वैक्सीन में भारत की आत्म निर्भरता किसने समाप्त की
8 मई को मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरई पीठ ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए आश्चर्य व्यक्त किया कि भारत जो मौजूदा महामारी से पहले वैक्सीन उत्पादन में अग्रणी होने के साथ टीकों का एक बड़ा निर्यातक था वह कोविड -19 टीकों का उत्पादन करने के लिए सिर्फ दो निजी घरेलू निर्माताओं- सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक पर निर्भर क्यों था? इस बात ने भारत के कई आम नागरिकों को भी हैरान कर दिया है।
भारत की वैक्सीन उत्पादन पर आत्मनिर्भता यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में डेढ़ दशक पहले ही ख़त्म हो गई थी।मनमोहन सरकार में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री रहे अंबुमणि रामदास ने वैक्सीन निर्माण और सरकारी खरीद को प्रभावी रूप से निजी क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया था।
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के अच्छे निर्माण प्रथाओं के गैर अनुपालन का हवाला देते हुए जनवरी2008 में सार्वजनिक क्षेत्र के तीन प्रमुख वैक्सीन निर्माताओं के लाइसेंस निलंबित कर दिए गए थे। ये सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां (पीएसयू) केंद्रीय अनुसंधान संस्थान (सीआरआई) हिमाचल प्रदेश में कसौली, गिंडी में बीसीजी वैक्सीन प्रयोगशाला (बीसीजीवीएल) और तमिलनाडु में भारतीय पाश्चर संस्थान (पीआईआई) कुन्नूर थी।
इस तीनों सार्वजनिक उपक्रमों ने टिटनेस, डिप्थीरिया, पर्टुसिस, खसरा, पोलियो और तपेदिक के खिलाफ भारत के सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम के लिए लागत प्रभावी टीकों का निर्माण किया था लेकिन उनके लाइसेंस निलंबित होने के बाद उनके शेयरों को खारिज कर दिया गया और टीकों में आत्मनिर्भरता को हमेशा के लिए भुला दिया गया। उस समय तक भारत के सार्वभौमिक प्रतिरक्षण कार्यक्रम के लिए 70% टीके सार्वजनिक क्षेत्र से मंगवाए जाते थे और आज 90% टीके उच्च लागत पर निजी क्षेत्र से प्राप्त किए जाते हैं।
पूर्व सिविल सेवक और योजना आयोग के सदस्य एसपी शुक्ला ने सरकार के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की ओर रुख किया था जिसमें उन्होंने कहा कि यह शताब्दी से चली आ वैक्सीन निर्माण में आत्मनिर्भर होने के प्रयासों को विफल कर देगा।
वह चाहते थे कि सरकार ब्राजील और थाईलैंड सहित कई अन्य देशों की तरह वैक्सीन निर्माण में भूमिका बनाए रखे। शुक्ला ने चेतावनी दी कि पीएसयू की वैक्सीन बनाने की क्षमताओं के क्षरण से भारत की स्वास्थ्य सुरक्षा और जैव-सुरक्षा को खतरा होगा। कोर्ट ने सरकार को नोटिस भेजे लेकिन अपने फैसले को पलटा नहीं।
जुलाई 2009 में ‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका की एक रिपोर्ट में बताया गया कि स्वास्थ्य और परिवार कल्याण की संसदीय स्थायी समिति ने वैक्सीन उत्पादन बंद करने के मंत्रालय के तर्क पर सवाल उठाया था और सिफारिश की थी कि बंद सार्वजनिक उपक्रमों को फिर से शुरू किया जाना चाहिए।2016 में सार्वजनिक उपक्रमों के जीएमपी मानदंडों का अनुपालन करने के बाद भी, अदालत ने पहले के आदेश को पलटने की अपील को खारिज कर दिया।
