भारत चीन विवाद: यह बहिष्कार नहीं, प्रतिशोध है!

अरविंद अंजुम

चीनी फौज द्वारा गलवान घाटी और पैंगोंग झील क्षेत्र में अपनी दबिश बढ़ाने, उन इलाकों में स्थाई संरचनाओं का निर्माण करनेऔर यहां तक कि 15-16 जून की दरमियानी रात में भारत के 20 सैनिकों को मौत के घाट उतार देने की घटनाओं ने भारतीय जनमानस को गहरे अवसाद में धकेल दिया।इस घटनाक्रम ने भारतीयों के पिछले एक दशक में फले-फूले मतवाले राष्ट्रवाद को संकटग्रस्त कर दिया है। लद्दाख में अभी भी तनाव बना हुआ है। सरकार आश्चर्यजनक और रहस्यमय चुप्पी साधे हुए है। खंडित सामूहिक आत्मसम्मान और सीमा पर उपजी बेबसी से उबरने ,खुद को आश्वस्त करने के लिए और बदले की भावना से प्रेरित होकर चीनी सामानों के बहिष्कार की हवा बनाई जा रही है। याद रखें कि ऐसी ही एक हवा 2017 में डोकलाम विवाद के समय बनाई गई थी पर वो सिलसिला एक तमाशा बन कर रह गया। सच यही है कि उसके बाद प्रत्येक क्षेत्र में चीन के साथ व्यापार बढा है और इसमें चीन की हिस्सेदारी लगभग तीन चौथाई की है।

ताज़ा बहिष्कार वादियों पर कुछ कहा जाए इससे पहले इतिहास की एक निराली घटना को जान समझ लें। दुनिया के इतिहास में किसी काल में ऐसी घटना नहीं हुई। वह था जापान द्वारा पूरी दुनिया का बहिष्कार। इसे जापान की दरवाजा बंदी के रूप में जाना जाता है।जापान विदेशियों से परेशान होकर 1641 में दुनिया के हरेक देश से अपना संबंध तोड़ लियाआना-जाना,संपर्क-संबंध, व्यापार सब बंद। अपने को हर तरफ से अलग-थलग कर लेना आसान नहीं होता है।बहुत ही खतरनाक है -व्यक्ति के लिए भी और राष्ट्र के लिए भी।.लेकिन जापान इस खतरे को पार कर गया।उसके यहां अंदरूनी शांति बनी रही और उसने अपने युद्धों के नुकसान को भी पूरा कर लिया। अंत में जब उसने 1853 में अपना दरवाजा और अपनी खिड़कियां खोली तो एक और असाधारण काम उसने कर दिया। वह तेजी के साथ आगे बढ़ा, झपटा और खोए हुए समय की पूर्ति कर ली।दौड़कर यूरोपीय कौमों को पकड़ लिया और उन्हीं की चाल में उन्हें मात दे दी। यह कैसे संभव हुआ। पुरानी सामंती प्रथा उड़ा दी गई। सम्राट की राजधानी क्योटो से बदलकर टोक्यो बनाया गया। एक नए संविधान की घोषणा हुई। शिक्षा, कानून ,उद्योग आदि हर एक चीज में परिवर्तन हुआ। कारखाने बने और आधुनिक ढंग की जल एवं थल सेना तैयार की गई। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि अपने समाज के नवनिर्माण के लिए,अपनी शिक्षा को उन्नत बनाने के लिए विदेशों से विशेषज्ञ बुलाए और जापानी विद्यार्थियों को यूरोप और अमेरिका भेजा। यह भारतीयों की तरह बैरिस्टर बनने के लिए नहीं बल्कि वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञ बनने के लिए गए।इस तरह से जापान नें दो सौ साल की दूरी को तीन दशकों में पूरा कर लिया।यह होता है किसी समाज या देश का संकल्प,योजना और क्रियान्वयन। अब यहाँ यह सवाल सहज है कि जिस लक्ष्य को जापान ने साध लिया उसे हम क्यों नहीं हासिल कर सकते?हम ऐसा जरूर कर सकते हैं पर इसकी कुछ पूर्व शर्तें हैं।

ये भी पढें: अंतरिक्ष से घर तक 3 डी प्रिंटिंग में हैं अपार संभावनाएं

भारत एक उर्ध्व व क्षैतिज ,दोनों ही स्तरों पर बेहद बुरी तरह विभाजित समाज है।जाति, धर्म,भाषा,क्षेत्र,संस्कृति ,लिंग और वर्ग के आधार पर बना यह विभाजन वैमनस्य के साथ पूरी शिद्दत से कायम है और हर तबका एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में लगा रहता है।इनके बीच एकता कायम करने के दो सूत्र प्रचलित हैं।एक इसे बलपूर्वक कृत्रिम ढंग से एक करना चाहते हैं और दूसरा उदारवादी मूल्यों की बुनियाद पर।

अभी का दौर संकीर्णतावाद का है और इसमें विग्रह का तत्व अतरनिहित है।कोरोना वायरस के प्रथम दौर में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया।यहाँ बहिष्कार्रवादियों को तय करना होगा कि वो चीनी सामान का बहिष्कार करेंगे या मुसलमान दुकानदारों और ठेले-खोमकेवालों का।अगर बहुसंख्यक वर्ग जापान की तरह आंतरिक शांति व एकता अर्जित नहीं करेगा तो फिर वह आंतरिक सामर्थ्य का निर्माण किस प्रकार करेगा और आज की दुनिया में छलांगें कैसे लगायेगा।भारतीय समाज को उदारवादी मानवीय मूल्यों के आधार पर पुनर्गठित करने का दायित्व अभी शेष है।अगर हम इस दिशा में मजबूती से आगे बढ़े तो दुनियाभर के मानवतावादी व शान्तिकामी जमात हमसे जुड़ने में फख्र महसूस करेगा।तब बहिष्कार के बजाय अंगीकार का दौर चल निकलेगा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में गांधी जी ने भी विदेशी सामानों के बहिष्कार का आह्वान किया था।पर यह अभियांन किसी कुंठा या प्रतिशोध की भावना से प्रेरित नहीं था।वह तो ओद्योगिक सभ्यता के बरक्स सादगी से सराबोर जीवन दर्शन था।उसमें किसी को नीचा दिखाने या फिर नुकसान पहुंचाने की दमित इच्छा भी नहीं थी।वो तो इंग्लैंड और पश्चिम को भी मशीनों के जंजाल व बोझ से नुक्त करना चाहते थे।वह एक मानवीय सात्विक कार्यक्रम था कोई युद्ध का प्रच्छन्न रूप नहीं। इस टिप्पणी का उद्देश्य बहिष्कार से परे जाकर सोचने की कवायद है।हम किसी मदहोश राष्ट्रवाद के वाहक नहीं बन सकते और न ही उन्मादी कार्यक्रम के हिस्सेदार हो सकते हैं।हम चीन या दुनिया के अन्य किसी भी देश,भारत ही क्यों न हो,के विस्तारवाद के विरुद्ध है।हम शांति और सहअस्तित्व के पक्षधर हैं।यही हमारा पक्ष है और हम अपनी पक्षधरता पर अडिग हैं ,अडिग रहेंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published.

four × four =

Related Articles

Back to top button