संकट में बुद्धिजीवियों की भूमिका

शेष नारायण सिंह

शेष नारायण सिंह, वरिष्ठ पत्रकार, दिल्ली

कोरोना के संकट की समाप्ति के  बाद बहुत कुछ बदलने जा रहा है . उद्योग व्यापार की दुनिया में तो सब कुछ बदल जाएगा. पिछले एक महीने से जो लोग लॉकडाउन के तहत तन्हाई में  रह रहे हैं  या अपने परिवार के साथ रह  रहे हैं उनकी खाने की आदतें तो निश्चित रूप से बदल रही  हैं. कम से कम में गुज़र करने की स्थिति पैदा हो चुकी है. यह लोगों की आदत भी बन सकती है । ऐसी संभावना जताई जा रही  है कि आज जिस तरह से रह रहे हैं, उसी तरह से आगे भी रहने की आदतें उनकी जारी रहेंगी .अगर ऐसा हुआ तो  फालतू की  उपभोक्ता  वस्तुओं की मांग पर निश्चित रूप से भारी असर पडेगा . आज महंगे सौंदर्य प्रसाधन , शहरी जीवन जीने की ललक , गाँवों को शहर जैसा बनाकर विकास का दावा करने वालों को अपनी सोच पर फिर से विचार करना  पड़ रहा  है .

भारत विशेषज्ञ प्रोफेसरों और चिंतकों की चिंता है कि कोविड-१९ के आतंक के ख़त्म होने के बाद किस तरह से उन औद्योगिक मजदूरों को शहरों में वापस बुलाया जाए और किस तरह से  उद्योगों को फिर से चालू किया जाय .वे मानकर चल रहे हैं कि लॉकडाउन के खतम होते ही सब कुछ पहले जैसा हो  जाएगा .  लॉकडाउन का स्विच ऑन होते ही सारे उद्योग उसी तरह से चलने लगेंगे . लेकिन सच्चाई इससे बहुत दूर है . सौन्दर्य प्रसाधन, कार , मोटर साइकिल , विज्ञापन के बल पर ग्रामीण  भारत में   ऐशोआराम की चीज़ों की ज़रूरत का फर्ज़ी निर्माण करने का माहौल बनाकर वहां उपभोक्ता वस्तुओं का नक़ली बाज़ार बनाकर देश की बड़ी आबादी  को उद्योगों में पैदा की गयी मैगी, ब्रेड , बिस्कुट ,कुरकुरे आदि बेचने वाली बहुराष्ट्रीय  कंपनियों को मालूम  है कि गाँव में जो लोग इन चीज़ों के बिना, अपने खेत से उपजे हुए अनाज, दाल , सब्जी आदि से महीने से ज्यादा से  गुज़र कर रहे  हैं , उपभोक्ता आचरण एक निश्चित स्वरुप ले रहा  है .  बड़ी कंपनियों में  बनाई गयी  खाने पीने की चीज़ों के बिना भी अभी ग्रामीण भारत में लोग आराम से रह रहे हैं . ज्यादातर किसान इस बात के लिए तैयार हो रहे हैं कि कम से कम में गुज़र किया जा सकता है . अभी अडतालीस साल पहले बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई में भारतीय सेना शामिल हुयी थी. तीन हफ्ते से कम समय तक वह लड़ाई  चली थी. कहीं कोई उद्योग बंद नहीं हुआ था.  सीमावर्ती इलाकों को छोड़कर देश में ज्यादातर  इलाकों में रहने वाले लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर कोई प्रभाव नहीं  पड़ा था .लेकिन उस युद्ध का आर्थिक बोझ कई वर्षों तक देश क झेलना पड़ा था . उन दिनों दूर रहने वाले अपने सम्बन्धियों  के हाल चाल जानने का मुख्य साधन पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्र ही हुआ करते थे . बंगलादेश युद्ध के बाद सभी  पांच पैसे के सभी पोस्ट कार्डों और दस पैसे के अंतर्देशीय पत्रों पर दो पैसे  का अतिरिक्त टिकट लगने लगा था. यह व्यवस्था कई साल तक चली थी.इसके अलावा लगभग सभी टैक्सों पर बंगलादेश सरचार्ज लग गया था . नतीजा यह हुआ  था कि  महंगाई की एक लहर सी आ गयी थी. जो बाद तक चलती रही. बांग्लादेश सरचार्ज खतम होने के बाद भी हमेशा की तरह ताक़तवर हो चुके व्यापारी और उद्योगपति वर्ग ने कीमतें कम नहीं कीं.  युद्ध के बाद लगे टैक्स  आदि को ज्यों का त्यों  रखा  और सरकारी खजाने में जमा करने की जहमत न उठकार उसको चीजों की मूल कीमत में ही जोड़ दिया . १९६७ की हरित क्रान्ति की उपलब्धियों के बाद आई ग्रामीण भारत में  थोड़ी बहुत सम्पन्नता उसी बंगलादेश के दौरान  हुए युद्ध के खर्च में समा गयी थी.

