उल्लास के पर्व के साथ विभाजन का दंश कैसे मिटे
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज
देश की आजादी जब पचहत्तरवे वर्ष में प्रवेश कर रही है ,देशवासी इस अमृत महोत्सव के पर्व को उल्लास के साथ मनाते हुए कहीं न कहीं विभाजन के दंश को भी महसूस करते रहते हैं। इस पावन पर्व पर शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए ,स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए बीसवीं सदी का क्रूरतम सच नई पीढ़ी के मन को कचोटता भी है की क्या देश की आजादी के लिए भारत का विभाजन अनिवार्य ही था ?
विगत पचहत्तर वर्षों में देश के स्वतंत्रता संग्राम पर देश विदेश के इतिहासकारों ,राजनीतिक विश्लेषकों ,राजनीतिज्ञों ने जितनी पुस्तकें लिखी हैं उसमे सर्वाधिक पुस्तकें भारत विभाजन विषय से सम्बंधित हैं। विद्वानों मनीषियों से इस प्रकरण पर तमाम मंथन और विश्लेषण किया पर यह प्रश्न अनुत्तरित ही है की क्या देश की आजादी के लिए भारत विभाजन अनिवार्य था?।
पंद्रह अगस्त 1947 ,दुनिया के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ा। जिन अंग्रेजों ने दो सौ साल तक भारत पर राज्य किया ,देश का शोषण किया ,अपार संपत्ति लूटकर अपने देश ले गया ,प्राचीन देश की सभ्यता संस्कृति का विनाश किया ,उसके साथ मित्रता और सदभावना के साथ सत्ता का स्थानांतरण हो गया। वे दो लोग जो सदियों से एक दूसरे के साथ एक गांव एक शहर में रह रहे थे वे परस्पर जूझते हुए एक दूसरे का खून बहाते हुए अलग हो गए। दो राष्ट्र नहीं दो विरोधी बन गए।
अंग्रेजों ने दो सौ साल तक भारत पर शासन भेदनीति अपना कर ही किया। भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता भी भेद नीति के कारण ही रही। अंग्रेजो के भेदनीति के शिकार भारत के दोनों सम्प्रदाय के लोग होते रहे।
आजादी के संग्राम का नेतृत्व करने से पूर्व दक्षिणी अफ्रीका से आकर गाँधी ने पूरे देश का दौरा किया ,गांव गांव ,शहर शहर को देखा परखा। भारतीय समाज के सांस्कृतिक धार्मिक,आर्थिक इतिहास का गंभीरता पूर्वक मंथन किया और यह निष्कर्ष निकला की भारतीय समाज नाना प्रकार के वर्गों ,समुदायों और धार्मिक समूहों का पुंज है जो टूटता रहता है जुड़ता रहता है पर अपना अस्तित्व नहीं खोता।
गाँधी ने यह पहचान लिया था की अंग्रेजी हुकूमत की विकृतियों ने भारतीय समाज को अपंग बना रखा है। भारत गुलाम इसलिए है कि उसने गुलामी स्वीकार कर ली है ,जिस क्षण भारतीय समाज आजादी के लिए उठ खड़ा होगा इसे कोई ताकत गुलाम नहीं रख पाएगी। गाँधी का आंदोलन देश को आजादी के लिए खड़ा करने का उपक्रम था। गाँधी राजनैतिक आजादी के पूर्व सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक आजादी के पक्षधर थे। सत्य अहिंसा प्रेम और सत्याग्रह जैसे अस्त्र- शस्त्र के साथ जब वे आजादी के संग्राम की और बढ़े तो सारी दुनिया चकित रह गई।
हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों का भारी वर्ग विपन्न और बेवस अवस्था में जूझ रहा था , उन्हें गाँधी का सत्याग्रह उनकी नीति अपने कष्ट निवारण के लिए उपयोगी लगी। समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त असंतोष एलीट – कुलक वर्ग तथा मध्यवर्ग की राजनीतिक आकाक्षांए। हिन्दू समुदाय में वर्णगत भेदभाव ,मुस्लिम समाज का धार्मिक उद्वेलन आदि ऐसे कारक थे जिसका अध्ययन गाँधी ने सूक्ष्मता से किया था। गाँधी को यह भी बोध हो गया था की कभी कभी वर्गगत पहिचान से ज्यादा महत्वपूर्ण धर्मगत अस्मिता हो जाती है। इन द्वंद्वों से निपटने के लिए आजादी के आंदोलन के साथ सर्वधर्म समभाव ,अछूतोद्धार ,खादी आदि कार्यक्रमों से विभिन्न वर्गों को समग्रता के साथ जोड़ते हुए आजादी का लक्ष्य सुराज या स्वराज्य रखा।
गाँधी ने सत्याग्रह का पहला प्रयोग बिहार के सुदूर पिछड़े क्षेत्र चम्पारण में किया फिर खेड़ा और अहमदावाद में। असहयोग आंदोलन में गाँधी ने महानगरों के श्रमिक वर्ग को आजादी के आंदोलन से जोड़ा। रौलट ऐक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह की पूर्व संध्या पर बम्बई के हिन्दुओं और मुसलमानो से गांधी ने जो प्रतिज्ञा लेने को कहा वह दृष्टव्य है –ईश्वर को साक्षी मानकर ,खुदा को गवाह मानकर हम हिन्दू और मुसलमान घोषणा करते हैं की हम एक दूसरे के साथ एक ही माता पिता की संतान की तरह व्यवहार करेंगे ,हममे कोई मतभेद नहीं होगा ,बल्कि एक के दुःख दूसरे के दुःख होंगे और हम उन्हें दूर करने में एक एक दूसरे की सहायता करेंगे। हम एक दूसरे के धर्म और धार्मिक भावनाओं का आदर करेंगे और एक दूसरे के आचरण के मार्ग में कोई बाधा नहीं डालेंगे। हम धर्म के नाम पर कभी एक दूसरे के साथ कोई हिंसात्मक व्यवहार नहीं करेंगे
1918 में कांग्रेस ने आत्मनियंत्रण सम्बन्धी जो प्रस्ताव पारित किया था उस पर रौलट ऐक्ट अधिनियम की रचना करने वाले क्रेडॉक का भारत के सम्बन्ध में मत था –भारत में हम आत्मनिर्णय की कसौटी को कैसे लागू कर सकते हैं ? कैसे कह सकते हैं कि उसकी दशा क्या होगी ? भारत में ऐसा कोई वर्ग नहीं है जिसका लोकतंत्र में विश्वास हो या जो उसे पाने को उत्सुक हो। अधिक से अधिक इसका रूप भीड़शाही का ही हो सकता है। सत्ता हस्तांतरण तक ब्रिटिश हुकूमत की धारणा यही रही । गाँधी को यह बखूबी पता था इसलिए निरंतर वे अपने अपने आंदोलनों ,सत्याग्रहों ,पदयात्राओं के माध्यम से भारतीय समाज में जो द्वैत भाव ,वर्गगत पहिचान और धर्मगत अस्मिता के द्वन्द को, अद्वैत चरित्र स्वराज्य में परिवर्तित करने के उपक्रम में लगे रहे।
क्रिप्स मिशन के बैरंग वापस होने ,वेवेल की योजनाए कामयाब न होने पर ब्रिटिश हुकूमत ने कैबिनेट मिशन की योजनाओं को सफल बनाने के लिए लार्ड माउंटबेटन को वायसराय बना कर भारत भेजा। कूटनीति में निपुण माउंटबेटेन ने आजादी और भारत विभाजन पर गाँधी के अलावा नेहरू ,पटेल जिन्ना से बातचीत की ब्रिटिश हुकूमत के लिए सदैव से सबसे संवेदनशील और उलझी हुई कड़ी गाँधी ही रहे। गाँधी से बातचीत करते हुए माउंटबेटेन ने कहा की जोर जबरदस्ती के आगे कभी न झुकना अंग्रेजों की नीति रही है ,लेकिन आपके अहिंसा के आंदोलन के आगे अंग्रेजों को झुकना पड़ा और अब अंग्रेज भारत छोड़ कर चले जाएंगे।
