भारतीय सांस्कृतिक रिक्थ और पर्यावरण
डा चंद्र्विजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज
भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि मानव पञ्च महातत्वों –जल ,अग्नि ,आकाश, पृथ्वी ,तथा वायु से मिलकर ही बना है जिसे पञ्च महाभूत भी कहा जाता है | वैदिक काल से ही इन्हें देवता माना जा रहा है ,यही पर्यावरण है |विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में कहा गया –
उरुव्यचसा महिनी असश्चता पिता माता च भुवनानि रक्षतः ,
सुधृष्टमें वापुश्यें रोदसी पिता यात्सिमभी रुपैर्वासयत | –ऋग्वेद 1/160/2
अर्थात ,विस्तीर्ण महान एवं एक दूसरे से अलग माता एवं पिता रूप धरती- आकाश समस्त प्राणियों की रक्षा करते हैं |अत्यंत शक्तिसंपन्न धरती -आकाश शरीरधारियों के हित के लिए चेष्टा करते हैं तथा माता -पिता के सामान सबका लालन पालन करते हैं |
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के ही एक दूसरी ऋचा में कहा गया है –
ते ने ग्रिनाने महिनी महि श्रवः क्षत्रं द्यावापृथ्वी धासथो बृहत्
येनाभि क्रिष्टिस्तातानामविश्वहा पनाय्यमोजी अस्मे समिन्व्तम |ऋग्वेद 1 /160 /5
अर्थात ,हमारे द्वारा जिस धरती और आकाश की स्तुति की जाती है ,वे महान हैं और हमें सर्वत्र प्रसिद्ध अन्न और यश देते हैं ,इन्हीं के बल पर हमने पुत्र आदि प्रजाओं का विस्तार किया है ,तुम हमें प्रशंसा योग्य शक्ति प्रदान करो |
अथर्ववेद के बारहवें खंड के सूक्त -1की तिरसठ ऋचाएँ तो मानव का प्रकृति के साथ तादात्म्य की आधारशिला ही है , उदघोषित करती है कि–माता भूमिः पुत्रोहम पृथिव्याः ,पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तुह –अथर्ववेद -12/1/12 -अर्थात भूमि मेरी माँ है और आकाश मेरे पिता हैं ,ये दोनों मेरे यज्ञ कर्म को पूर्ण करते हैं |
अथर्ववेद के मन्त्रदृष्टा ऋषि ने उद्घोष किया –विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी अथर्ववेद 12/1 /6-अर्थात पृथ्वी वनों को धारण करनेवाली तथा संसार के प्राणियों का भरण पोषण करने वाली है |
पर्यावरण संरक्षण को भारतीय संस्कृति में विशेष महत्त्व दिया गया |मानव और प्रकृति के सम्बन्ध को ऋषियों मुनियों ने बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि से परखा |
पृथ्वी को माता कहने के साथ ही वृक्ष वनस्पतियों ,जंगल, पहाड़ ,नदी को देवतुल्य माना गया |तुलसी ,पीपल ,वट ,आंवला, नीम आदि में अलग अलग देवों के दर्शन किये गए जो पृथ्वी की पर्यावरण की रक्षा करते हैं |अथर्ववेद में कहा गया –
यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्व्दानो देवा भूमिं पृथवीमप्र्मादम
सा नो मधु प्रियं दुहामथोउक्षतु वर्चसा | अथर्ववेद -12 /1 /7 अर्थात देवगण जागृत रहते हुए अथवा सावधान रहते हुए जिस पृथ्वी की रक्षा करते हैं ,वह पृथ्वी हमें मधु ,धन और बल से युक्त करें |जंगल ,पहाड़ ,नदी ही वह देवता हैं जो पृथ्वी की रक्षा करते हैं और पृथ्वी हमें धन ,धन और बल प्रदान कर हमारा लालन पालन करती है |सम्पूर्ण जैवमंडल -बायोस्फियर का नियमन ,उसका सम्मान और संरक्षण ही संस्कृति है |
मानव प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है जो आज विकास की अंधी दौड़ में आत्महंता हो गया है ,उसकी तृष्णा शांत नहीं हो रही है |प्राकृतिक संसाधन असीम नहीं होते अतः इनका उपयोग मर्यादा और संयम से होना चाहिए |आज का मानव उसकी व्यवस्था ,उसकी सरकारें भौतिक उपलब्धि की मृगमरीचिका में ऐसे उलझ गए हैं कि विकास का अर्थ अब विनाश होता जा रहा है |
