विश्व हिंदी-दिवस को सफल बनाना है, तो अंग्रेज़ी में मनाओ…
विश्व हिंदी दिवस (आज 10 जनवरी है-) अर्थात हिंदी की दुर्दशा – उच्चस्तरीय शिक्षा, प्रशासन एवं न्यायपालिका में हिंदी की अनुपस्थिति, हिंदी लेखकों की पुस्तकों के प्रकाशन में कठिनाइयां और प्रबंधन के व्यवसाय में हिंदी से परहेज़ – पर शोक-लेख लिखने, शोक-भाषण देने और हिंदी-दिवस को शोक-दिवस बना देने का न चूकने लायक अवसर।
इसके अतिरिक्त विश्व हिंदी दिवस अवसर पर कूछ कवि सम्मेलन भी आयोजित किये जायेंगे जिनमें ऐसे कविगण, जो अपने बच्चेां को हजा़रों रुपये की कैपिटेशन फ़ीस देकर किसी मांटेसरी स्कूल में भर्ती करा चुके होंगे, बड़े जोश के साथ उछल उछल कर हिंदी का गुणगान करेंगे और हिंदी के लिये पर्याप्त प्रयत्न न करने हेतु प्रबुद्ध वर्ग की ऐसी-तैसी करेंगे; और इस भावात्मक उछल-कूद पर श्रोतागण अपने नेत्रों को अश्रुसिंचित करते हुए तालियां बजायेंगे। एक और वर्ग नेताओं का है जिसको यह दिवस अपने को हिंदी का सबसे बड़ा पुजारी साबित करने और जनता को बहकाकर चुनाव में अपना उल्लू सीधा करने का अचूक अवसर उपलब्ध करायेगा।
वे नेता जी जो अपनी कूढ़मगज संतानों को नामी अंग्रेज़ी स्कूलों अथवा आस्टे्लिया, यू. के., अमेरिका आदि के स्कूलों में भर्ती कराने हेतु अपनी काली कमाई का सदुपयोग कर चुके होंगे, मंचासीन होकर अपनी हिंदी-भक्ति के न केवल चैपाई-दोहे गायेंगे वरन् अपने समस्त विपक्षियों को अंग्रेजी़-परस्त देशद्रोही साबित कर देने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखेंगे। ऐसे नेता जी के कुछ चमचे भी मंच पर चिंघाड़ेंगे जिसमें हिंदी की आवश्यकता अथवा उपयोगिता के विषय में चाहे कुछ न कहा जावे परंतु उन नेता जी के हिंदी प्रेम का भरपूर बखान कर अपने नेता-प्रेम को प्रदर्शित करने में कोई कमी नहीं रखी जायेगी।
हिंदी-दिवस पर हिंदी में उच्च शिक्षा की कमी…
पता नहीं जनता-जनार्दन विश्व हिंदी दिवस के इन व्याख्यानों, कविताओं और लेखों के मर्म को समझेगी अथवा नहीं, पर इतना निश्चित है कि अगले वर्ष के हिंदी-दिवस पर हिंदी में उच्च शिक्षा की कमी, हिंदी लेखकों की दुर्दशा, हिंदी प्रकाशकों की कठिनाई और नयी पीढ़ी में हिंदी के प्रति अरुचि में बढ़ोत्तरी ही दृष्टिगोचर होगी।
सच बात यह है कि मैं भी अपने घर के बच्चों को हिंदी माध्यम के विद्यालयों को नमस्कारम् करने की ही सलाह दूंगा। हिंदी के प्रति इस अरुचि का केवल एक कारण महत्व का है – अन्य सभी कारण गौण हैं। यदि इस एक कारण को मिटा दिया जावे तो हिंदी-दिवस पर मर्सिया गाने के बजाय हम सभी स्वाभिमानपूर्वक कह सकते हैं कि हम उस देश के वासी हैं जहां हिंदी बोली जाती है। यह कारण है हमारे नेताओं द्वारा हिंदी माध्यम के सरकारी विद्यालयों को शिक्षा, अनुशासन और सद्गुण सिखाने के मंदिर बनाने के बजाय अनुशासनहीनता, नकल, अपराध और राजनीति का अड्डा बना देना।
जब नेताजी अपने भाषणों मे विद्यार्थियों को यूनियन बनाने, राजनीति करने और नकल कर परीक्षा में पास होने का खुलकर आवाहन करते हैं तो भई ऐसे हिंदी के विद्यालयों से निकले हुए छात्र को कितनी हिंदी आयेगी जो वह हिंदी के पत्र, पत्रिकाओं और पुस्तकों को पढ़ेगा? किसी भाषा में रुचि पैदा होने के लिये उसमें निपुणता आवश्यक होती है और हिंदी स्कूलों में यह निपुणता प्राप्त करने का माहौल हमारे देश के कर्णधार बड़े प्रयत्नपूर्वक समाप्त करते रहे हैं। अतः हिंदी का पाठक ही पैदा नहीं हो रहा है फिर हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों को कौन पूछे?
हर हिंदुस्तानी का अभिमान हिंदी…(Opens in a new browser tab)
मै समझता हूं कि नेताओं की हमारे हिंदी माध्यम के विद्यालयों पर ऐसी ही ‘कृपा’ रही तो आने वाले वर्षों मे हिंदी को पढ़ने और समझने वालों की संख्या इतनी कम हो जायेगी कि पाठकों तक अपनी बात पहुंचाने के लिये हिंदी-दिवस को अंग्रेज़ी में मनाना पडे़गा। अभी भी अगर आप विश्व हिंदी दिवस पर हिंदी के पक्ष में कोई बात प्रबुद्ध पाठकों तक पहुंचाना चाहते हैं तो मेरी सलाह है कि हिंदी-दिवस को अंग्रेज़ी में मनाइये और लेखों को अंग्रेजी़ में छपवाइये।