2008 में सरकार इन तीन महत्वपूर्ण सार्वजनिक उपक्रमों में वैक्सीन उत्पादन बंद करने के जगह इनमें डब्ल्यूएचओ जीएमपी मानदंडों के अनुसार सुविधाओं के उन्नयन हेतु धन मुहैया कराने का रास्ता चुन सकती थी।
इसके बजाए रामदास ने तमिलनाडु के चेंगलपेट्टू में स्थापित किए जाने वाले प्रस्तावित एकीकृत वैक्सीन कॉम्प्लेक्स (आईवीसी) के लिए सरकारी फंडिंग का निर्देश दिया। 2012 में स्थापित, आईवीसी चेंगलपेट्टू ने अभी तक किसी भी वैक्सीन की एक भी खुराक का उत्पादन नहीं किया है। वर्तमान सरकार ने अब जाकर इसे सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से कार्यात्मक बनाने के लिए कदम उठाए हैं।
रामदास के इन विवादास्पद निर्णयों के कारण आलोचकों ने भविष्यवाणी की थी कि देश में वैक्सीन की कमी होगी और वैसा हुआ भी। एसपी शुक्ला की याचिका के मुताबिक, इससे रामदास की पार्टी के वफादारों को भी फायदा हुआ।
लाइसेंस रद्द होने होने वाले दो सार्वजनिक उपक्रमों (बीसीजीवीएल और पीआईआई) में निदेशक रहे एन. एलंगेश्वरन ने कथित तौर पर महत्वपूर्ण सार्वजनिक संसाधनों के निजी कंपनियों को हस्तांतरित करने में मदद की। इसमें एक लाभार्थी ग्रीन सिग्नल बायो फार्मा, चेन्नई था, जिसका स्वामित्व रामदास की पार्टी पट्टाली मक्कल काची (पीएमके) के सुंदरपरीपुरनन के पास था।
अन्य लाभार्थी वत्सन बायोफार्मा थे, जो सुंदरपरिपुरन, उनकी पत्नी और एन एलंगेश्वरन की पत्नी के सह-स्वामित्व वाले थे।
शुक्ला की याचिका में स्वास्थ्य मंत्री की मंशा पर सवालिया निशान लगाते हुए बताया गया है कि कैसे बीसीजीवीएल और पीआईआई पर की गई डील ने इन निजी संस्थानों को फ़ायदा पहुंचाया
यूपीए-द्वितीय में गुलाम नबी आजाद ने स्वास्थ्य मंत्री के रूप में इस नुकसान को कम करने की कोशिश की। 2010 में ‘जाविद चौधरी समिति’ की सिफारिशों पर तीन सार्वजनिक उपक्रमों के लाइसेंसों को पुनर्जीवित किया गया था। जिसने उनके लाइसेंसों के निलंबन को गलत, अवैध और त्रुटिपूर्ण ठहराया था।
सीआरआई, कसौली के पुनरुद्धार के लिए लगभग 49 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। सरकारी फंडिंग ने वर्ष 2016 तक दो सार्वजनिक उपक्रमों को जीएमपी के अनुरूप बना दिया था। इसके बावजूद उन्हें वैक्सीन खरीद के लिए कोई सरकारी आदेश नहीं मिला क्योंकि भारत की वैक्सीन खरीद निश्चित रूप से निजी क्षेत्र के हाथों में चली गई थी। इसलिए यूपीए प्रथम सरकार द्वारा की गई गलतियां मोदी सरकार के समय में भी बनी रही।
वर्ष 2009 में ‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका को एक दिए एक साक्षात्कार में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के साइरस पूनावाला ने सरकारी धन का उपयोग सार्वजनिक क्षेत्र के वैक्सीन निर्माताओं को जीएमपी के अनुरूप बनाने के लिए किए जाने वाले सुझाव की आलोचना करते हुए इसे पैसे की बर्बादी कहा। इसके बजाए उन्होंने सुझाव दिया लगभग सौ स्टाफ सदस्यों (सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से) का इस्तेमाल शोध के लिए कहीं और किया जा सकता है।