जब तक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन समाज के प्रभुत्व वर्गों के हित में होता रहेगा ,प्रकृति और पर्यावरण के असंतुलन को रोका नहीं जा सकेगा | प्रकृति जहाँ जननी स्वरूपा है वह अपनी संतान के पालने पोसने के लिए समर्पित है ,इस सांस्कृतिक चेतना से इतर जब प्रकृति को भोग्या के रूप में उस पर अधिपत्य जमाकर विकास को गतिशील किया जाने लगा तो पर्यावरण असंतुलित हुआ और समाज को विनाश के ब्लैक होल में झोंक दिया गया |
विकास से विनाश का ताजा उदाहरण है –जोशीमठ की त्रासदी |हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएँ दरक रही हैं |लगभग एक हजार घर दरकने की स्थिति में हैं |घोर सर्दी के मौसम में बेबसी के आंसू बहाते हजारों लोगों को अपने मूल से विस्थापित होना पड़ रहा है |क्या बिडम्बना है कि बिना पर्यावरणीय मानकों की परवाह किये हिमालय की छाती पर होटल और रिसार्ट बनाए गए ,अब गिराए जा रहें |आदि शंकराचार्य जो भारतीय संस्कृति के उन्नायक थे उनकी तपोभूमि ,वह कल्पवृक्ष जो उनकी तपस्या का साक्षी रहा कभी भी अपना अस्तित्व खो सकता है |पर्यावरण के साथ राक्षसी कृत्य –वनों की कटाई ,विद्युत परियोजनाएँ , सड़कों का चौड़ीकरण ,तीर्थस्थानों को पर्यटन और मौज मस्ती का स्थान विकसित करने की असांस्कृतिक पहल ने हिमालय के देवत्व पर प्रहार किया है |अनियमित रूप से बस रहे नैनीताल का माल रोड धंस रहा है | कर्णप्रयाग और बेरीनाग जैसे शहरों में खतरे की आहट सुनाई पड़ने लगी है |
जोशीमठ की घटना पहली घटना नहीं है |2013 के केदारनाथ की त्रासदी अभी देश भूला नहीं है जब 13जून से 17जून के बीच भारी बारिश के बाद चौराबाड़ी ग्लेशियर पिघल गया ,जिससे मंदाकिनी ने विकराल रूप धारण कर लिया था | इस आपदा में पचास हजार से अधिक ही जनहानि हुई थी |यह पर्यावरण के साथ असांस्कृतिक व्यवहार के कारण नगाधिराज हिमालय का विक्षोभ था |
7 फरवरी 202 1 अभी सूर्योदय हुआ ही था की जोशीमठ से 25 किमी दूर की घाटी में रैनी गाँव के पास ,ग्लेशियर हिमखंड के अचानक टूट जाने से ऋषि गंगा नदी पर निर्माणाधीन 40मेगावाट का पावर प्रोजेक्ट पूर्ण रूप से बह गया |जोशीमठ से 15किमी दूर तपोवन में धौली नदी पर NTPC द्वारा निर्माणाधीन 540 मेगावाट का पावर प्रोजेक्ट ध्वस्त हो गया |इस बाढ़ की चपेट में कई महत्वपूर्ण पुल भी टूट गए 150से 200 लोगों की जनहानि हुई |विगत वर्षों से लगातार उत्तराखंड को विकास के पथ पर प्रशस्त करने के लिए सड़क, बाँध तथा अन्य निर्माण कार्यों के लिए हजारों टन डायनामाईट से हिमालय को दहला दिया गया| हिमालय की पहाड़ियाँ इतनी संवेदनशील हैं की यदि एक पटाका भी वहां फोड़ा जाए तो उसके धमाके के प्रभाव से हिमालय त्रस्त हो जाता है |सड़क बनाने में अंधाधुंध वनों और वृक्षों की कटाई न केवल पर्वतीय क्षेत्र में वरन पूरे भारत में एक्सप्रेस वे की धूम में विशाल विशाल वृक्ष काट दिए गए |
