मुग़ल दौर में होली को कहा जाता था ईद-ए-गुलाबी 


आलेख ; अली अस्करी नक़वी, अंबेडकरनगर

अंबेडकरनगर। राग-रंग का पर्व होली जहां वसंत का संदेशवाहक है वहीं यह गिले-शिकवे भुलाकर गले लगाने का सिंबल है। वैसे तो होली सनातन धर्म के अनुयायियों का लोकप्रिय त्योहार है लेकिन यह अन्य धर्मावलंबियों में भी प्रचलित है। पुराने समय में हिंदुओं के साथ मुस्लिम भी होली के हुड़दंग में जोर-शोर से शिरकत किया करते थे।

इतिहासकारों के अनुसार मुग़ल शासकों के दौर  में होली को ईद-ए-गुलाबी कहा जाता था। तब महलों में फूलों से रंग बनाकर हौदों में भरे जाते, पिचकारियों में गुलाबजल और केवड़े का इत्र डाला जाता और बेगमें-नवाब और प्रजा साथ मिलकर होली खेलते थे। मुग़ल राजाओं की बात करें तो होली का ज़िक्र लगभग हर शासक के दौर में दिखता है।

19वीं सदी के मध्य के इतिहासकार मुंशी ज़काउल्लाह ने अपनी किताब तारीख़-ए-हिंदुस्तानी में लिखा है कि कौन कहता है, होली सिर्फ़ हिंदुओं का त्योहार है। वह मुग़लों के वक्त की होली का वर्णन करते हुए बताते हैं कि कैसे बाबर हिंदुओं को होली खेलते देखकर हैरान रह गया था। लोग एक-दूसरे को उठाकर रंगों से भरे हौदों में पटक रहे थे। बाबर को ये इतना पसंद आया कि उसने अपने नहाने के कुंड को फूलों से तैयार किए गए ख़ास क़िस्म के रंग से भरवा दिया।

मुग़ल शासकों के दौर में होली के लिए अलग से रंग तैयार होते। होली के रोज़ अकबर अपने किले से बाहर आते और सबके साथ होली खेला करते थे। इसी तरह आइना-ए-अकबरी में अबुल फ़ज़ल लिखते हैं कि बादशाह अकबर को होली खेलने का इतना शौक था कि वे सालभर तरह-तरह की ऐसी चीजें जमा करते थे, जिनसे रंगों का छिड़काव दूर तक जा सके। होली के दिन अकबर अपने किले से बाहर आते थे और आम-ओ-खा़स सबके साथ होली खेल प्रसन्न होते थे।

सजती थी संगीत सभा : तुज़्क-ए-जहांगीरी नामक पुस्तक में मुगल बादशाह जहांगीर के होली का ज़िक्र मिलता है। गीत-संगीत के शौकीन जहांगीर इस दिन संगीत की महफ़िलों का आयोजन करते, जिसमें हर कोई आ सकता था। हालांकि वह बाहर आकर होली नहीं खेलते थे, बल्कि लाल किले के झरोखे से सारे आयोजन देखते थे। उन्हीं के काल में होली को ईद-ए-गुलाबी अर्थात रंगों का त्योहार और आब-ए-पाशी यानी पानी की बौछार जैसे नाम दिए गए।

बना दिया शाही उत्सव : मुग़ल शासक शाहजहां के दौर में दिल्ली में होली वहां मनाई जाती थी, जहां आज राजघाट है। इस रोज शाहजहां प्रजा के साथ रंग खेलते थे। बहादुर शाह ज़फ़र सबसे आगे निकले। उन्होंने होली को लाल किले का शाही उत्सव बना दिया। ज़फ़र ने इस दिन पर गीत लिखे, जिन्हें होरी नाम दिया गया। ये उर्दू गीतों की एक ख़ास श्रेणी ही बन गई।

ज़फ़र का लिखा एक होरी गीत यानी फाग आज भी होली पर ख़ूब गाया जाता है- क्यों मोपे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी। इस अंतिम मुग़ल शासक का ये भी मानना था कि होली हर मज़हब का त्योहार है। एक उर्दू अख़बार जाम-ए-जहांनुमा ने साल 1844 में लिखा कि होली पर ज़फ़र के काल में ख़ूब इंतेज़ाम होते थे। टेसू के फूलों से रंग बनाया जाता और राजा-बेगमें-प्रजा सब फूलों का रंग खेलते थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published.

two × two =

Related Articles

Back to top button