हमें पता होना चाहिए कि पहले ही मुंबई में एक राज्य सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई, हैफ़किन इंस्टीट्यूट (अब, हाफकिन बायोफर्मासिटिकल कॉर्पोरेशन लिमिटेड) को बर्बाद किया जा चुका है।
फोर्ब्स की एक रिपोर्ट के अनुसार यह पता चलने के बाद कि हैफ़किन इंस्टीट्यूट द्वारा पुणे में स्थित उनके अश्वजनन क्षेत्र से मृत घोड़ों को टीकों के लिए सीरम निकालने हेतु खरीदा गया, पूनावाला ने वैक्सीन व्यवसाय में प्रवेश करने का निर्णय लिया।
जाहिर है कि उन्होंने और उनके एक दोस्त ने तब खुद वैक्सीन उत्पादन में जाने का फैसला लिया और बारह एकड़ में स्थित घोड़ों के कब्रिस्तान पर एक कारखाना स्थापित किया। उन्होंने हैफ़किन इंस्टिट्यूट के डॉक्टरों और वैज्ञानिकों को प्रलोभन दे सीरम इंस्टीट्यूट की पहली एंटी-टेटनस वैक्सीन उत्पादित करी और हैफ़किन के तीन पूर्व कर्मचारी सीरम इंस्टीट्यूट में बोर्ड के सदस्य बने।
आज निजी क्षेत्र को ही सरकार से सब्सिडी और अग्रिम फंडिंग मिल रही है। भारत बायोटेक को कोवैक्सिन के उत्पादन के लिए हैदराबाद में अपनी उत्पादन सुविधाओं में से एक का पुन: उपयोग करने के लिए 65 करोड़ रुपये दिए गए हैं। यह अपनी मौजूदा सुविधाओं का विस्तार करने के लिए भारत बायोटेक को अग्रिम रूप से दिए गए 1500 करोड़ रुपए और सीरम संस्थान को दिए गए 3000 करोड़ के अतिरिक्त दी गई राशि है।
हालांकि सरकार ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की मांग को मान लिया है, जिसमें कोविड -19 वैक्सीन के निर्माण के लिए राज्य के सार्वजनिक उपक्रम हैफ़किन संस्थान को शामिल किया गया है, जिसके लिए इसकी क्षमताओं को फिर से बढ़ाना होगा। हैफ़किन को कोवैक्सिन उत्पादन के लिए न केवल प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की आवश्यकता होगी बल्कि जैव-सुरक्षा स्तर -3 उत्पादन सुविधाओं की स्थापना के लिए धन की आवश्यकता भी होगी।
इसके लिए उसे 81 करोड़ रुपये का सरकारी अनुदान मिला है। लाइसेंस के तहत कोवैक्सिन के निर्माण के लिए दो अन्य राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों – इंडियन इम्यूनोलॉजिकल्स लिमिटेड हैदराबाद और भारत इम्यूनोलॉजिकल एंड बायोलॉजिकल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीआईबीसीओएल) बुलंदशहर, यूपी को भी सरकारी अनुदान दिया जा रहा है। फिर भी उन्हें कोवैक्सिन के पहले बैच के उत्पादन में लगभग एक साल का समय लगेगा।
हालांकि यह एक अलग कहानी हो सकती थी।
लेकिन सत्य यह है कि भारत हमेशा से अपने नागरिकों के जनस्वास्थ्य को मुक्त बाजार के खिलाड़ियों के रहमोंकर्म पर छोड़ने का जोखिम उठा सकता है।
(श्री भारत भूषण का यह मूल आलेख अंग्रेज़ी बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित हुआ है जिसका अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद हिमांशु जोशी द्वारा किया गया।जनहित में साभार पुन: प्रकाशित.)
श्री भारत भूषण का मिल लेख