आज हिमालय खतरे में है, जिसे महाकवि कालिदास ने –हिमालयो नाम नगाधिराजः कहा पुराण में जिसे देवरूप में पूजा गया ,जिसके धवल श्रिंग कैलाश पर पिनाकपाणी ,ज्ञान के आदि देव महादेव का धाम है |हिमालय के कण कण में कल्याणकारी शिव का वास है |प्रकृति की लीलास्थली हिमालय जहाँ सौन्दर्य और वैभव की सम्पूर्णता की अनुभूति होती है |हिमालय ,जीव जगत की विविधता की सम्पदा से आच्छादित ,पुण्यसलिलाओं की जन्मस्थली जहाँ ब्रह्मज्ञान प्राप्ति के लिए उन्मुक्त विचरण करते रहते हैं ,उसका ध्यान भंग हो रहा है ,वह कुपित हो रहा है |यह कोप खतरनाक है जिसपर ध्यान देना आवश्यक है |उत्तर के तुषार से भारत देश की रक्षा करते हुए हिमालय ने इस देश को ऋतुओं का जो वरदान दिया है उससे यह देश विश्व के अन्य देशों की तुलना में एक विशिष्ट भौगोलिक स्थिति में है |हिमालय मानसून का आवाहन करता है जिसके गोद से निकली नदियाँ मैदानी क्षेत्र को उर्वर बनाती हैं ,कृषि सम्पदा पोषित करती हैं |
वृक्ष हमारे लिए अत्यंत उपयोगी हैं |यह हमारे लिए प्राणवायु आक्सीजन उत्सर्जित करते है ,कार्बनडाईआक्साइड का अवशोषण करते है |जल को सोखकर वायु में आर्द्रता प्रदान करते है | मिट्टी की रक्षा करते है ,पशु पक्षियों को आश्रय देता है ,मानव को भोजन कपड़ा मकान देता है |छाया देता है ,हरियाली देता है ,फल-फूल देता है और अंत में ईंधन बन जाता है |यही पेड़ों का समूह जब वन बन जाता है तो वर्षा को संतुलित करता है ,मौसम को नियंत्रित करता है |मिट्टी के कटाव और बहाव को रोकता है ||ध्वनि को कम करता है |ऐसे परोपकारी वन देवों को क्रूरता से नष्ट करना भारतीय सांस्कृतिक रिक्थ नहीं रहा है |अग्निपुराण में उल्लेख आता है कि अनैतिक रूप से वृक्षों के काटने से अतिवृष्टि और अकाल पड़ता है –यिते पत्र विच्छेदम सुपष्पम फल्निस्ताये अनावृष्टि भय घोर तकस्मनदे से प्रजायते |भवभूति ने वनस्पति जगत को देवता कहा –हास्मैदान्य गुरुवे तरुवे नमस्ते |वेद ने पृथवी ,औषधि और वनस्पतियों की शान्ति के साथ सर्वारिष्ट के शान्ति की कामना की है –ओउम द्यौ शांतिः ,पृथ्वी शान्तिः ,औषधअह शान्तिः ,वनस्पतयः शान्तिः सर्वारिष्टह शान्तिः हि |जबतक ये शान्ति रहेंगे मानव के साथ पर्यावरण का वरदान अक्षुण्य रहेगा |
अभी तक ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में मानव की जितनी भी जानकारी है ,हमारी धरती ही ऐसा पिंड है जिसके पर्यावरण में जीवनदायिनी परिस्थितियां उपस्थित हैं |सम्पूर्ण धरती पर जलवायु की विविधता के साथ साथ जी व जन्तुओं की भी विविधता है |ऐसा वैज्ञानिकों का मत है की धरती पर जीव की लगभग एक करोड़ प्रजाति है, पर वैज्ञानिक अभी तक केवल पंद्रह लाख प्रजातियों के सम्बन्ध में जानकारी कर पायें हैं |जैविक विविधता की माया बड़ी विचित्र है– कोई भी दो जीव प्रजातियाँ अपने पर्यावरण का उपयोग सामान रुप् से नहीं करती |किन्ही दो प्रजातियों के आनुवांशिक सूत्र भी सामान नहीं होते |एक प्रकार के जीव जीवन जीते हुए पर्यावरण से कुछ लेते हैं तो पर्यावरण को कुछ देते भी हैं ,वे जो कुछ देते हैं वे किसी दुसरे प्रकार के जीवों के लिए उपयोगी होता है |एक प्रकार के प्रजाति के जीवों का शारीर जिन जैव रसायनों को अपने जीवन यापन में निर्मित करता है वह वही बना सकता है दूसरा नहीं |यदि वह लुप्त हो जाता है या उसकी कमी हो जाती है ,तो उन रसायनों की कमी पर्यावरण में भी हो जायेगी |इससे पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है और विक्षोभ उत्पन्न होता है |इस प्रकार पर्यावरण संरक्षण के लिए जैव विविधता आवश्यक है शास्त्रों में जीवों की रक्षा की कामना की गयी –पिता माता च भुवनानि रक्षतः |