युद्ध के बाद हमेशा से ही आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में परिवर्तन होता है . इंसानी व्यवहार में भी ज़बरदस्त बदलाव होता है . युद्ध के जो  पारंपरिक तरीके हैं उनमें हथियार चलते हैं , जानें जाती हैं , अर्थव्यवस्था चौपट होती है. उद्योगों का सारा ध्यान युद्ध के खिलाफ चल रहे राजकीय अभियान  में होता और सारे संसाधनों को युद्ध को समर्थन देने के  लिए लगा  दिया जाता है. युद्ध में घायल हुए लोगों की  देखभाल के लिए सभी  चिकित्सा सेवाएँ सिपाहियों या हमले की हिंसा से प्रभावित सामान्य लोगों के लिए लगा दी जाती हैं . आम तौर पर  देशों की बड़ी आबादी युद्ध से प्रभावित होती है . युद्ध के बाद सामान्य जीवन की बहाली में काफी समय लगता है .

भारत ने 1962 , 1965 और 1971 में युद्ध को  करीब से देखा है . समकालीन इतिहास के प्रत्येक विद्यार्थी को मामूल है कि उन तीनों ही युद्धों के बाद भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था  के साथ साथ  राजनीतिक  आचरण में भी परिवर्तन आया था . लेकिन भारत में   हुए  यह युद्ध केवल  कुछ हफ़्तों तक चले थे और दूसरे विश्वयुद्ध की तुलना में बहुत छोटे थे . दूसरा  विश्वयुद्ध दुनिया के विभिन्न मोर्चों पर करीब छः साल तक  चला था .

पेरिस, लंदन, वारसा, ओस्लो, कोपेनहेगन जैसे शहर तबाह हो गए थे. उन युद्धों में हमलावर देश जर्मनी , इटली और जापान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ज़मींदोज़ हो चुकी थी. उन शहरों और देशों को दुबारा पटरी पर आने में कई साल लगे थे . हारे हुए देशों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पडी थी.  ब्रिटेन, फ्रांस , पुर्तगाल, स्पेन आदि का  एशिया और अफ्रीका के देशों में जमा हुआ वर्चस्व ख़त्म होने लगा था. इन साम्राज्यवादी देशों के उपनिवेशों में  आज़ादी की लड़ाइयाँ तेज़ हो गयी थीं. नतीजा यह हुआ  कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भारत समेत बहुत सारे देशों को राजनीतिक आज़ादी मिली थी. हारे हुए जर्मनी और उसके  सहयोगी देशों के कब्जे वाले इलाकों को विजयी देशों ने आपस में बाँट लिया था . जितना दम्भी आजकल अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप है लगभग उतना ही बदतमीज उन दिनों ब्रिटेन का प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल हुआ करता था. ब्रिटेन उस दौर का दुनिया का सबसे ताक़तवर देश था लेकिन अपने देश समेत यूरोप के बहुत सारे देशों को हिटलर की युद्ध मशीनरी के हमले से बचाने के लिए चर्चिल को  सोवियत नेता स्टालिन का साथ मांगना पड़ा था और युद्ध के बाद  हुए जर्मनी के प्रभाव वाले इलाकों के  बँटवारे में सोवियत रूस को भी पूर्वी यूरोप के देशों का प्रभुत्व मिल गया था.

