संविधान में राज्यपाल की भूमिका
संविधान निर्माताओं ने राज्यपाल को राज्य का संवैधानिक प्रमुख मानते हुए उसे ‘संविधान और कानून का परिरक्षण, सुरक्षा और बचाव’ की जिम्मेदारियां दी थीं, लेकिन आजकल राज्यपाल सिर्फ केन्द्र सरकार के एजेंट भर रह गए हैं। तमिलनाडु सरकार की याचिका पर हाल में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इस बदहाली को उजागर कर दिया है। प्रस्तुत है, राज्यपालों की भूमिका पर रमाकांत नाथ का यह लेख।–संपादक
भारत में संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन का ताजा उदाहरण हाल का सुप्रीम कोर्ट का वह ऐतिहासिक फैसला है जिसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति संसद या राज्य विधानसभा में पारित किसी भी विधेयक को तीन महीने से अधिक समय तक रोककर नहीं रख सकते। इसके साथ ही अदालत ने पारित विधेयक को कानून का दर्जा देने की समय सीमा तय कर दी है। कुछ लोग इसे विधायिका पर न्यायपालिका का हस्तक्षेप कह सकते हैं, लेकिन राष्ट्रपति और राज्यपाल भारतीय संवैधानिक व्यवस्था से बाहर नहीं हैं, न ही वे लोकतंत्र से ऊपर हैं। इसलिए, राष्ट्रपति और राज्यपाल विधेयक को रोकने के लिए अपने ‘पॉकेट वीटो’ का उपयोग नहीं कर सकते।
415 पन्नों के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राष्ट्रपति किसी भी राज्य से आने वाले विधेयक को प्राप्ति की तारीख से तीन महीने के भीतर मंजूरी देंगे। यदि उक्त बिल के संबंध में कोई समस्या हो तो इसकी सूचना संबंधित राज्य को दी जा सकती है। इसी प्रकार, राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करेंगे तथा अपने विवेक से विधेयक को रोकने के लिए ‘पॉकेट वीटो’ का प्रयोग नहीं कर सकेंगे। यदि ऐसा कोई मामला सामने आता है तो संबंधित राज्य सरकार कानून की शरण ले सकती है और संवैधानिक पीठ मामले की सुनवाई करेगी। यद्यपि भारतीय संविधान के अनुच्छेद – 200 में राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विधेयक पारित करने की कोई समय सीमा निर्दिष्ट नहीं की गई है, फिर भी राष्ट्रपति और राज्यपाल अपनी इच्छा से विधेयक को रोक नहीं सकते।
फैसले में कहा गया है कि अगर इस आदेश का उल्लंघन होता है तो सुप्रीम कोर्ट इसकी समीक्षा कर सकता है। संविधान के अनुच्छेद – 201 के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विशेषाधिकार के आधार पर विधेयक पारित करने के लिए समय सीमा निर्धारित की है। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार, राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास आने वाले विधेयक उनकी मंजूरी के बाद कानून बन जाते हैं। राष्ट्रपति और राज्यपाल संसद या विधानसभा द्वारा पारित किसी भी विधेयक को लौटा सकते हैं या विधेयक पर अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन उन्हें विधेयक को वर्षों तक अपने पास नहीं रखना चाहिए। यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा भेजा गया कोई विधेयक उनके पास वापस आता है, तो वे उस विधेयक को स्वीकृत करने के लिए बाध्य हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि राज्यपाल को दूसरी बार आने वाले विधेयक को एक महीने में मंजूरी देनी ही होगी।
गौरतलब है कि राज्यपाल आरएन रवि के पास 2020 से तमिलनाडु राज्य विधानसभा द्वारा पारित लगभग 12 विधेयक लंबित थे। 2023 में तमिलनाडु की ‘द्रविड मुनेत्र कष्गम’ (डीएमके) सरकार द्वारा राज्यपाल के असहयोग के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया गया था। इस मामले की सुनवाई करके सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय लोकतंत्र में नई जान फूंक दी है। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल और केरल सरकारों द्वारा 2024 में तथा तेलंगाना और पंजाब सरकारों द्वारा 2023 में सर्वोच्च न्यायालय में इसी प्रकार के मामले दायर किए गए थे। इन संवैधानिक संकटों की वजह यह है कि इन सभी राज्यों में केंद्र की ‘भारतीय जनता पार्टी’ की विरोधी सरकारें हैं। नतीजे में राज्यों में राज्यपाल राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करने की बजाय केंद्र सरकार के निर्देश पर काम कर रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद भारतीय लोकतंत्र में एक ऐतिहासिक घटना घटी है। तमिलनाडु राज्य सरकार ने राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना, राज्य विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को सीधे कानून बना दिया है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और तमिलनाडु राज्य सरकार के काम का असर अब पंजाब, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी देखा जा सकता है।
तमिलनाडु में राज्यपाल ने पिछली अन्नाद्रमुक सरकार के दो और द्रमुक सरकार के 10 विधेयक, जो 2020 से 2023 के बीच पारित हुए थे, अपने पास रख लिए तथा दो विधेयक राष्ट्रपति के पास भेज दिए। राज्यपाल के व्यवहार के विरोध में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने 2023 में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया और पिछले विधेयकों को फिर से पेश किया। राज्य में डीएमके सरकार के सत्ता में आने के बाद राज्यपाल ने कई विधेयक लौटा दिए थे, जबकि ‘राष्ट्रीय पात्रता व प्रवेश परीक्षा’ (नीट) विरोध का विधेयक विधानसभा में दूसरी बार राज्यपाल के पास गया और राज्यपाल ने इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, राज्यपाल को दूसरी बार उनके पास भेजे गए विधेयक को मंजूरी देने की बाध्यता होती है, लेकिन जिस आधार पर तमिलनाडु के राज्यपाल ने विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा, उस पर सवाल उठ खड़े हुए हैं।