विचार करने की आवश्यकता है कि सभ्यता की और विकास के कदम बढ़ाते हुए इस वैज्ञानिक युग में हम कितनी अज्ञानता निरंतर करते जा रहे हैं |वानस्पतिक और जैविक दोनों विविधता पर हम प्रहार करते रहे |कुछ ही पेड़ पौधे और शाक सब्जियों के उत्पादन पर ध्यान दिया जा रहा है ,तमाम प्राकृतिक वनस्पतियों को सड़क ,मकान बनाने में नष्ट कर दिए गए |वन्य प्राणी और वनस्पतियाँ पर्यावरण की प्रतिरोधक शक्तियां हैं इनकी रक्षा करना भारतीय संस्कृति का उद्देश्य रहा है |शास्त्रों में कहा गया है –
यावद भूमंडलम धत्ते सशैलवनकाननम ,तावद तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्र पौत्रिकी |
अर्थात ,जबतक धरती पर वनजीवों से संपन्न वन हैं तबतक धरती मानव वंश का पोषण करती रहेगी |
तीर्थराज प्रयाग भारतीय संस्कृति का केंद्रबिंदु
तीर्थराज प्रयाग भारतीय संस्कृति का वह केंद्रबिंदु युगों से है जहाँ पुण्यसलिला गंगा -यमुना -सरस्वती का संगम होता है |गंगाजल की अलौकिक शक्ति के कारण ही इसकी तुलना अमृत से की जाती है |सनातन धर्म में इसे पतितपावनी ,पापनिवारनी कहा गया है |गंगा दर्शन ,गंगा तटवास ,गंगाजल सेवन तथा अंतिम समय में गंगा तट वास पर मुक्ति की कामना हिंदुओं के ह्रदय में सदैव बनी रहती है |विश्व के अनेक वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में गंगाजल के विशिष्ट गुणों और कीटाणुनाशक क्षमता को सिद्ध किया गया |दुर्भाग्य है की माँ गंगा के अमृतस्वरूपा पर प्रश्न चिह्न लगता जा रहा है |विभिन्न उद्योगों के अपशिष्ट ,नगरों के कूड़ा कचरा ,सीवर के मल आदि के प्रवाहित करने के कारण आज गंगा जल शुद्ध नहीं है ,न नहाने योग्य है और न आचमन योग्य |अरबों रूपये सरकारी खजाने से व्यय करने के उपरांत भी गंगा प्रदूषित होती जा रही है |बाँध से गंगाजल को रोक लिया जा रहा है ,बिजली उत्पादन की तृष्णा में वैज्ञानिकों की इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है की अगले सौ वर्षों में यदि यही हाल रहा तो यमुना गंगा जैसी पतित -पावनी नदियाँ सूख सकती हैं फिर कौन सींचेगा सनातन धर्म को ,हिन्दू धर्म को ,मानव धर्म को |अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया –शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु -अर्थात पवित्र जल हमारी देह को सींचे |पवित्रेणपृथिवी मोंत पुनामि –अर्थात हे पृथ्वी मैं अपनी देह को पवित्र जल के द्वारा पवित्र करता हूँ |यह श्रुतिवचन ग्रंथों में लिखा रहने के लिए ही रह गया |गंगा माँ मोक्ष के साधन के बजाय विलास का माध्यम बनाई जा रही है |बिडम्बना है कि आज के मानव के लिए शुद्ध जल दुर्लभ हो गया है ,बाजारू संस्कृति में आदमी बोतल का पानी लेकर घूमता है |हजारों साल पूर्व ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा ऋषियों को ज्ञात था की जल ही भेषज है .–
आप इद्वा उ भेषजीरापो अमिवचातनी ,आपः सर्वस्य भेषजीस्तास्ते क्रिन्वन्तु भेषजं –ऋग्वेद 10/137/6 |अर्थात जल ही भेषज के समान रोगों को नष्ट करने वाले सब प्राणियों के रोगनाशक हैं ,वे ही जल तुम्हारे लिए औषधि का कार्य करें |दुर्भाग्य है की आज सारे रोगों की जड़ जल ही बनाता जा रहा है |
वायुमंडल में प्रदूषण
जल से भी अधिक प्रदूषित हमारा वायुमंडल होता जा रहा है |परमाणु परीक्षण की होड़ से लेकर मशीनमय होती दुनिया ने तमाम महानगरों को रहने योग्य नहीं रखा |आज जन्मते ही शिशु श्वास -दमे की बीमारी से ग्रस्त हो जता है |वनों की कटाई तथा पत्तीदार वृक्षों को काटकर सड़क और नगर बनाने की होड़ ने वायु को चिंतनीय स्थिति तक प्रदूषित कर दिया है |वायु के सम्बन्ध में ऋग्वेद की ऋचा पर पर्यावरणविद और विकासगुरु क्या मंथन करना चाहेंगे ?