इसलिए मौजूदा कोरोना  संकट को भी युद्ध , बल्कि भयानक युद्ध की श्रेणी में ही रखा जाना चाहिए क्योंकि सामने से कोई दुश्मन  तोप बन्दूक लेकर हमला तो नहीं कर रहा है लेकिन अनिष्ट की आशंका युद्ध जैसी ही है और युद्ध की ही मानिन्द आर्थिक गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित हुयी  हैं . इसलिए युद्ध की विभीषिका और उसके बाद के नतीजों को उसी तरह से समझने की कोशिश की जायेगी तो  भावी संभावनाओं को समझने में आसानी होगी. इतिहास के पास पहले और दूसरे , दोनों ही विश्वयुद्धों के बाद की यूरोप की स्थिति को समझने के लिए महान दार्शनिकों के सन्दर्भ बिंदु उपलब्ध हैं .

पहले विश्वयुद्ध के दौरान ही रूस के  जार के  आतंक से मुक्ति की महान , बोल्शेविक क्रान्ति जैसी घटना हुई थी . कामरेड लेनिन ने आने  वाली पीढ़ियों के राजनीतिक , सामाजिक, मानवीय और व्यक्तिगत संबंधों के  मार्क्सवाद पर आधारित   दर्शन को राजसता के सबसे महत्वपूर्ण अस्त्र को रूप में दुनिया को सौंप दिया था . अगले सत्तर वर्षों तक मार्क्सवाद की राजनीति ने दुनिया के सामूहिक आचरण को प्रभावित किया  था. यह वही दौर है जब स्पेनी इन्फ्लुएंजा ने भी दुनिया के सामने मौत का खौफ खड़ा कर दिया था .उसी दौर में फ्रैंज काफ्का के लेखन का शिखर भी देखा गया . हालांकि 40  साल की उम्र में ही उनकी मृत्यु हो  गयी लेकिन समाजवाद को  समझने में उनके समकालीन विद्वानों  ने तो उनको ज़रूरी महत्व नहीं दिया लेकिन बाद में उनको एक महान कहानीकार , साहित्यकार  और दार्शनिक के रूप में पहचाना गया .मानवीय  संवेदना  का जो काफ्का का तसव्वुर है  उसमें पहले युद्ध के पहले और बाद की रचनाओं  में कई जगह तो विरोधाभास भी देखे जा सकते हैं  . उनको समाजवादी भी कहा गया लेकिन उन्होंने मार्क्स के ‘अलगाव की भावना वाले सिद्धांत ‘ की अलग व्याख्या करके एक नई बात कहने की कोशिश की . जिसकी  वजह से उनकी आलोचना भी हुई.  यह अलग बात है कि उनकी मौत के बहुत बाद उनको बहुत सम्मान के साथ देखा गया . डब्लू एच आडेन ने उनको बीसवीं  सदी का दांते कहा ,व्लादिमीर नाबकोव ने उनको पिछली  शताब्दी के महानतम लेखकों में शुमार किया . कहने का मतलब यह है कि ऐसी घटनाएं जिनसे जानमाल का ख़तरा दुनिया  भर के सामने आ जाता है , उन घटनाओं से आने वाला समय बहुत अधिक प्रभावित होता है .