तमिलनाडु में राज्यपाल द्वारा रोके गए विधेयक मुख्यतः राज्य के विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से संबंधित विधायी अधिनियमों में संशोधन पर थे। यदि ऐसा कोई विधायी अधिनियम नहीं बनाया गया तो स्वाभाविक है कि राज्य में उच्च शिक्षा प्रणाली में अराजकता फैल जाएगी। केंद्र सरकार ने तमिलनाडु में उच्च शिक्षा प्रणाली को भ्रष्ट करने में भूमिका निभाई है, लेकिन चूंकि स्टालिन सरकार इस तरह के अन्याय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई थी, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने लोकतंत्र की रक्षा की।
इसी प्रकार, केरल राज्य सरकार ने भी अपने राज्यपाल के राज्य-विरोधी कार्यों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली है। मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने आरोप लगाया है कि राज्यपाल ने 2023 से छह विधेयकों को लंबित रखा है। केरल सरकार पूर्व राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान और उनके बाद आए राजेंद्र विश्वनाथ अर्लेकर के कामकाज से असंतुष्ट रही है। राज्यपाल अर्लेकर के पास लंबित छह विधेयकों में से पांच राज्य के विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक हैं, जबकि एक ‘समबाय समिति’ (सहकारी समिति) संशोधन विधेयक है।
पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्र के बीच विवाद लंबे समय से चल रहा है। पूर्व राज्यपाल और अब देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के कार्यकाल में ममता बनर्जी सरकार को कई विवादों का सामना करना पड़ा। राज्य सरकार के मौजूदा राज्यपाल सीवी आनंद बोस के साथ भी रिश्ते मधुर नहीं हैं जिन्होंने 23 महीने से 8 विधेयकों को रोका है। इन विधेयकों में से सात राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से संबंधित संशोधन हैं, जबकि एक शहरी विकास या नगर नियोजन से संबंधित है। यदि राज्यपाल वर्षों तक विधेयक को अपने पास रखेंगे तो राज्य सरकार कैसे काम करेगी? पश्चिम बंगाल सरकार ने राज्यपाल के असहयोग के खिलाफ जुलाई 2024 में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है।
पंजाब के राज्यपाल के कामकाज को लेकर काफी विवाद रहा है। अक्टूबर 2023 से पंजाब की भगवंत मान सरकार तत्कालीन राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के कार्यों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में है। राज्यपाल पुरोहित ने पंजाब विधानसभा में पारित चार विधेयकों को अपने पास रख लिया था। इनमें से तीन विधेयक दिसंबर 2023 तक राष्ट्रपति के पास भेजे जा चुके थे। एक साल से अधिक हो जाने के बावजूद राष्ट्रपति ने इन विधेयकों को मंजूरी नहीं दी। ये विधेयक – ‘पंजाब गुरुद्वारा संशोधन विधेयक,’ ‘पुलिस प्रणाली संशोधन विधेयक’ और ‘विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक’ हैं।
कर्नाटक में राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने राज्य विधानसभा द्वारा पारित दो विधेयकों को लंबे समय से अपने पास रखा, जबकि पांच अन्य विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया। राज्य विधानसभा द्वारा हाल ही में पारित 20 विधेयक राज्यपाल के पास लंबित हैं। राज्यपाल ने इनमें से 7 विधेयक लौटा दिए हैं। कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है और सिद्धारमैया मुख्यमंत्री हैं। केंद्र की भाजपा सरकार इस सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रही है। यही कारण है कि राज्यपाल ने महत्वपूर्ण विधेयकों को या तो रोक दिया है या असंवैधानिक रूप से उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया है।
तेलंगाना में भी इसी तरह की अस्थिरता पैदा की जा रही है। चूंकि यहां भी कांग्रेस सत्ता में है, इसलिए केंद्र की भाजपा सरकार इस सरकार के प्रति भी असहयोगात्मक व्यवहार कर रही है। 2022 से तत्कालीन राज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन ने तेलंगाना राज्य विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयक अपने पास रखे। तेलंगाना में पहले ‘तेलंगाना राष्ट्र समिति’ का शासन था और दिसंबर 2023 से वहां कांग्रेस की सरकार सत्ता में है, जिसके मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी हैं। इस तरह की कार्रवाइयों के लिए राज्यपाल के खिलाफ पूर्ववर्ती के. चंद्रशेखर राव सरकार द्वारा अप्रैल 2023 में सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया गया था।
जब केंद्र सरकार राज्यपाल के माध्यम से किसी महत्वपूर्ण मामले में राज्य सरकार को पूरी तरह से अक्षम करने का प्रयास करती है, तो राज्य में शासन व्यवस्था चरमरा जाती है और इससे राज्य सरकार को बर्खास्त कर उस राज्य में केंद्रीय शासन लागू करने का मार्ग प्रशस्त होता है। अतीत में कई राज्यों में ऐसी गतिरोध की स्थितियां पैदा हो चुकी हैं और केंद्र सरकार ने लोकतांत्रिक सरकार को तोड़कर वहां केंद्रीय शासन स्थापित कर दिया है। इस तरह की कार्रवाइयां तानाशाही का प्रतीक हैं और हाल के वर्षों में यही व्यवस्था ज्यादातर देखने को मिली है। (सप्रेस)
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