लखनऊ सैन्य साहित्य सम्मेलन में 1962 के भारत-चीन युद्ध की याद
लखनऊ सैन्य साहित्य सम्मेलन
1962 में शुरू हुए भारत-चीन युद्ध को 10 अक्टूबर को 59 साल पूरे हो गए. पिछले कुछ समय से भारत से सटी अलग अलग सीमाओं पर चीन जिस तरह से घुसपैठ करने और अशांति फैलाने की कोशिश कर रहा है, या धोखे से भारतीय सैनिकों पर हमले कर रहा है, उसके बाद 1962 का भारत चीन युद्ध एक बार फिर से सबके जेहन में ताजा हो गया है.
16 जून 2020 को पूर्वी लद्दाख के पैंगोंग झील और सिक्किम के नाथू ला दर्रा के पास देश ने चीन के कारण जिस तरह से अपने भारतीय सैनिकों को खो दिया, पूरा देश आज भी उस दर्द को भूल नहीं पाया है. हालांकि इस बीच चीन देश की आंतरिक और बाहरी, दोनों ही शांति को भंग करने के लिए अलग अलग ढंग से कोशिश करता दिख रहा है. ऐसे माहौल में चीन के साथ भारत के युद्धों की याद जेहन में ताजा होना लाजिमी है. 1962 के भारत चीन युद्ध की शुरुआत को 59 साल पूरे होने के पर लखनऊ में एक वर्चुअल कार्यक्रम का आयोजन किया गया.
उन कभी न भूल पाने वाले दिनों को याद करते हुए 10 अक्टूबर को Military Literature and Cultural Festival Foundation के अध्यक्ष मेजर जनरल हेमंत कुमार सिंह ने लखनऊ सैन्य साहित्य सम्मेलन कार्यक्रम का वर्चुअल मीडियम से आयोजन किया.
लखनऊ सैन्य साहित्य सम्मेलन के छठे सत्र का संचालन Maj Gen HK Singh ने किया. लखनऊ सैन्य साहित्य का आयोजन वर्चुअल मीडियम से किया गया, जिसमें इस क्षेत्र के विशेषज्ञों ने अपनी बातें रखीं.
लखनऊ सैन्य साहित्य सम्मेलन “1962 के युद्ध की कुछ अनसुनी और अनकही बातें” पर चर्चा के दौरान, सत्य घटनाओं पर आधारित, “बोमडिला” उपन्यास के लेखक प्रोफेसर अविनाश बीनीवाल ने कहा, विषम परिस्थितियों में भी भारतीय सैनिकों की, निस्वार्थ भावना से प्रेरित देश प्रेम अनुकरणीय है, 1962 के भारत-चीन युद्ध के संबंध में लेखकों के उद्गार- “भारतीय सैनिक नहीं हारे, सरकार हार गई थी.
“बोमडिला” उपन्यास, देश में संस्कृत समेत’ सात भाषाओं में अनुवादित हो चुका है. इस उपन्यास का लेखन 1962 के युद्ध क्षेत्र में बसे आम जनों की बेबाक राय और कथानक पर आधारित है.
यहां इस तथ्य को दोहराना आवश्यक है कि 10 अक्टूबर 1962 के दिन, नाम-का-चू घाटी में भारत और चीनी सेनाओं के बीच बड़ी झड़प हुई थी, जिसके बाद, 20 अक्टूबर 1962 को, चीनी सेनाओं ने नेफा और लद्दाख के क्षेत्रों में सुनियोजित ढंग से भारत पर आक्रमण कर दिया था.
पुणे स्थित प्रोफेसर बेनीवाल ने कुछ अनसुने तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि शत्रु देश ने किस प्रकार भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में गुप्तचरों का जाल फैला रखा था, जो कि चिंता का विषय होना चाहिए था परंतु असफल तंत्र में संभवतः यह भी अनदेखा रह गया.
प्रोफेसर बेनीवाल ने विदेशी सैनिकों से अपने साक्षात्कार और अनुभवों का जिक्र करते हुए कहा कि अन्य देशों की अपेक्षा, भारतीय सैनिकों का देश के प्रति सेवा-भाव, निस्वार्थ है इसलिए अनुकरणीय भी.
परिचर्चा में भाग लेते हुए एक अन्य लेखिका, प्रयागराज विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर नीलम शरण गौड़ ने अपनी पुस्तक “62 की बातें” के कुछ मुख्य अंशों का उद्धरण करते हुए युद्ध काल के सामाजिक परिवेश का ताना-बाना बुना.
युद्ध के दौरान भारतीय सेना के पास संसाधनों की कमी का एहसास, भारतीय जनमानस को इतना झिंझोड़ गया कि बच्चों ने गुल्लक बना, आस-पड़ोस से चंदा एकत्र करने का प्रयास कर, अपनी राष्ट्रीय चेतना की पुष्टि की.
इसी प्रकार महिलाओं ने अपने आभूषण और छोटी-छोटी बचत से जमा पूंजी, सरकार द्वारा स्थापित “इंडिया डिफेंस फंड” में दान कर दिया था. यद्यपि कालांतर में इस फंड के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु अनुमानतः जनभागीदारी से लगभग ₹80 करोड़ एकत्र हुए थे. यह खेद का विषय है कि इस फंड का कुछ अंश लापता बताया जाता है.
प्रोफेसर नीलम शरण ने अपने लेखन के माध्यम से सुदूर उत्तर-पूर्व में लड़े गए भारत चीन युद्ध का, समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का, सशक्त चित्रण किया है.