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद फ्रांस पर हुए हमले के दो चश्मदीद  लेखकों की नजीर  पता  है. अलबर्ट कामू और ज्यां पॉल  सार्त्र और उनके समकालीनों के लेखन से साफ़ पता लग जाता है युद्ध के बाद हर क्षेत्र में भारी बदलाव होते हैं . एब्सर्ड और अस्तित्ववादी सोच ने दुनिया को बहुत प्रभावित किया है और उसमें कामू और उनके समकालीनों की समझ का बड़ा योगदान है . 1945  के बाद पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद से अलग होकर आजादी के लिए जो जद्दो-जेहद हुई है उसको उस दौर के साहित्य और रिपोर्टों से समझा जा सकता है . उन्होंने नीत्शे को भी कभी  माना लेकिन उनकी आलोचना भी की, अस्तित्ववाद को भी  माना लेकिन खुद ही स्वीकार किया कि उनकी किताब ‘ मिथ आफ सिसिफस  ‘ वास्तव में अस्तित्ववाद के बहुत से तत्वों की आलोचना भी है .

इस बार भी  कोरोना के खिलाफ हर देश में  अभियान चल  रहा है .हर देश में मौत का आतंक चारों तरफ फैला हुआ है . हालांकि यह भी सच है कि भारत जैसे देश में अभी मौत ने वः विकराल रूप नहीं लिया है लेकिन आशंका प्रबल है . दुनिया भर में क्या हो रहा  है , वह तो खबरों के ज़रिये सबको पता है लेकिन  भारत की राजधानी और उसके आसपास हो रहे मानवीय संकट को करीब से देखने समझने के बाद मुकम्मल तरीके से कहा जा सकता है कि हालात अच्छे नहीं हैं  .

इस बात में दो राय नहीं है कि हमारे शासकों ने कोरोना की बीमारी के संभावित खतरे को सही तरीके से नहीं  आंका . सारे फैसले अफरातफरी में  लिए गए .इस बात को साबित करने के लिए एक ही उदाहरण काफी होगा.  11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना को भयानक महामारी घोषित कर दिया था लेकिन 13  मार्च को हमारी सरकार ने घोषणा की कि भारत में किसी तरह की मेडिकल इमरजेंसी नहीं है . उसके चार दिन बाद ही प्रधानमंत्री ने पूरे देश  को बताया कि देश भयानक  स्वास्थ्य संकट से गुज़र रहा है . फिर ताली बजाने और दिया जलाने वाले फैसले आये .  सत्ता के करीबी कुछ मूर्ख और अहमक लोगों ने   गाय के पेशाब और गोबर से इलाज की बात को भी चलाया . अजीब बात यह है कि किसी भी सरकारी उच्चाधिकारी ने इनके खिलाफ कोई कार्रवाई  नहीं की .

एकाएक लॉकडाउन की घोषणा कर दी गयी. ज़ाहिर है की बिगड़ चुके हालात में वही  रास्ता  सही था लेकिन अगर समय से ज़रूरी क़दम उठा लिए गए होते तो यह नौबत ही न आती . बहरहाल सरकार के बिना किसी तर्क के लिए गए फैसलों के चलते देश में आज चारों तरफ अफरातफरी का माहौल है . उद्योग धंधे चौपट हैं , छोटे व्यापारी सड़क पर आकर भीख मांगने  की आशंका से आतंकित हैं लेकिन इन फैसलों की अभी आलोचना नहीं की जायेगी . 

इस संकट के ख़त्म होने के बाद उसकी विधिवत विवेचना होगी और लोगों की जिम्मेदारियां ठहराई जायेंगी. लेकिन एक बात तय है कि आर्थिक,  सामाजिक और मानवीय हर स्तर पर कोरोना के मुकाबले के तरीकों से उपजे कुप्रबंध के चलते भावी भारतीय समाज भी  बदलेगा  और राजनीति निश्चित रूप से बदलेगी . इसलिए देश के बुद्धिजीवियों को आने वाले समय की भयावहता का आकलन करना चाहिए और देश के  लोगों  को आगाह करना चहिये जैसे अपने अपने समय में काफ्का. कामू और सार्त्र ने  किया था . 

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