरु”
अनुपम तिवारी, लखनऊ
हमारी पीढ़ी के लिए इरफान खान का महत्व शब्दों में बांध पाना बहुत दुष्कर है। एक ऐसा अभिनेता जिसको ले कर लगभग सभी के अपने-अपने कथानक हैं। चाणक्य धारावाहिक में मगध सेनापति का रोल निभाने वाले उस दुबले-पतले, साधारण चेहरे-मोहरे वाले लड़के की तीखी नज़रें पहली नज़र में ही प्रभावित करने का माद्दा रखती थीं। चंद्रकांता धारावाहिक का बद्रीनाथ, कब उस फंतासी कथा से निकल हमारे जेहन में चस्पा हो गया पता ही नही चला। इसकी आंखें बोलती हैं सब इस राय पर एकमत हुआ करते थे, अभिनय भी दमदार था। मगर उसके साधारण चेहरे को देखते हुए यही लगता था, वह ज्यादा से ज्यादा फिल्मों में खलनायक का काम पा जाएगा, या फिर चरित्र भूमिकाओं में फँस कर नसीर साहब, अनुपम खेर इत्यादि की परंपरा को आगे बढ़ाएगा। गोया किसी को उससे खास उम्मीद नही थी।
इक्कीसवीं सदी शुरू ही हुई थी, हमारी पीढ़ी स्कूलों से निकल कर कॉलेज में कदम रख रही थी। उम्र के उस पड़ाव पर सिनेमा अब हमारे लिए सिर्फ फंतासी जगत नही रह गया था। हम उसमे रुमानियत के साथ साथ अभिनय की बारीकियों को भी समझने लगे थे। उस समय मैं घर से दूर सेना में नौकरी कर रहा था। तमाम सैन्य अनुभवों के बीच सेना की एक बात हमेशा दीगर है कि सैनिकों को अपना ‘घर’ बहुत आकर्षित करता है। इसी घर को हम टेलीफोन, चिट्ठियों, सिनेमा, लोकगीतों जैसी तमाम विधाओं में ढूंढा करते थे। मगर उन सबकी भी एक सीमा थी। कही से पता चला ‘हासिल’ नाम की एक फ़िल्म आयी है, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पृष्ठभूमि पर बनी है। ‘घर’ को ढूंढने की वही कोशिश मुझे सिनेमा हॉल तक खींच ले गयी।
उस फ़िल्म में जो दिखा, वह मुझ दर्शक के लिए सिनेमाई जादू से कम न था। फ़िल्म की शुरुआत में वही लड़का, रण विजय के किरदार में जब ठेठ इलाहाबादी अंदाज में आवाज देता है, “जान से मार देना बेटा… हम बच गए न… तो मारने में देर नै लगाएंगे।” या फिर यूनिवर्सिटी के लड़कों को उसका संबोधन “तुम लोग गुरिल्ला हो बे…गुरिल्ला वॉर पढ़े हो न… वो हमको गुंडे समझते हैं मगर हम तो क्रांतिकारी हैं।” उस एक कलाकार ने अपने बोलने के अंदाज़, और हाव भाव से हम कितने ही लड़कों को, जो इलाहाबाद शहर या उस विश्वविद्यालय से जुड़े रह चुके थे, एक झटके में ‘घर’ की यात्रा करा दी।
मुझ जैसे कितनों को जब पता चला कि, उस अभिनेता का इलाहाबाद से कोई नाता नही था, तो सहसा विश्वास ही नही हुआ। क्योंकि हम तो मान बैठे थे कि कोई भी व्यक्ति उस इलाहाबादी आत्मविश्वास और अक्खड़पन की नकल तो कर सकता था परंतु ऐसी स्वाभाविकता अभिनय में दिखा पाना दूर की कौड़ी थी।
मगर इरफान ने तो जैसे कसम खा ली थी, सबको हतप्रभ करने की। पान सिंह तोमर का वह डाकू किरदार, जब अपने भीतर के फौजी को दर्शाता हुआ व्यवस्था को ललकारता है, “बीहड़ में बागी होते हैं…डकैत तो संसद में बैठते हैं” तो कोई कह नही सकता कि यह अभिनेता चंबल की भूमि से नही उपजा। यों तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने एक से एक बेहतरीन अभिनेता दिए हैं, पर शायद ही ऐसा कोई कलाकार रहा हो, जो कि हर रोल में ऐसा महसूस करा दे, कि हम अभिनेता से नही बल्कि साक्षात उसी किरदार से रूबरू हो जाएं। वह तो जैसे किरदार को आत्मसात कर लेता था।