गाँधी ने वायसराय से कहा कि आप लोगों के चले जाने का एक ही बात का महत्त्व है की भारत का टुकड़े कर के न जाइये ,हमें अराजकता को सौंप कर जाइये, पर चले जाइये। गाँधी ने माउंटबेटेन से इतना तक कहा कि देश के टुकड़े होने के बजाय मैं चाहूंगा कि जिन्ना और मुस्लिम लीग से ही सरकार बनाने के लिए कहा जाए। गाँधी की महानता के समक्ष माउंटबेटेन नतमस्तक था उसे यह कभी भी विश्वास नहीं हुआ की गांधी कांग्रेस को इसके लिए तैयार कर पाएंगे। माउंटबेटेन का वशीकरण नेहरू और पटेल तथा कांग्रेस के नेताओं पर चल गया ,उसने चार महीने में ही अपने चालों से कांग्रेस को गांधी से न केवल दूर कर दिया बल्कि भारत विभाजन का प्रस्ताव भी पारित करा लिया। यह आश्चर्य की बात है की दृढ प्रतिज्ञ पटेल को माउंटबेटेन ने वश में कर लिया पर जिन्ना को वह वश में न कर सका या जिन्ना अंग्रेजों के ही मोहरे थे।
भारत की एकता के लिए गाँधी ने 1 मई 1947 को प्रायश्चित यात्रा शुरू की और कांग्रेस ने देश की एकता बनाये रखने का प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाए। आजादी की अंतिम लड़ाई के दौर में गाँधी अपने लोगों के बीच पैगम्बर नहीं रह गए थे। देश के विभाजन के साथ मिली आजादी कलंकित हो चुकी थी। एक अधार्मिक व्यक्ति की हठधर्मिता और महत्वकाक्षांओं ने एक महान आंदोलन को दुखांत कर दिया। माउंटबेटेन ब्रिटिश राजशाही का प्रतिनिधि बनकर सत्ता स्थानांतरण करने भारत आया और उसने मेलजोल की सारी कोशिशों का सत्यानाश करते हुए अंतरकलह को बढ़ा दिया। सभी के समक्ष केवल एक विकल्प आजादी का रह गया विभाजन। लाखों लोगों को विभाजन के अग्निकुंड में झोंककर माउंटबेटेन भौगोलिक विभाजन ही नहीं भारत के दिल का विभाजन कर चलता बना।
सत्ता का हस्तांतरण और देश का विभाजन कोई नियति का खेल नहीं था यह ब्रिटिशशाही साम्राज्यवादी मनोवृत्ति का अंतिम वाण था जिससे इस देश को बेधकर फिरंगी अंगरेज हँसते खेलते चले गए –युगों तक तड़पने के लिए हमें छोड़कर ।
देश के संकीर्णतावादी हिन्दू गाँधी को मुस्लिमपरस्त समझने लगे ,संकीर्णतावादी मुस्लिम गाँधी को सनातनी हिन्दू जानने लगे ,संकीर्णतावादी सवर्णो की दृष्टि में गाँधी दलितों का उद्धारक दिखने लगा था संकीर्णतावादी दलित इस युग के बुद्ध में वर्णव्यवस्था का पोषक देखने लगा। बूढ़े गाँधी जिसके मृत्यु की प्रतीक्षा अंग्रेजों ने 1944 में की थी विभाजन रोकने के लिए एकला चलने का साहस नहीं जुटा पारहा था।
सभी भारतीयों के धर्म एक कभी नहीं रहे पर वे एक साथ मिलन और विरोध के बावजूद युगों से रहते रहे यही भारतीयता की पहचान रही है। जब भी विरोध को प्राथमिकता दी गई भारत को दंश झेलना पड़ा है।इस दंश से मुक्ति पाने के लिए आजादी के अमृत महोत्सव को ऋग्वेद –10/191/2-4के मन्त्रों से अभिषिक्त करना होगा –संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम –अर्थात तुम लोग आपस में मिलो ,एक साथ स्तोत्र बोलो ,तुम्हारे मन समान बात को जाने |
–समानं मन सः चित मेषाय –अर्थात हमारे मन समान हों और चित परस्पर जुड़े हुए हों |
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