–द्वाविमौ वातौ वात आ सिंधोरा परावतः ,दक्षं ते अन्य आ वातु यद्रपः |ऋग्वेद 10 /137 /2 –अर्थात दो प्रकार की वायु समुद्र तक तथा उससे भी आगे बहती है |हे स्तोता एक वायु तुझे शक्ति दे और दूसरी तुम्हारा पाप नष्ट करे |
आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः ,त्वं हि विश्वभेषजो देवानाम दूत इयसे |ऋग्वेद 10 /137 /3 –अर्थात इधर जाने वाली वायु ,तुम औषधियां लाओ |हे उधर जाने वाली वायु तुम पापों को ले जाओ |तुम सभी औषधियों के सामान हो और देवों के दूत बन कर चलते हो |विकास के राक्षस ने देवों के दूतों के नाक में दम कर रखा है |
यह सत्य है की विकास समय की मांग है ,लेकिन यह भी ध्रुव सत्य है की विकास की इस अंधाधुंध दौड़ में धरती पर सुख से रहना है तो पर्यावरण की सुरक्षा को ध्यान में रखकर ही विकास करना होगा |प्रकृति हमें सर्वस्व अर्पित करती है ,हम कम से कम उसके प्रति कृतज्ञता और आदर भाव तो रखें |भारतीय संस्कृति में भौतिकता और आध्यात्मिकता का वैचारिक संगम रहा है |अथर्ववेद में कहा गया –
विश्वस्वं मातार्मोश्धिनाम ध्रुवां भूमि धर्माणाम ध्रिताम
शिवाम स्योनामनु चरेम विश्वहा —अथर्ववेद 12 /1 /17
अर्थात ,हम ऐसी पृथ्वी पर सदा सदा विचरण करते रहें जो औषधियों को उत्पन्न करने वाली ,संसार की ऐश्वर्य रूप ,धर्मके द्वारा आश्रित कल्याणमयी एवं सुख देने वाली है |
पृथ्वी एक अलौकिक ग्रह है जहाँ जीवन उपलब्ध है पूरे ब्रह्माण्ड में अन्यत्र कहीं भी जीवन की ,चेतना का अस्तित्व नहीं है ,यह प्रकृति की अनूठी कृति है |मानव मात्र का यह कर्तव्य है ,उत्तरदायित्व है की वे प्राणियों के अस्तित्व के विनाशक प्रवृत्तियों को भारतीय सांस्कृतिक रिक्थ के अनुरूप अंकुश लगाएं |
वेदों से लेकर लोकगीत तक भारतीय सांस्कृतिक रिक्थ पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देते हैं |विवाह के उपरांत बेटी अपने मइके से बिदा हो रही है ,पिता से लिपट कर वह अपने ह्रदय को खोल कर रख देती है –
बाबा निमिया के पेड़ जिन कटियो
बाबुल निमिया पे चिरैया क बसेर
बलैया लेउ वीरान की
बाबा सागरी चिरैया उडी जाईयें
रहि जहियें निमिया अकैर
नोट :
रिक्थ अर्थात् उतराधिकार या बरासत में मिला हुआ धन या संपत्ति।