हमारी पीढ़ी ही नही दर्शकों के हर वर्ग ने इस अनन्य प्रतिभाशाली युवक को हृदय से प्यार किया। उसकी कला क्षेत्र-विशेष में बंधी नहीं रह सकती थी। जब पता चला कि हॉलीवुड में भी इरफान काम कर रहे हैं, तो हर भारतीय सिनेप्रेमी को यह विश्वास था कि हमारे सिनेमा को मसाला सिनेमा कह उपहास करने वाले पाश्चात्य जगत को अभिनय की बारीकियां इरफान ही सिखा सकते हैं। और उन्होंने वहां भी निराश नही किया। ऑस्कर पुरस्कार तक दौड़ लगा आये।
“लकीरें बहुत अजीब होती हैं, खाल पे खिंच जाएं तो खून निकाल देती हैं और ज़मीन पर खिंच जाएं तो सरहदें बना देती हैं।” इस संवाद की अदायगी के समय शायद इरफान एक लकीर ही खींच रहे थे, जो समकालीनों के समक्ष अपनी अभिनय प्रतिभा की लकीर को इतना लंबा कर देते हैं कि वह सिनेमा के पर्दे से निकल दर्शकों के दिल से होती हुई उनके दिमाग तक पहुँच झकझोर जाती है।
इरफान की जीवंतता उनके निभाये चरित्रों में ही नही वास्तविक ज़िंदगी मे भी साफ दिखाई देती थी। एक प्राणघातक बीमारी धीरे धीरे उनके प्राण खींच रही है, यह जानने के बाद भी उन्होंने निराश होने से इनकार ही तो कर दिया था। दर्शकों की तरह साथी कलाकारों के दिलों पर राज करने वाला यह अभिनेता उस समय भी सहज ही था। “टीटी कह रहा है स्टेशन आ गया है, उतर जाओ, मगर मैं अभी नहीं उतरूंगा, अभी तो बहुत स्टेशन आने हैं” बीमारी के दिनों में दिया गया उनका यह बयान निजी ज़िंदगी में उनका जीवट दर्शाने के लिए पर्याप्त है।
जयपुर के बेहद साधारण से परिवार में जन्मा इरफान जिजीविषा और प्रतिभा के बल पर विश्व कला जगत में छा जाता है। पैसे की कमी और भाषा की अनभिज्ञता उसे जुरासिक पार्क फ़िल्म नहीं देखने देती, एक दिन उसी फ़िल्म की नई कड़ी में वह जुरासिक पार्क के मालिक का किरदार निभाता है। हिंदी के विख्यात कवि कुमार विश्वास जब उसको यह कह कर याद करते हैं कि समूचे फ़िल्म जगत में वह अकेला ऐसा इंसान था जिससे आप कला जगत की गूढ़तम बातों पर चर्चा कर सकते थे, तो ऐसा लगता है उस व्यक्ति ने अपने क्षेत्र में पूर्णता को प्राप्त कर लिया था।
कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि लंच बॉक्स, हिंदी मीडियम, नेमसेक, लाइफ ऑफ पाई, जुरासिक पार्क, मदारी, हैदर, मकबूल, पान सिंह तोमर, लाइफ इन अ मेट्रो, सलाम बॉम्बे सरीखी कितनी ही फिल्मों को अभिनय के प्रति अपने समर्पण के बल पर जिंदा कर देने वाले इरफान इतनी जल्दी इस लोक को विदा कर जाएंगे। कलेजा चीर देने की क्षमता रखने वाली वह एक जोड़ी आंखें, मात्र 53 वर्ष की आयु में मुम्बई के कोकिलाबेन अस्पताल में सदा के लिए मुँद चुकी है। मगर दर्शकों, कला प्रेमियों और हमारी पीढ़ी सहित इस देश के मानस पटल पर इरफान हमेशा ज़िंदा रहेंगे, वो भुलाए जा सकने वाली चीज ही नही हैं। क्योंकि हमको ये भी याद है कि ‘हासिल’ में उन्होंने ही अपने उसी नायाब अंदाज़ में कहा था, “तुमको याद रखेंगे हम गुरु…कहो हाँ।”